Thursday, November 21, 2024
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उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद पहली फ़िल्म “गढ़ रामी बौराणी”..!

शानदार पटकथा, निर्देशन व संवाद के बावजूद भी सफलता अर्जित नहीं कर पाई 

* शानदार पटकथा, निर्देशन व संवाद के बावजूद भी सफलता अर्जित नहीं कर पाई 

* हम गढ़वासियों का अहम् कहीं ना कहीं आपसी कलह में उलझा देता है सब कुछ 

(मनोज इष्टवाल)

यह प्रदेश के लिए शुभ संकेत भी है और अच्छी पहल भी। उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद जहाँ पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत द्वारा उत्तराखंड फ़िल्म विकास परिषद का गठन कर उत्तराखंड के फ़िल्म जगत से जुड़े कलाकारों को एक प्लेटफार्म मुहैय्या करवाया वहीं पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने चार कदम और आगे बढ़कर उत्तराखंड में फिल्मों की शूटिंग पर लगने वाले टैक्स को शून्य करवाकर फ़िल्म निर्माताओं को राहत प्रदान की। जिसका अच्छा नतीजा यह निकला कि मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री व दक्षिण भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री ने विदेशों की जगह उत्तराखंड में फ़िल्म निर्माण करना प्रारम्भ कर दिया है।

वर्तमान पुष्कर सिंह धामी सरकार ने और आगे बढ़कर क्षेत्रीय भाषाओं के निर्माण हेतु मिल रही सब्सिडी एक करोड़ प्रति फ़िल्म कर दी है, वहीं दूसरी ओर मजबूत फ़िल्म पॉलिसी का भी निर्माण कर दिया है।

लेकिन…. राज्य निर्माण के शुरूआती दौर के उन फ़िल्म निर्माताओं के नसीब में सिर्फ़ कंगाली ही लिखी रही जिन्होंने फ़िल्म निर्माण के व्यवसाय में यह जानते हुए भी कदम रखा कि जितना इन्वेस्टमेंट वे कर रहे हैं उसकी वसूली किसी भी हाल में संभव नहीं है। “आ बैल मुझे मार “ की कहावत चरितार्थ करती राज्य निर्माण के बाद पहली फ़िल्म “रामी बौराणी” तभी चर्चाओं में आ गई थी जब उसे अपना टाइटल बदलकर “रामी बौराणी” के स्थान पर “गढ़ रामी बौराणी” करना पड़ा क्योंकि रामी बौराणी के नाम से पहले ही टाइटल रजिस्टर्ड था।

अब आते हैं ” गढ़ रामी बौराणी” के निर्माण काल पर। यह फ़िल्म सम्पूर्ण रूप से पौड़ी गढ़वाल के खातस्यूँ पट्टी के सीकू गाँव में बनी है। यह वहीं लोकेशन है जिस मकान में बाद में लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का गीत “नया जमना का छोरों कन उठी बौळ, तिबरी डंडल्यूं म रॉक एंड रोल” फिल्माया गया था। इस लोकेशन के दो कारण यह भी थे कि एक तो सीकू गाँव लोक संस्कृति के रूप में जाना जाता था, दूसरा बड़ा गाँव और तीसरा फ़िल्म निर्माता वासुदेव सिंह रावत का गाँव (कंडेरी) व कहानी पटकथा लेखक एस एस रावत ‘अयाल’ का गाँव अयाल इस गाँव की सीमा से अपने गाँव की सीमाओं को जोड़ता था। पूरे डेढ़ माह तक एक ही लोकेशन के इर्द-गिर्द घूमती पटकथा व कलाकारों के जमावडे से लोग भी दिक्क आने शुरू हो गए थे। ग्रामीण अपनी खेती समेटे या खलिहान.. परेशान होना लाजिम था। और तो और जिन घरों में फ़िल्म यूनिट ठहरी थी वह सब फ्री में थे। ग्रामीण समाज के ही बिस्तर, उन्हीं के बेड उन्हीं के बाथरूम इत्यादि। स्वाभाविक है पूरे परिवारों के लिए यह अझेल हो जाता है। कैसे स्कूल समय पर बच्चों को तैयार किया जाय। कैसे नाश्ता खाना बनाया जाय। कैसे गाय बच्ची संभालें व कैसे अपने खेतोँ का काम देखें लेकिन धन्य है यह गाँव जो इतना सब होने के बावजूद भी हर संभव मदद के लिए तैयार रहा।

हाँ… रात की शूटिंग में जरूर कभी कभार हमारे ईमानदार लाइनमैन प्रेम सिंह नेगी बिजली उड़ा दिया करते थे जिससे भारी नुकसान उठाना पड़ता था। विद्युत विभाग से स्वीकृति मिलने के बाद भी जब समझ नहीं आया कि यह सब क्यों हो रहा है तब उन्होंने इच्छा जाहिर की कि उन्हें फ़िल्म की हीरोइन के साथ नृत्य करना है। खैर बाद में वे मुकर गये और मान भी गए।

इस मकान की हर्त्ता-कर्ता मालकिन जिन्हें सब “दादी” कहकर पुकारते थे ने अपनी बहुओं को बोल रखा था कि हम पारिवारिक रूप से जैसे भी रहें फ़िल्म वालों को दिक्कत नहीं होनी चाहिए क्योंकि एक तो यह नारी के उस धर्म पर बनने वाली फ़िल्म है जिसमें रामी बौराणी जैसी त्याग तपस्या वाली नारी है। दूसरा बमुश्किल उत्तराखंड के लिए फ़िल्म बन रही है, इसमें हमारा सहयोग जरूर होना चाहिए।

