Saturday, July 27, 2024
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सरू ताल….जहाँ खुले आसमान के नीचे स्नान के लिए एक दिन उतरते हैं यक्ष, गंदर्भ, देवगण, परियां व तारामंडल!

सरू ताल….जहाँ खुले आसमान के नीचे स्नान के लिए एक दिन उतरते हैं यक्ष, गंदर्भ, देवगण, परियां व तारामंडल!

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 05 जून 2005)

ऋग्वेद के कर्मकांड मन्त्र के कन्यादान में लिखा है- “पुष्ठारक्षेत्रे मधुरम्य च वायु,छिदन्ति योगानि वृद्धन्ति आयु” ! बात लगभग 13 बर्ष पुरानी है ! मैं बर्ष तब रवाई घाटी के भ्रमण पर था ! बडकोट गंगनाली राजगढ़ी होते हुए मैं 10 जून 2005 को सरनौल गाँव पहुंचा जहाँ आकर सडक समाप्त हो जाती है! दरअसल मेरा मकसद ही ऐसे स्थानों की ढूंढ थी जहाँ अभी भी हमारा लोक समाज लोक संस्कृति अछूती थी! सच कहूँ तो मुझे आमन्त्रण भी मिला था कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय पुरोला की उन बेटियों का जिनके गाँव पुरोला से लगभग 30 किमी. पैदल दूरी पर 8 गाँव सर-बडियार थे! मुझे आश्चर्य यह था कि ये लोग आज भी क्या सचमुच 30 किमी. पैदल यात्रा तय करते हैं! बस दो दिन बाद सर गाँव में जुटने वाला कालिग नाग मेला जो था! फिर क्या था प्रधान सरनौल ने पोर्टर के रूप में मुझे गाँव के पदान त्रेपन सिंह राणा को उपलब्ध करवाया जिन्होंने अपनी काली घोड़ी में मेरा व कस्तूरबा की दो मैडम श्रीमती सरोज व चन्द्रप्रभा का सामान बाँधा और हम चल दिए सर गाँव के कालिग नाग मेले में! ये तो हुई पुरानी बात … तब से त्रेपन सिंह राणा सिर्फ पोर्टर नहीं रहा बल्कि उसके मेरे बीच हम पारिवारिक सदस्य से हो गए!

त्रेपन सिंह राणा का नम्बर फोन पर उभरते ही दिल खुश हो गया ! वह इसलिए की ग्रामीण आवोहवा की वह ताजगी देहरादून की प्रदूषित वायु में भी महसूस होने लगी थी मन मस्तिस्क वहीँ सैकड़ों मील दूर हिमालयी गाँव सरनौल जो पहुँच गया था! त्रेपन सिंह राणा बोले- भाई जी, परसों को जात्रा सरू ताल जा रही है ! आप आज ही गाड़ी लेकर पहुँच जाना मैं आपका बाट (राह) देखूंगा ! मन में पहले से भी इस ट्रेक को करने का भारी उत्साह था ! भला हिमालय में सिर्फ वायु, जल और जड़ी बूटियों के सहारे अपना जीवन यापन करने वाले उन दो महा साधकों को देखने का किसका मन नहीं होगा जो बर्षों से सरू ताल में कुटिया बनाकर रह रहे थे! बाबा गिरी महाराज व बाबा जमुना गिरी नामक ये साधू बारहों महीने लगभग 17,500 फिट की उंचाई पर निवास करते हैं जहाँ साल के आठ माह बर्फ से ढके पहाड़ होते हैं!

बहरहाल मैंने देर करनी उचित नहीं समझी रुक्सेक कसा और अगले ही दिन सरनौल जा पहुंचा जहाँ गाँव के बीच में स्थित रेणुका मंदिर में तब पूजा चल रही थी व ग्रामीण तांदी गीतों में मस्त मगन थे! मंदिर से बमुश्किल 50 कदम आगे त्रेपन का घर था मुझे देखकर उनकी माँ बहन त्रपणी बच्चे और श्रीमती खुश हो गयी! त्रेपन व छोटा भाई मंदिर प्रागण में ही थे जिन्हें बुलावा भिजवाया गया! मित्र कहते हैं आप लंबा लिखते हो शोर्ट लिखा करो। इसलिए शब्दों को और हल्का कर देता हूँ। सारे दिन की तैयारियों के बाद आज यात्रा प्रारम्भ हो ही गयी। सरनौल में माँ रेणुका के जयकारों के बाद त्रेपन की काली घोड़ी सजी व मेरा रुक्सेक भी उसी में लाद दिया गया! गाँव के ऊपर छानियों से होते हुए हम उकुल्टीधार में पहुँच गए जहाँ से बुग्यालों का सफर शुरू होता है!

