Sunday, September 8, 2024
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उत्तराखंड की यमुना-टोंस घाटी में जुटने वाला बिस्सू पर्व ………!

( इन्द्र सिंह नेगी नेगी की कलम से)

यह शायद जौनसार बावर के इतिहास में पहली बार हुआ होगा जब उनकी विभिन्न थातों व खत्तों में जुटने वाला बिस्सु मेला सिर्फ गांव तक ही सीमित रह गया। यह इस समाज की प्रशंसा करनी होगी कि सोशल डिस्टेंसिंग को ध्यान में रखते हुए इन लोगों ने पारंपरिक बुरांश के न्याजे गांव में अपने घरों को सजाने के लिए तो लाये ही लाये साथ में मंदिरों में भी चढाये लेकिन गांव के आंगन तक इस बार नृत्य व झैँता हारुल व ढोल की गमक से बंचित रहे गए। सबने अपने अपने घरों में रहकर इष्ट देवता की पूजा की व बिस्सु की एक दूसरे को शुभकामनाएं दी। बिस्सु पर क्षेत्र के लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता इंद्र सिंह नेगी ने कुछ यों चलाई अपनी कलम:-

उत्तराखंड की यमुना-टोंस घाटी जिसमें देहरादून जनपद जौनसार-बावर, टिहरी जिले का जौनपुर और उत्तरकाशी जिले का रंवाई तथा बंगाण सम्मलित हैं, में लोक पर्वो की समृद्ध श्रृंखला हैं जिसमें बिस्सू पर्व की अपनी एक विशिष्टता पहचान हैं ! इस त्यौहार की शुरुआत चैत्र माह के मध्य से प्रारम्भ हो जाती हे जब गाँव के लोग गाँव के समीपस्त स्थान पर पत्थरों की चिनाई कर “गोगा” का निर्माण करते हैं जिसको इस घाटी में अलग-अलग नामों से जाना जाता है।

टिहरी जनपद के जौनपुर प्रखंड में इसको “टेस्या’ नाम से सम्बोधित किया जाता हे ! इसी के साथ जिस दिन गोगा का निर्माण किया जाता हैं उसी दिन से गाँव के बच्चे प्रात:काल बिस्सू के आगमन तक विभिन्न प्रजातियों के फूलों से प्रत्येक दिन इसका श्रृंगार करते है तथा इन पुष्पों से घर की देहली, पांडव की चौंरी ( जिसमें पांडवों के प्रतीकात्मक अस्त्र-शस्त्र रखे होते हैं जिनका प्रत्येक माह की संक्रान्ति को पूजन किया जाता हैं) को पूजा जाता हैं !

उत्तराखंड की यमुना घाटी-टोंस घाटियों के अतिरिक्त में ये पर्व हिमांचल प्रदेश के शिमला, कुल्लू और सिरमौर जनपदों में विशेष रूप से मनाया जाता रहा ! जौनसार-बावर के नागथात, टिकरथात, गिरटीथात (मक्काबागी), चुरानी, चौलीथात( रामताल गार्डन), ठाणा डांडा, क्वानु, लाखामंडल, भरम, नराया, खुरुड़ी, चिल्हाड़, रायगी, कोटि-बावर, जाखणी का बिस्सू, बौग का बिस्सू जौनपुर के जागधार, कालीधार, परोगी, त्याड़े, रंवाई में डामटा, बंगाण, ठडीयार, हिमांचल के शिमला जनपद में जुब्बल, रोहडू तथा सिरमौर के हरिपुर धार, बालिकोटी (सिलाई) इत्यादि स्थानों पर मनाये जाने बिस्सू के मैले अपनी प्रसिद्धि के लिए जाने जाते हैं ! ये पर्व पूर्णत: लोकप्रायोजित होतें हैं, कोई इस्तहार या सूचना- निमंत्रण किसी को भी औपचारिक रूप से नहीं दी जाती !

बिस्सू का पर्व एक गते बैसाख अर्थात बिस्सू की संक्रात से प्राम्भ हो जाता हे ! बिस्सू की संक्रांत के दिन घर के छोटे-बड़े प्रांत:काल जग कर जंगल की प्रस्थान करते हैं और वहाँ से बुरांश के फूलों के लकड़ी के सहारे गूँथ कर बड़ी-बड़ी “सेवरियाँ’ जिसको कहीं जेवियाँ भी कहा जाता है बना कर लातें हैं, इस समय लोगों में ये भी प्रतिस्पर्धा होती है कि कौन बड़ी सेवरी बना कर लाता हे ! जैसे ही गांवों के युवाओं/ बड़ों का झुण्ड सेवरियों के साथ पहुँचता हैं सभी “सेवरियों के गीत” के गीत गाते हुए गाँव में प्रवेश कर अपने घर, गोशालाओं की छतों पर इन सेवरियों से सुशोभित करते हैं ! यहाँ यह भी महत्वपूर्ण हैं कि कोई परिवार यदि किसी कारणवश सेवरियाँ नहीं ला सका तो अन्य लोग उनके लिए बना कर लाते रहे हैं ताकि सम्बन्धित परिवार इससे वंचित ना रह पाए !

