मेरे गांव की पहली मिडिल पास “सरु दीदी”। जो 5वीं कक्षा में पहली बार साड़ी पहनकर गई थी।
(मनोज इष्टवाल)
कुछ स्मृतियां यकीनन दिल को शुकुन पहुंचाने वाली व समाज को प्रेरणा देने वाली होती हैं। वह तब और ज्यादा रोचक लगती हैं जब वह आज के परिवेश से बिल्कुल हटकर रही हों। वही कुछ स्मृतियां “सरु दीदी” से भी जुड़ी हैं।
आज से लगभग 58 साल पहले जब सरु दीदी ( श्रीमती सरोजनी जुगराण नवानी) लगभग 09 या 10 बर्ष की रही होंगी तब वह ठीक उस दिन साड़ी पहनकर स्कूल गयी थी जिस दिन स्कूल में साहब (जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी) आये हुये थे। यह और भी अद्भुत था कि तब उनके साथ पढ़ने वाली उस दौर में हमारे गांव के सवर्ण समाज नहीं बल्कि शिल्पकार समाज की दो दीदियाँ और पढ़ा करती थी, जिसने एक गोदाम्बरी दीदी थी व दूसरी कमला दीदी…। दोनों में शाह कौन थी व कोली कौन यह जानकारी मेरे संज्ञान में नहीं है। लेकिन यहां गर्व इस बात का है कि उस दौर में भी अर्थात विगत सदी के 60 के दशक में भी हमारे गांव का शिल्पकार समाज इतना समृद्ध सोच का था कि उनके पुत्र तो पढ़े ही लेकिन बेटियां भी पढ़ लिखकर आगे बढ़ी और इन्हीं परिवारों से निकलकर हमारे गांव के शिल्पकार समाज के भाई जज, चीफ मेडिकल ऑफिसर, एरोड्रम ऑफिसर, खंड विकास अधिकारी, सुप्रीम कोर्ट के वकील व फौज में इंस्पेक्टर व अन्य बड़े पदों पर रहे। यह वह दौर था जब शायद आरक्षण नाम मात्र का था। इन्हीं के पुत्री पुत्रियां अर्थात हमारे गांव के बेटे बेटियां इस समय मेडिकल के क्षेत्र में बड़े डॉक्टर्स, शिक्षा में प्रिंसिपल से लेकर अध्यापन के क्षेत्र से जुड़े हैं। इस गौरवशाली परम्परा की नींव वर्तमान में पड़ी होती तो कोई बड़ी बात नहीं थी लेकिन आज से 70 बर्ष पूर्व जब सवर्ण जाति का आम व्यक्ति शिक्षा से वंचित था तब हमारे शिल्पकार भाई बहनों ने शिक्षा ग्रहण कर गांव व अपना मान बढ़ाया यह कोई कम बड़ी बात नहीं है।
अब आते हैं श्रीमती सरोजनी जुगराण नवानी दीदी पर…! बर्षों बाद दीदी से इस बार देवपूजा के अवसर पर मुलाकात हुई तो बातों बातों में पता चला कि दीदी गांव की पहली मिडिल पास लड़की रही है। उस दौर की बात करती दीदी पुरानी यादों में चली जाती है। वह बताती हैं कि उनका परिवार तब दिल्ली से गांव में बसा ही था। मूलतः वे थापली गांव के जुगराण हुए जहां सबसे पहले बालिका मिडिल स्कूल ब्रिटिश काल में था, लेकिन हमारी फूफू व मामाजी (सरोजनी दीदी के माता -पिता) ने हमारे गांव में खरीद की जमीन लेकर अपनी बसासत यहीं शुरू की।
उस दौर की मीठी यादों को ताजा करती दीदी बताती हैं कि उनके पिताजी जरा सख्त तेवर के व्यक्ति थे। गांव में तब बचपन में जब तब स्कूल न था तब क्या बेटे क्या बेटी सब सल्तराज पहना करते थे। पांच साल की उम्र के बाद फ्रॉक पहनने को मिलती थी। और सात आठ साल होते ही लड़कियां धोती लपेटनी शुरू कर देती थी। उन्हें अच्छे से याद है कि तब वह ज्यादात्तर फ्रॉक पहनकर ही स्कूल जाया करती थी लेकिन उनके साथ की बहनें साड़ी पहनती थी। शायद तब फ्रॉक प्रचलन में होते हुए भी टेलर मास्टर कम हुआ करते थे व ग्रामीण स्तर पर शत्रु दास भैजी ही फ्रॉक सिला करते थे जो प्रॉपर टेलर मास्टर नहीं थे। क्योंकि वे गांव के आवजी हुआ करते थे तो डड़वार परंपरा के तहत तब दो जून की रोटी का बंदोबस्त करने के लिए उनकी ढोल के साथ कपडे सिलना भी मजबूरी थी। तब अन्न तो खूब था लेकिन पैंसे नहीं थे। एक फ्रॉक सिलाई एक अन्ना होता था।
सरोजनी दीदी बताती हैं कि तब आपसी प्यार प्रेम बहुत हुआ करता था। वह उस दिन पिताजी के घर में न होने पर पहली बार छुपते छुपाते साड़ी पहनकर स्कूल गयी थी। उसे बड़ी ललक थी कि जो बहनें साड़ी पहनती हैं वो कैसे पहनती होंगी। यह ललक ठीक वैसी ही होती होगी जैसे जवानी की तरफ़ कदम बढ़ाता युवा अपनी मूँछे उगने का इंतजार करता है।
दीदी ने बताया कि उसी दिन साहब भी आये तो उसका डर के मारे बुरा हाल था क्योंकि वह साड़ी सम्भाल नहीं पा रही थी। तब लकड़ियां चौंदकोटया धोती बांधती थी। इससे अक्सर ये होता था कि यह धोती ब्लाउज की आपूर्ति भी कर देती थी। खैर दीदी कहती हैं वह दिन था और आज का दिन उसकी हमेशा चॉइस साड़ी ही रही।
दीदी वर्तमान में 68 उम्र की हो गयी हैं लेकिन शैक्षिक सौम्यता व सामाजिक व्यवहार उनके आचरण में आज भी झलकता है। उन्हे यह बात कचोटती है कि काश..आठवीं पास के बाद उन्होंने बीटीसी कर लिया होता तो उनका पढ़ाई करना सार्थक रहता लेकिन शादी होने के बाद भला कहाँ तब महिलाओं को ससुराल में इतनी छूट होती थी कि वह बीटीसी कर लें। पिता जी ऐसे थे कि खलिहानों में गांव की अन्य बेटियों के साथ तक थड्या चौंफला बाजूबंद नृत्यों में शामिल नहीं होने देते थे। कहते थे वहां मिट्टी गोबर की गंदगी हम पर चिपक जाएगी। हां.. हम अक्सर तभी वहां जाते थे जब पिताजी किसी काम से घर से बाहर गए हों व इतना ध्यान हो कि आज वह कहीं मेहमान नवाजी में ही रुक गए हैं।