गंगा फिल्म्स प्रोडक्शन के बैनर तले बर्ष 2001 में बनकर तैयार हुई गढ़वाली फ़िल्म “गढ़ रामी बौराणी” पर यूँ तो कहानी व पटकथा अनुसार निर्देशक सुनील बब्बर ने अपने सारे इफेर्ट्स लगाए थे व सबको उम्मीद थी कि यह सिनेमा हाल में लगने के बाद बम्पर कारोबार करेगी लेकिन बड़े शहरों के बड़े सिनेमाहाल इस फ़िल्म को लगाने को तैयार नहीं हुए। यह वह दौर था जब गढ़वाल के 10 पहाड़ी जिलों के ज्यादात्तर सिनेमा हाल एक के बाद एक बंद हो रहे थे। ऐसे में फ़िल्म निर्माता  श्रीमति सरोज रावत व वासुदेव सिंह रावत फ़िल्म को लेकर ऋषिकेश के सिनेमाहाल पहुँचे जहाँ हफ्ते भर तक फ़िल्म हाउस फुल चली। शायद आस पास के क्षेत्र में थे भी इतने ही दर्शक क्योंकि पहाडों से भला कौन मोटी रकम खर्च करके फ़िल्म देखने ऋषिकेश आता। न तब इतने यातायात के संसाधन थे और न तब लोगों के पास पर्याप्त पैंसा ही होता था।

फ़िल्म में अभिनेता की भूमिका निभा रहे अशोक चौहान ,  अभिनेत्री मधु बिष्ट , सास की भूमिका में श्रीमति सुशीला रावत , ससुर भगवान चन्द, माँ की भूमिका में कुसुम नवानी , पिता वीरेंद्र सजवाण, खलनायक रविंद्र जुगराण , सह अभिनेत्री लक्ष्मी गुसांई , व पंडित की भूमिका में मनोज इष्टवाल ने अपने अपने किरदार बखूबी निभाये। पटकथा -गीत सौकार सिंह रावत “अयाल”, स्वर : अनिल बिष्ट , शशि जोशी , जगदीश बकरोला , लिली ढौंडियाल, संजय कुमोला , व डॉ शशि भूषण मैठाणी व अनिल बिष्ट द्वारा संगीतबद्ध की गई इस फ़िल्म  की कहानी  व पटकथा सौकार सिंह रावत “अयाल”,  सिनेमाफोटोग्राफी में मनजीत जीत, प्रोडक्शन कंट्रोलर मनोज इष्टवाल व सम्पादन  तरसेम बधन ने यकीनन बेहतरीन काम किया है। सच कहें तो पूरी यूनिट द्वारा इस फ़िल्म पर अपना सर्वस्व दिया गया है।

135 मिनट की अवधि की यह फ़िल्म चंडीगढ़ के रंगमंच की कलाकार मधु बिष्ट  (नायिका) व इस फिल्म में चंडीगढ़ निवासी अभिनेता भगवान चंद ने अपने अभिनय कार्य की शुरुआत की। इस फ़िल्म की ही देन है कि आज भगवान चंद जैसे बेहतरीन कलाकार अपने अभिनय से हम सबका मनोरंजन छोटे बड़े परदे पर करते रहते हैं।
गायक अनिल बिष्ट ने एक संगीतकार के रूप में इस फिल्म से अपने करियर की शुरुआत की । आज के सुप्रसिद्ध संगीतकार संजय कुमोला ने पहली बार बतौर गायक इस फिल्म का एक गीत भी गया था । इससे पहले भी वे कई म्यूजिक एलबम में अपनी गायकी आजमा चुके थे ।

‘ गढ़ रामी बौराणी ‘ का प्रीमियम ऋषिकेश के रामा पैलेस में हुआ था। फिल्म के ज्यादातर सीन एक दूसरे से मिल नहीं रहे थे । इसलिए फिल्म को दोबारा सम्पादित किया गया। जिसे रामा पैलेस के फिल्म ऑपरेटर प्रकाश चंद्र सेमवाल ने किया। उन्होंने फिल्म निर्माता के साथ बैठकर पूरी फिल्म को कहानी के अनुसार सम्पादित किया। जब जाकर फिल्म दर्शकों के समक्ष सही रूप में पहुंच पाई। पहाड़ की चर्चित कहानी पर आधारित ‘ गढ़ रामी बौराणी ‘ को कम सिनेमा हाल मिलने की वजह से वह सफलता ण मिल पाई जिसकी उम्मीद की जा रही थी। यही वजह भी बनी कि यह फ़िल्म सफल फिल्मों के श्रेणी में नहीं आ सकी।

सच कहें तो इस फ़िल्म के निर्माता व कहानी पटकथाकार दोनों का ही फ़िल्म जगत से पहले कोई संबंध नहीं रहा। बस एक जूनून था कि हम उत्तराखंड के सिने जगत के लिए कुछ करें लेकिन फ़िल्म का सही सम्पादन न हो पाना फ़िल्म की अपार सफलता में रोडे अटका गया। फिर आपसी कलह में यह फ़िल्म दुबारा दिखने को नहीं मिल पाई जोकि एक दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।

 

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