इसके पश्चात बाजगी संगरांद की नौबत (विशेष प्रकार की ताल) गाँव की अलग-अलग दिशाओं, ठौर (जिसमें गाँव का वास्तु निहित होता हे ), पांडव चौंरी की तरफ बजाता है तथा इसके पश्चात प्रारम्भ होती हे “गोगा की जातर” ! गाँव के सभी लोग पंचांगन में एकत्र होकर ढौल-दमाऊ और रणसिंघे की धुन के साथ विभिन्न प्रकार के लोकगीत गाते हुए पूर्व निर्मित गोगा की ओर जाते हैं व यहाँ होता है परस्पर जोर-आजमाइश का दौर, गाँव के युवा और बड़े दो टोलियों में बिभक्त हो जाते हैं और करते हैं गोगा गिराने का प्रयास ! जब लोग गोगा गिरा चुके होते हैं पुन: पंचांगन में आकर नाचते-गाते हैं तथा इसके पश्चात सभी एक-दुसरे के यहाँ प्रेमपूर्ण ढंग से विभिन्न पकवानों का आनन्द उठातें हैं, इन पकवानों में पूरी-कचोड़ी, लाडू (चावल के पापड़, जिसका निर्माण प्रत्येक घर में किया जाता है कुछ अपवादों को छोड़कर), मुड़ा आदि प्रमुख हैं, अब तो घरों में इस अवसर पर नमकीन-बिस्किट का प्रचालन भी देखा जा रहा हैं कई बाजारू उत्पाद भी इन त्योहारों में अपने पाँव पसार रहे हैं किन्तु किसी समय पूर्णतया घर पर बने पदार्थ ही उपयोग में लाये जाते थे ! शाम को भी लोक गीत-नृत्य चलते रहते हैं, इसी दिन अनेक देव स्थलों पर लोक प्रसाद चढ़ा कर अपने इष्ट से मन्नतें मांगते हैं तथा शादीशुदा ध्याणीयों (लड़कियों), भांजियों को बिस्सू का बांठा (हिस्सा) पहुंचाने की परम्परा भी हैं !

बिस्सू के दुसरे दिन हालांकि गाँव के पंचागन में ही गीत-नृत्य किये जाते हैं किन्तु अनेक स्थानों पर कईलू देवता जिसकों श्री महासू देवता का गण मना गया हे के मंदिरों पर “कईलू की जातर” का आयोजन किया जता हैं। यहाँ मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने के साथ इसके परिसर में लोक गीत-नृत्य किये जाते हैं ! बिस्सू के तीसरे दिन से मेले प्रारम्भ हो जाते हैं जिसको “गनियात” की संज्ञा दी जाती। कहीं गनियात तीसरे, चौथे तो कहीं पांचवें दिन भी होती हैं। इस अवसर पर श्री महासू देव के प्रतीक चिन्ह निशाण (ध्वज), छड़ी आदि भी अनेक स्थानों पर मैले स्थानों पर लायी जाती हे, अनेक गाँव, खतों के लोग अपनी-अपनी दिशाओं से हाथों में डंडे, पारम्परिक अस्त्र लिए ढोल-बाजे के साथ मेंले स्थल पर प्रवेश करतें हैं। मेले स्थल पर दिन भर विभिन्न प्रकार की लोकगीत-नृत्य की विधाओं जैसे झैंता, रासो, जंगबाजी, सराई, जंगू-बाजू, ठणकिया आदि चलते हैं, गनियात का मुख्य आकर्षण पारम्परिक “ठोऊड़ा नृत्य” होता हैं जो वातावरण में रौमांच पैदा करने का काम करता है, इसे पांडवकालीन संस्कृति से जोड़ा जाता है।

