Sunday, September 8, 2024
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दीबा डांडा का वह रहस्य…बारात आजतक दुल्हन के घर नहीं पहुंची…!

दीबा डांडा का वह रहस्य…बारात आजतक दुल्हन के घर नहीं पहुंची…!

ट्रेवलाग….! नैनीडांडा महोत्सव 2020..!

(मनोज इष्टवाल 1 फरवरी 2020)

दिगोली खाल…..! नाम सिर्फ नाम ही होता तो कोई बात नहीं थी! यह दिगोली खाल ऐतिहासिक युद्धों के लिए मशहूर रहा है! जाने इसकी सरजमीं ने कितने युद्ध झेले देखे व उनका यह क्षेत्र प्रयत्क्ष दर्शी रहा! यूँ तो किसी भी राज्य का सीमा क्षेत्र अस्थिर ही कहा जा सकता है क्योंकि वह हमेशा युद्ध की भेंट चढता रहा! दिगोलीखाल में हमें चन्द्रेश योगी के पार्टनर यादव जी अपनी कार आगे पीछे करते दिखे ! घड़ी पर नजर डाली तो देखा 5 बजकर 3 मिनट संध्याकाल था! चन्द्रेश योगी के कैंप रसोइया बोहरा जी ने हमारे लिए मुर्गी की टांग चावल सब्जी इत्यादि सब बनाकर रखा हुआ था!

यह कैंप दरअसल दिगोलीखाल से लगभग आधा किमी. आगे “जीतू गोर्ला का थौळ” स्थान से लगा हुआ था! इस हिसाब से यह ऐतिहासिक हुआ! जीतू का थौळ और गोरलाओं की वह जादुई तलवार, उनके दरबारगढ़ परसोली क्वाठा पर चर्चा आगे करूँगा! फिलहाल चन्द्रेश ने सीढ़ी अंगुली लगभग आसमान की तरह उठाते हुए कहा- वो रही गुजडू गढ़ी..! मैं बोला- गुजडू गढ़ी नहीं गुजडू गढ़! एक ऐसा ऐतिहासिक किला जिसने गढवाल कुमाऊं के सामंत के उठते-गिरते अहंकार, पतन व विजय को ऊँचा सर करके हमेशा देखा!

विवेक नेगी बोल पड़े- सर, वो देखिये दीबा मन्दिर…! वहीँ से होकर हम आये थे! लिस्टयाखेत होकर….! अरे जहाँ आपने बोला था कि वन मंत्री के ओएसडी विनोद रावत जी से ठहरने की बात हुई है! यह अलग बात है कि उन्होंने आपका फोन नहीं उठाया या फिर मुंबई कौथीग के शोर में उन्हें सुनाई नहीं दिया! मैं मुस्कराया! इसके सिवाय कर भी क्या सकता था! मन ही मन सोचा कि माँ दीबा का शुक्रिया अदा कर दूँ! यूँ तो दीबा डांडा आर-पार के बहुत से किस्से हैं और बहुत से गीत भी..! पौड़ी गढ़वाल की सबसे ऊँची छोटी दीबा डांडा के गुजडू गढ़ी की भी बताई जाती है, लेकिन आज अचानक मुझे अपने गाँव के गुड्डी दीदी के पिताजी यानि दौन्थी चाची के पति स्व. आनन्द सिंह रावत याद आ गए जो बचपन में अपनी पुत्री ऊषा भुली को कंधे में रखकर गाया करते थे:- “रात घनाघोर मांजी रात घनाघोर…! बियाणा नि आई मांजी दीबा डांडाओर!” व्यक्ति मर खप्पकर कहाँ चला जाता है यह भला किसने जाना लेकिन उसके कर्म व बोल हमेशा उसका मार्गदर्शन/याद करवाते रहते हैं! कई बार यही गीत मैंने अपने यहाँ के आनन्द लाल के मुसुक बीन में भी सुने! और जितनी बार सुने उतनी बार आनन्द चाचा याद न आयें हों ऐसा सम्भव नहीं है!