शुक्र है मैंने पुरोला वाला पैदल रास्ता नहीं पकड़ा जहाँ से सरुताल लगभग 65 किमी. दूरी पर है! और पैदल यात्रा गुन्दियाटगाँव, सालुका, संजना टॉप, राकटथाच होकर केदारगाड़ पार करती हुए आठ गाँव सर बडियार पहुँचती है। सरनौल से सरू ताल की दूरी लगभग 30-32 किमी. बताई जाती है जिसका मात्र अनुमान ही लगाया जा सकता है! यह गजब था कि सरनौल वासी अपनी गाय भैंस वगैरह जितने भी मवेशी थे उन्हें भी अपने साथ ले जाकर जंगल छोड़ने जा रहे थे! जिन्हें अब कुछ माह जंगल ही रहना था व वहीँ बुग्यालों की बेशकीमती मखमली घास को चुग कर अपने को हृष्ट पुष्ट बनाना था! अभी सफर लम्बा था लेकिन जोश भरपूर था! उच्च हिमालयी बुग्यालों के शिखरों से आगे बढती यात्रा हडिक थातरा बुग्याल होकर सुतडी बुग्याल पहुँच गयी थी। हडिक थात्रा बुग्याल से सुतरी या सुतड़ी बुग्याल तक कठिन चढाई है। तदोपरान्त एक समतल मैदान है। जिसे सुतड़ी बुग्याल कहते हैं।जहाँ पहुँचते पहुँचते कपडे बदन पर चिपककर पसीने की ताकत का अनुमान करवा रहे थे। यह पसीना आना भी जरुरी है क्योंकि बदन के रोंवे में जमीं नमक तभी पिघलकर बाहर निकलती है।

सुतड़ी से लंबथात्रा बुग्याल तक लगभग हमें सामांतर चलना पड़ता है। यह क्षेत्र यकीनन बहुत खूबसूरत है। लम्बथात्रा बुग्याल से कई तरह के फूल खिलने शुरू हो जाते हैं। लम्बथातरा से अब हमें नीचे उतरना था, हमारे गाइड बताते हैं कि लम्बथातरा के बाद अब हम भुजेला ताल उतरेंगे पहले यह ताल काफी बड़ा व खूबसूरत हुआ करता था, अब यह ताल धीरे -धीरे सिमट गया है। यकीनन भुजेला बहुत खूबसूरत लोकेशन में अवस्थित है। भुजेला से अब हमारा सफर चंदरैणी जिसे कुछ लोग चंदरुँगी भी कहते हैं, तक था। गाइड हमेशा ही यह कहते हैं कि बस अब चंदरैणी नजदीक ही है। ये कहें कि एक लतड़ाक…! मैं इस लतडाक पर हंस पड़ा क्योंकि पहाड़ियों की यह लतडाक कई किमी की होती है। भुजेला से चंदरैणी तक लगभग 6 से 7 किमी. चढ़ना व चलना था। यह थकान भरा सफर होता है। कभी चढाई तो कभी सीधा और कभी कभी निचाई भी। घुटने जबाब दे देते हैं। आज हमारा सफर चंदरुँगी (चंदरैणि) से आगे फाचुकण्डी या फाछुकांडी बुग्याल तक था, यहां हमारी एडवांस टीम अपना तम्बू बम्बू लगाने पहुंच गई थी। मैं इतना अभागा कि डीएसएलआर कैमरा तो साथ था लेकिन उसके कार्ड्स रखना भूल गया। हथियार वह भी बिना गोली का…!