ठोऊड़ा नृत्य करते हुए नर्तक ढोल-दमाऊ और रणसिंघे की धुन पर धनुष-बाण लेकर व्यंगात्मक तरीके से अपने प्रतिद्वंदी को युद्ध के लिए ललकारते हैं, तथा उस पर बाण का प्रहार भी करते हैं। इस छद्म युद्ध में इस बात का बिशेष ध्यान रखा जाता है कि तीर सामने वाले के घुटने से नीचे ही लगे। जैसे ही ठोऊड़ा नृत्य प्राम्भ होता है, जन समुदाय नर्तकों को उत्साहित करने के लिए सीटियों से वातावरण को गुंजायमान बना देता हैं। धनुष-बाण के साथ किये जाने वाले इस नृत्य से लोगों का उत्साह ,रोमांच हिलारें मारने लगता है। हर प्रतिद्वंदी का प्रयास रहता है कि उसके तीर ना लगने पाए। एक-दूसरे पर बारी-बारी से प्रहार शब्दों से लेकर बाणों के प्रहार और इससे बचने के प्रयास चलते रहते हैं। बाण से बचने व बाण लगने पर चलाने वाले को अंक अर्जित होतें हैं, जिससे हार-जीत का निर्धारण होता हे ! बाण शरीर घुटने से नीचे शरीर तक ना पहुंचे इसके लिए घुटने से नीचे के हिस्से को मोटे कपड़े इत्यादि से ठीक ढंग से बांधा जाता है। इस युद्ध कला में प्रयुक्त धनुष की लम्बाई एक से डेढ़ मीटर तथा बांस से बना बाण या तीर पच्च्तर से.मी. से एक मीटर तक होती है। ये नृत्य अब कम ही देखने को मिलता हैं। इसको करने वाले जानकार घटने लगें हैं। इसके संरक्षण के लिए सार्थक पहल नहीं की गयी तो जल्द ही ये दुर्लभता की कगार पर पहुँच जाएगा, हिमाचल प्रदेश की भांति इसको संरक्षण प्रोत्साहन दिए जाने की तत्काल आवश्यकता है। बाण न लगने पर या बाण लगने पर जिस तरह आपस में संवाद होते हैं उन्हें सुनना अपने आप में एक रोमांच भर देता है। अगर बाण सही नहीं लगा तो बाण मारने वाले के उलाहने मिलते हैं और बाण लग गया तो अपना हाथ में लिए फरसा बाण बाज नाचकर अपने पुरखों की प्रशंसा करता है। यह देखने में बहुत अद्भुत होता है।

यमुना-टोंस घाटियों में इस पर्व को मनाने के स्वरूप में समय के साथ परिवर्तन भी आ रहे हैं, इन घाटियों से भी शिक्षा, रोजगार जैसे अनेक कारणों से पलायन बड़ा है और जारी है। पूर्व में त्योहारों को मनाने में जिस प्रकार का उत्साह रहता था, लोग कई दिनों से तैयारियां प्रारम्भ कर देते थे, इन्तजार करते थे। इन पर्वों का बेसब्री से इन्तजार रहता था जनमानस को किन्तु इसमें साल दर साल कमी महसूस की जा रही है। मेले स्थलों पर बाजारू खाद्य पदार्थों की खपत बड़ी है जबकि इन मेलों में स्थानीय खाद्य उपयोग ज्यादा किया जाता था। पारम्परिक परिधानों का स्थान तथाकथित आधुनिक काल के परिधान लेने लगे हैं, दूसरा चिंता का विषय यह है कि लोक गीतों और नृत्यों में युवा सहभागिता घट रही हैं, इसका परिणाम ये है कि अनेक गीत-नृत्यों की विधाएं पुरानी पीढ़ी के साथ ही चली जायेगी। यदि समय रहते इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया तो परिणाम क्या होंगें आसानी से समझा जा सकता है।

परिवर्तन सृष्टि का नियम है इससे कोई समाज भी अछूता नहीं रह सकता। बदलाव को रोका नहीं जा सकता किन्तु सार्थक दिशा देने के प्रयास समय रहते किये जा सकते हैं। वाह्य जगत की अच्छाइयों को सहेजते हुए अपने को बचाने का भाव भी जागृत किया जाना चाहिए। कहीं ऐसा ना हो कि ये तीज-त्यौहार किसी शोधार्थी के शोध, वृतचित्रकार के वृतचित्र का विषय बने और किसी पुस्तकालय में इसके विषय में भावी पीढ़ी को जानकारी इस बाबत जानकारी एकत्र करनी पड़े। इस बात का ध्यान रखते हुए लोगों को स्वयं इसको सहेजने के लिए आगे आकर अपनी सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी, सरकारों के भरोसे ना संस्कृति बची है कभी ना बनी हैं।

Himalayan Discover
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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