ट्रेवलाग कन्टेन कहिये या फिर स्टोरी टेलर….! भावनाएं उदिग्नता तो बढाती ही है व बर्षों के किस्सों को लाकर सामने खड़ी हो जाया करती हैं! मुझे इसी दीबा डांडा का वह किस्सा याद आ गया जो मैं अक्सर बाल्यकाल में सुना करता था कि एक बारात महीनों बीत गये लेकिन आज तक दुल्हन की ससुराल नहीं पहुँच पाई! मेरे भाई साहब गिरीश चन्द्र इष्टवाल इसी क्षेत्र के इंटर कालेज जोगीमढ़ी में प्रधानाचार्य रहे! सोचा अपनी बचपन की सुनी-सुनाई बात के किस्से को उनसे सुन लूँ शायद उन्हें पता हो! भाई साहब का फोन नहीं उठा तो भतीजे राजेन्द्र को फोन किया! उसने कहा हाँ..चाचा जी ऐसा तो हुआ लेकिन किस गाँव का किस्सा है मैं आपको आधे घंटे में अपडेट करता हूँ! फिर ललित को फोन किया वह बोला- चाचा जी, हुई तो है लेकिन यह उस काल की घटना है जब मेरा जन्म भी नहीं हुआ था!

बहरहाल यह घटना हुई तो थी इसके प्रमाण मिलत हैं लेकिन किस गाँव की बारात थी व किस गाँव जानी थी यह अभी आधी अधूरी सी जानकारी है! किस्सा भी तो आज से लगभग 50 बर्ष पूर्व का है! तब इस क्षेत्र में यातायात के साधन सीमित थे! सड़कें नहीं थी! सड़कें थी भी तो गाड़ियां या पैंसा नहीं हुआ करता था! बैजरो के आस-पास से बारात को दीबा डांडा पार किसी गाँव जाना था! ढोल दमाऊ मशकबीन के साथ बारात को घनघोर बाज-बुरांस चीड देवदार के जंगल को पार कर जाना था! शाम ढल रही थी तो रास्ते से कुछ ही फासले पर एक मंदिर दिखाई दिया! एक बुजुर्ग ने बारातियों को आवाज देकर बोला- आओ पहले माँ दीबा भगवती के दर्शन कर लेते हैं! लेकिन कुछ ने इसमें ऐतराज जताया बोले- शाम ढलने को है गाँव अभी दूर है हो न हो यहीं रात पड़ जाए! आगे जंगली जानवरों का डर है! आते समय चले जायेंगे मंदिर फर्क क्या पड़ता है! बुजुर्ग बोले- सिर्फ 15 मिनट की तो बात है लेकिन बाराती नहीं माने! बुजुर्ग ने कहा ठीक है आप चलो, मैं तो मंदिर के दर्शन करके ही लौटूंगा!