चंदरुन्गी से फाछुकांडी तक ही होगा जहाँ बुग्यालों में रात्री बिश्राम किया जाएगा छोड़े व तांदी गीत लगेंगे और भरपूर मनोरंजन के साथ बिश्राम होगा। मैं कुछ अन्य बातें इसलिए सार्वजनिक नहीं करना चाह रहा हूँ क्योंकि वह मेरे विजुअल दस्तावेज के लिए सबसे अहम हैं।  मैंने अपनी बोटल्स में पानी के साथ भरपूर ग्लूकोज मिश्रित किया हुआ था ताकि जब जहाँ भी होंठ सूखें एक घूँट भर लें। हमारे साथ पूरा जत्था था जिसमें महिलायें पुरुष व जवान लड़के लडकियां सभी शामिल थे। त्रेपन भी अपने तमलेट से दो घूँट भर लेता। बाद में पता चला कि उस तमलेट में घरेलू औषधीय पादपों से निर्मित शुद्ध दारु है। खैर वह मेरे मतलब की नहीं थी। मैं सूखे चने, बादाम, पिस्ता, किशमिस व काजू भरकर चला था।

त्रेपन बोला- भाई साहब काजू मत खाना बेकार चीज है। मैं मुस्कराया लेकिन उसकी बात पर अमल भी करता रहा। हिमालयी भू-भाग में हम प्रकृति के हवाले होते हैं और वही हमें अप्रत्यक्ष रूप से गाइड भी करती है इसलिए उसकी हवाओं फिजाओं और नजारों के बीच घुले मिले उन अप्रत्यक्ष सम्भावनाओं का भी ख़याल करके आगे बढना चाहिए जो तृप्त और अतृप्त आत्माओं के रूप में हमारे हम कदम बन चलती रहती हैं। वही मैं भी अक्सर करता हूँ। मुंह में कुछ भी चबाने से पहले ऐसी आत्माओं को अपना चकना अर्पित करना हमारा दायित्व भी बनता है क्योंकि हमारी कुशलता उन्हीं के हाथों में होती है।

(फाइल फोटो)

चारों ओर हरे भरे बुग्याल, काले रंग में प्रणित होते शिलाखंड और तरह तरह के पुष्प व औषधीय पादपों को उपर से मंदर गति से सहलाते नम बादल ऐसे अठखेलियाँ करते नजर आ रहे थे मानों प्रकृति ने उन्हें नौकरी पर रखा है और कहा हो कि इन्हें पुष्पित पल्लवित करने का ठेका तुम्हारा है। लेकिन हम सबके बेतुका रौंदते कदम मुझे नागवार से लग रहे थे क्योंकि हमारी यात्रा में अनुशासन नहीं था जिसका जहाँ मन होता वह वहीँ से रास्ता छोड़ बेवजह के बुग्यालों को अपने जूते के खुर्रों से रौंदता आगे बढ़ रहा था। इस धरा के गर्भ में ही तो पनपती दुर्लभ जड़ी बूटियां व भेषज इत्यादि आयुष का प्राकृतिक भंडार. रूद्रवंती, शिवधतूरा, वत्सनाभ या मीठा जहर, पदम्पुष्कर, नीली पौपी, प्रिमरोज, पोंटेटिला, संकुलम, प्रिमुला, विष कंडार, मेरि गोल्ड, ब्रह्मकमल, हेम कमल, फेन कमल के फूल तो डोलू, बीसी, मिट्ठा,सालम मिश्री, सालम पंजा या हतथा जड़ी, उतीस, अतीस, जटामासी, अरक, मिरग,महामेदा,पाषाण भेद, पाषाण फूल, पत्थर लौंग, वन तुलसी, वज्र दंती, सोमलता, रतनजोत, बालछड़, हंसराज, कीड़ा जड़ी जैसे कुछ सामान्य नामों के अलावा चार हजार से अधिक दुर्लभ वनस्पतियां यहाँ हैं।

मुझे लगता है कि सरनौल से हम लगभग 12 किमी. पैदल चलकर थकान से चूर, कपड़ों में पसीने से तर्र-बत्तर होकर चंदरैणी/चंदरुँगी बुग्याल पहुंच गए थे। सच कहूं तो इस बुग्याल की गुदगुदी घास में में पसरकर लेट गया। भेड़-बकरियां चुगाने वाले एक व्यक्ति को मैंने पूछा कि इसे चंदरैणि बुग्याल क्यों कहते हैं तो वह बोले- बाबू, कभी अप्रैल मई में आना इस बुग्याल में। जब रात्रि को चंद्रमा निकलता है तो ऐसा लगता है जैसे इसी बुग्याल पर आकर पसर गया हो। हो सकता है इसी लिए इसे चंदरुँगी बुग्याल कहते हैं। यहां ऐसा लगता है कि चांद धरती फाड़ कर यहीं से निकला हो।

मौसम की चेतावनी समझते हुए त्रेपन बोला- भाई जी, चलो..! बूंदाबांदी शुरू हो गयी है। अरे बाप रे…अब तो सचमुच बाप-दादा याद आ गए। दरअसल चंदरुँगी बुग्याल समाप्त होते ही फाछुकांडी तक जिग्जैक चढाई इतनी दुरूह थी कि लग रहा था अब फाछुकांडी पहुंचना सम्भव नहीं है। चंदरुँगी व उसके आस पास पसरे भांति-भांति के पुष्प जहां मन मोह लेते नहीं वहीं इनकी खुशबू से नशा चढ़ना शुरू हो जाता है। मेरी हालत देख त्रेपन बोला- लो भाई जी, निम्बू चूस लो। यकीनन निम्बू इस स्थिति में बेहद मददगार साबित हुआ। मेरे ख़याल से अब हम लगभग 12 चंदरुँगी व 15  किमी. यात्रा कर फाछुकांडी पहुँच गए थे। जहाँ दूर कुछ लोगों ने अपने त्रिपाल लगाकर रात्री बिश्राम का डेरा डाल दिया था। सच कहूँ तो बादलों की आँखमिचौली से यह पता ही नहीं लग पाया कि शाम ढलने को है!ल, क्योंकि प्राकृतिक नज़ारे ही कुछ ऐसे थे। किसी देवदार की पत्तियों से रिसते बर्फीले कण सी वे बूंदे, कहीं बौनी झाडी के उपर कैपिंग किये सफ़ेद बर्फ तो कहीं हंसती खिलखिलाती प्रकृति के होंठ सीलती बर्फ अपना हल्का-फुल्का होने का आभास करवा रही थी। जैसे कह रही हो कि दो माह पहले आते तो बताती कि मेरा साम्राज्य हिमालय में कहाँ से कहाँ तक फैला है।

हमें त्रेपन की घोड़ी चंदरुँगी बुग्याल ही छोड़नी पड़ी थी क्योंकि यहां से फाछुकांडी घोड़ी क्या बकरी व हिमालयी भरड के अलावा कोई जानवर नहीं चढ़ पठात तभी तो त्रेपन बोला था- भाई जी, क्यों न तलहटी में रुकें! मैं मुस्कराया और बोला- यार तुम शुद्ध पी रहे हो इसलिए थकान का तुम्हारे चेहरे पर नामोनिशान नहीं। यहाँ की दुरूह चढ़ाई हमारी घोड़ी कैसे चढ़ेगी। उसे ख़याल आया और बोला- हाँ यहाँ से तो घोड़े आगे बढ़ ही नहीं सकते। अब घोड़ा यहीं छोड़ना होगा। खैर रात्री बिश्राम के पश्चात हम अगले दिन अपने सफर पर निकल पड़े। यकीनन फाछुकांडी तक पहुंचते-पहुंचते ऑक्सीजन की कमी होनी शुरू हो जाती है।