मंदिर में माथा टेक बुजुर्ग आगे बढ़ा तो न बाजों की आवाज सुनाई दी न किसी आदमी की! उन्हें लगा कि उसे ज्यादा देर हो गयी है इसलिए वे तेज क़दमों से दुल्हन के गाँव की तरफ चल पड़े! अन्धेरा धीरे-धीरे घिरता रहा लेकिन अब बुजुर्ग दुल्हन के गाँव की सरहद वाले रास्ते पर थे, जहाँ से ग्रामीणों की आवाजें तो सुनाई दे रही थी लेकिन ढोल बाजा इत्यादि बजना नहीं सुनाई दे रहा था! गाँव के ऐन मुख्य द्वार पर सब ग्रामीणों को इकठ्ठा देख बुजुर्ग को लगा कि सबको यही लगा होगा कि कहीं मुझे बाघ वगैरह ने तो नहीं खा दिया! वे बोले- चिंता मत कीजिये मैं ठीक हूँ! पहुँच गया..! दुल्हन के पिताजी बोले- वो तो ठीक है लेकिन बारात कहाँ है? बुजुर्ग अचम्भित हो बोले- कि वो तो मुझसे पहले निकल चुकी थी! फिर पूरा किस्सा सुनाया! ग्रामीण रात भर परेशान रहे लेकिन बारात नहीं पहुंची! सुबह सारा गाँव बारात ढूँढने निकल पड़ा लेकिन बारात का कहीं नामो-निशाँ नहीं मिला! दुल्हे के गाँव भी लोग गए लेकिन वहां भी कुछ पता नहीं चल पाया! पूरे इलाके के लोगों ने जंगल छान मारा लेकिन कहीं बारातियों का कोई सुराग नहीं मिला! अचानक किसी बुजुर्ग के ध्यान में 35-40 पेड़ एक साथ नृत्य मुद्रा में या पंक्तिवार दिखाई दिए! उसने आश्चर्यव्यक्त किया कि यहाँ तो पूर्व में कोई जंगल नहीं था अब अचानक यहाँ ये पेड़ कहाँ से आ गए! सबने जब यह सुना तो वे भी आश्चर्यचकित रह गए! आखिर यह कैसे हो सकता है कि रातों-रात जंगल के रास्ते की यह वृक्षहीन धार पेड़ों से भर जायेगी!

एक युवा ने यह आजमाने के लिए कि यह पेड़ सचमुच के हैं कि किसी ने गाड़े हुए हैं, एक पेड़ की टहनी को जोर से खींचा! वह भय से चिल्ला पड़ा- खून-खून! लोग दौड़े तो देखा पेड़ की शाखा से लाल रंग का लिक्विड टपक रहा है! फिर तो सबने हर पेड़ की शाखा को खुरच कर देखा तो पाया हर एक से खून के रंग का लिक्विड टपक रहा है! यह आश्चर्यजनक था कि ऐसा सिर्फ इन्हीं चंद पेड़ों से यह लिक्विड निकल रहा था! बुजुर्ग समझदार थे! उन्होंने कहा-अब बारात दुल्हन के गाँव कभी नहीं जायेगी क्योंकि बारातियों को माँ दीबा ने रुष्ट होकर पेड़ बना दिया है!

ये पेड़ सचमुच बाराती हैं या नहीं यह कहना मुश्किल है लेकिन मानव विश्वास इसमें जुड़ा हुआ है क्योंकि ऐसा ही पेड़ मेरे गाँव के पास पौड़ी से लगभग 27किमी. सडक मार्ग के उपर जाखगाँव में भी है जिसे हम जाखडाली के नाम से जानते हैं! वह एक बिशाल बाँझ वृक्ष है जिसको काटने से ऐसा ही खून जैसा तरल पदार्थ निकलता है!

आज मानव परिक्षण के लिए पर्याप्त संसाधन है लेकिन प्रयोगधर्मिता वाले लोग ऐसी बिषम वस्तुओं पर क्यों नहीं अपना शोध करते? यह प्रश्न ज्यों का त्यों बना हुआ है! दीबा डांडा की वह बारात इन 50-60 बर्षों बाद भी नहीं लौटी लेकिन किसी ने इस पर दुबारा शोध करना तो दूर लेख लिखना तक छोड़ दिया है! अभी यह सदी पुरानी घटना नहीं है इसलिए इस पर विश्वास किया जा सकता है लेकिन जैसे ही भौतिकवादी समाज की प्रचुरता ज्यादा बढ़ेगी वे इसे कपोलकल्पित घटना बताने में एक सेकेण्ड का समय नहीं लेंगे! दीबा माँ को पुनः प्रणाम करके लेखनी को बिराम देता हूँ! आगे का सफर जारी रखने के लिए इसी दीबा डांडा के गुजडू गढ़ की कथा-व्यथा व ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित ट्रेवलाग लिखूंगा व उस बात का शोधपूर्ण तर्क भी दूंगा जिसे यहाँ कुछ लोग कहते हैं कि गुजडू गढ़ी नकुल ने बसाई है!

क्रमश:…..

Himalayan Discover
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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