हम सुबह सबेरे ही फाछुकांडी से सरुताल के लिए निकल पड़े। लोगों का कहना था कि यहां से अब लगभग 3 मील ही दूरी शेष है। मेरे होंठ मुस्कराए व स्वयं ही सीटी बजाने लगे। मन ही मन खुद को खुद से बोला- बेटा ये सोच ले कि पांच नहीं यह सात किमी. की दूरी होगी। खैर हम फाछुकांडी से बकरिताल के लिए निकल गए थे। यहां से बकरिताल थोड़ा ऊंचाई लिए था। जहां से हमें धीरे-धीरे सामांतर से सरु ताल के लिए नीचे की तरफ उतरना था। बकरिताल लगभग 02 किमी की दूरी हमें लगभग ढाई घण्टे में पूरी की। बकरिताल जतो नाम ततो गुण: । इस ताल को देखकर मैं प्रसन्न हो गया, मुझे लगा हम सरुताल पहुंच गए। लेकिन बाद में जब इसका नाम सुना तो जानकारी मिली कि रूपिन सूपिन नदी घाटी ही नहीं बल्कि केदार व यमुना घाटी की बकरियां अक्सर 06 माह इन्हीं बुग्यालों में चुगती विचरती हैं। यहां ऑंछरी मातृकाओं का निवास भी माना जाता है। इसलिए प्रकृति का आदर करें। यह ताल अपने नीले जल के रूप में पहचान में आएगा अर्थात सभी ट्रैकर्स से अनुरोध है कि इस ताल को ही मेरी तरह सरु ताल मानकर धोखा न खाएं क्योंकि सरुताल अभी लगभग 3 से 4 किमी आगे होगा। वैसे यहां के लोग 2 किमी ही दूरी बता रहे हैं।

फाछुकांडी व यहाँ से भी अलग –अलग रास्ते हैं। एक जो सीधे रतवडी (रतेडी) जाता है जबकि दूसरा तलहटी ! तलहटी में सारे रास्ते आकर मिलते हैं,  चाहे आप पुरोला से सर गाँव होकर पहुँचों या फिर सांकरी से जूडा का तालाब, केदारकांठा, बनियाथाच, धुन्धा थाच, पुष्टारा बुग्याल से तलहटी या फिर देवजानी से इसी मार्ग होते हुए तलहटी। तलहटी अक्सर सभी का बिश्राम स्थल होता है। तलहटी से मात्र 7 किमी. ही सरूताल की दूरी शेष रह जाती है। आप तलहटी से जब कोटादामिया पहुँचते हैं तब आगे मुंह के रास्ते जीब बाहर निकलनी शुरू हो जाती है। यहाँ से आगे भैरों घाटी व सप्तऋषि पर्वत श्रृंखला को लांघना सबसे बड़ी तपस्या लगती है। इसलिए मैं तो सलाह दूंगा कि आप कोटा दामिया में लगभग दो घंटे रिलेक्स कर ही भैरों घाटी का सफर जारी रखें। यहाँ के पर्वत श्रृंखला से गुजरने पर जहाँ दुरूह चट्टानें आपका रास्ता रोकती हैं। वहीँ ऑक्सीजन की भारी कमी के कारण आपने चढ़ते उतरते पैर आपका साथ छोड़ना शुरू कर देते हैं। कोटा दामिया का जल सचमुच आपके शरीर में स्फूर्ति भर देता है। तलहटी से जब आप रतवड़ी या रतेडी पहुँचते हैं तब तक आप 5 किमी. का सफर कर चुके होते हैं और इस पांच किमी. के सफर को आप 4 से 6 घंटों में पूरा करें तो आपकी स्फूर्ति बनी रहेगी। रतेडी से 2 किमी. दूरी पर स्थित सरू ताल के नजारे दिखाई देने शुरू होते हैं जिसके चारों ओर पर्वत श्रृंखलाओं के बीच ऐसा महसूस होता है जैसे तरासे हुए पत्थर इकट्ठा किये गए हों और कभी कालान्तर में यहाँ आबादी रही हो।

बहरहाल अब हम बकरी ताल की ऊंचाई से सरु ताल के लिए धीमी-धीमी ढ़लाई के साथ उतरने शुरू हो गए। सारे सफर में बादलों ने बाधा डाली और हम सरु ताल के आस पास की खूबसूरती देखने में बंचित रह गए। लगभग पांच से साढ़े पांच घण्टे पैदल चलकर आखिर हम सरुताल पहुंच ही गए।

इस स्थान का नाम सरू ताल क्यों पड़ा आइये इसे भी जान लेते हैं।

केदारखंड के शक्ति पीठ में बर्णित इस क्षेत्र को शक्ति कैलाश के नाम से जाना जाता है ! कहते हैं यहीं पर्वतराज पुत्री राजकुमारी श्रीदेवी ने तपस्या कर मान भगवती को प्रसन्न किया था ! जिन्हें उनके परिजन सरू नाम से पुकारा करते थे! आजीवन कुंवारी रहने वाली श्रीदेवी ने यहीं तपस्या की इसलिए इसे श्रीताल नाम से भी जाना जाता है! जो बाद में अपभ्रंश होकर सरुताल कहलाया! जहाँ लोग यश कीर्ति व श्री वृद्धि के लिए यात्रा करते  हैं व ताल की परिक्रमा कर स्नान करते हैं!

विगत कई बर्षों से यहीं तप कर रहे बाबा गिरी महाराज बताते हैं कि जब यहाँ अत्याधिक बर्फ गिरनी शुरू हो जाती है और ठंड का प्रकोप बढ़ जाता है तब वे ध्यान मुद्रा में चले जाते हैं जिस से उन्हें यहाँ गर्मी लगनी शुरू हो जाती है! वे कहते हैं कि यह मन और चित्त का भ्रम है। अगर आपका अपनी इन्द्रियों पर वश है तब सब कुछ आपके वश में है। उन्हें जब मैंने पूछा कि वे बारहों माह यहाँ रहकर क्या खाते हैं तब वे मुस्करा कर बोले प्रकृति ने इतने पादप दिए हैं जिनमें संजीवनी है इसलिए आप यहाँ घास पास व जड़ी खाकर भी स्वस्थ तन्दुरस्त रह सकते हैं।

इस हिमालयी रेंज में जहाँ केदारकांठा के बारे में किवदंतियां हैं कि यहाँ पहले आदिगुरू शंकराचार्य केदारनाथ मंदिर का निर्माण करवा रहे थे लेकिन देवजानी गाँव की गाय के रम्भाने की आवाज सुनकर उन्होंने निर्माण अधूरा छोड़ दिया और उसे वर्तमान केदारनाथ में निर्मित करवाया! पुष्टारा बुग्याल के बारे में कहा जाता है कि यहाँ देवता व परियां निवास करती हैं तथा यह स्वस्थ के लिए बेहद माकूल स्थान है इसीलिए तो पुष्टारा के बारे में ऋग्वेद के कर्मकांड मन्त्र के कन्यादान में लिखा गया है- “पुष्ठारक्षेत्रे मधुरम्य च वायु,छिदन्ति योगानि वृद्धन्ति आयु” ।

धुन्दा थाच में देवी श्री पर गलत नजर डालने के कारण शक्ति ने धूम्र नामक दैन्त्य का वध किया था। तब से इसका नाम धुन्दा थाच ही पद गया। वहीँ द्वापर युग में कृष्ण ने कालिया नाग को यमुना नदी से सरू ताल चले जाने को कहा था जहाँ वह गरुड़ से अपने प्राण रक्षा कर सकें। इस क्षेत्र से स्वर्गारोहिणी, बंदरपूंछ, चौखम्बा, भराडसरताल, हर की दून, स्वर्गारोहिणी, काली नाग शिखर सहित विभिन्न हिमालयी पहाड़ियां दिखाई देती हैं। केदारखंड के अनुसार पांडवों को यहीं भैरव रूप में भगवान शिव ने दर्शन दिए व यहीं भैंसे ने उन्हें स्वर्गारोहण का मार्ग बताया। रास्ते भर आपको सयाणी देवी मंदिर, मात्रियों के मंदिर मिलते हैं। बाबा जमुना गिरी बताते हैं कि जिस दिन आसमान में एक भी बादल नहीं होता उस दिन देवगण, परियां व तारामंडल तालाब में स्नान करने के लिए आते हैं! वो सरू ताल को पांचवा धाम बताते हैं।

(यात्रा वृत्त के अंतिम अंश लेख में बदलने पड़े क्योंकि यह बड़ा हो रहा था इसलिए विस्तृत मेरी आने वाली पुस्तक “उत्तराखंड ट्रेवल डायरी” में आप पढ़ सकेंगे!)

Himalayan Discover
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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