सुरकंडा की घाटियों में गूंजता उषा का वह ढोल! उषा देवी ने ढोल काँधे पर ही नहीं टांगा बल्कि देवताओं की जागरों से अपनी पौराणिक प्रथा को भी जीवन दिया!
(मनोज इष्टवाल)
वैसे तो ये सब आदिकाल से चला आ रहा है जब भी पुरुषों ने हार मानी माँ जगदम्बा ने जन्म लिया व पुनः श्रृष्टि की संरचना में अपना योगदान दिया! यहाँ भी कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है क्योंकि जब पृथ्वी निराकार थी चारों ओर अन्धकार था तब माँ पार्वती ने ही शिब का आवाह्न कर उनसे ऐसे नाद की संरचना करने की गुहार लगाईं जिससे पृथ्वी में ओंकार /ओमकार /उद्न्कार अर्थात उजाला हो जाय! ढोल सागर का यहाँ विस्तार देना ठीक नहीं रहेगा क्योंकि हम अभी एक ऐसी कलावंत की कला की बात कर रहे हैं जिसने आवजी का अर्थ सच्चे शब्दों में उन कलावन्तों को सिखाया जिन्होंने अपने काँधें के ढोलों को इसलिए परित्याग कर दिया क्योंकि समाज द्वारा उन्हें बर्षों से परिष्कृति मिलती रही ! भला कोई माँ अपने लाडले को अपने से दूर कर सकती है क्योंकि ढोल की कसणिका जो बाजगी या औजी के ढोल की गमक पैदा करती हैं वह ढोली यानि बाजगी का पुत्र कहलाती है! क्योंकि डोरिका में तो साक्षात ब्रहमा जी का पुत्र विराजमान है और उसको कसने के लिए जो कसणिकायें होती हैं उन्हें गुनिजन यानि आवजी/औजी/ढोली/बाजगी पुत्र कहा गया है जिसका ढोल सागर में इस तरह बर्णन आता है:-
श्री पारबत्युवाच II
अरे गुनीजनम आपपुत्र भवे ढोलम ब्रह्मा पुत्र च ड़ोरिका!
विष्णु पुत्रं भवे पूडम कुंडली नाग पुत्र च कुरूम पुत्र कन्दोटिका!
गुनी जन पुत्रं च कसणिका, शब्द ध्वनि आरम्भ पुत्रं च, भीम पुत्रं च गजाबल ii
सामवेद के १४वें अध्याय में लिखा गया सूक्त-१ में बर्णन मिलता है- “ गौ के तुल्य आने वाली उषा के प्रकट होने पर अग्नि अध्वर्युओं के काष्ट से ज्योतिर्मय होकर वृद्धि करते हैं! उनकी शाखाएं ऊँची फैलती हुई बिशाल वृत्त के तुल्य अन्तरिक्ष की ओर बढ़ोत्तरी करती हैं! होता रूप अग्नि देवों के यजन के लिए बढ़ते हैं! वे उषाकाल से हर्षित मन से ऊपर की ओर उठते है!”
इस उषा देवी में भी मुझे सामवेद का यह काल दिखा ! सचमुच जब इन्होने काँधे पर ढोल टांगा तभी लग गया था कि इनका गजाबल(लान्कुड) के प्रहार से सुप्त इन्द्रियों में जागरण होगा! और सचमुच जब इन्होने शबद के साथ शुरुआत की तब इनके साथ संगत दे रहे इनके पति सुमन दास की दमाऊ की लान्कुड उलझती सी दिखाई दी जिस पर उनका ध्यान केन्द्रित था! ऐसा लग रहा था जैसे माँ पार्वती की भाँति यह भी ढोल के छटवें राग को जानती हैं क्योंकि ढोल सागर के अनुसार पांच रागों के शिब एवं छठवें राग की जनक पार्वतीजी हैं!
(श्रीमती उषादेवी के साथ)
टिहरी गढ़वाल के सुरकंडा देवी के तलहटी पर बसे गाँव हटवाल गाँव की उषा देवी ने जब ढोल काँधे पर धारण किया तब वह पारिवारिक परिस्थितियों के सामंजस्य की उहापोह में थी! कमाई के कोई संसाधन न देखते हुए उषा देवी ने बिना समाज की प्रवाह किये अपने पति सुमन दास के पुरखों से चले आ रहे व्यवसाय को बढ़ाना ही उचित समझा! यह ढोल उन्होंने एक रात में बजाना नहीं सीखा बल्कि वह इसका निरंतर अभ्यास करती रही! गुनीजनों की जागर बहुत ध्यान लगाकर सुनती और उस पर हृदय से मनन करती! वह ढोल की सात तालों पर अपना हर रोज हाथ आजमाती और कोशिश करती कि एक पारंगत ढोल वादक की तरह उसके हाथ भी ढोल पर वही गमक लाते जो ढोल सागर के ज्ञाता लाते हैं! ऊँची सोच रखने का परिणाम यह हुआ कि उषा देवी ने बहुत कम उम्र में ही ढोल बजाना सीख लिया और उन सब आवजी समाज को यह संदेश भी दे डाला कि ढोल वह विधा है जो आपको कभी पेट की भूख नहीं देती! आपको जरुर अन्न देकर आपकी दिनचर्या का माध्यम बनेगी! आज उषा देवी अपने ढोल में जागर लगाकर देवी देवताओं को भी प्रसन्न करती हैं और कहती हैं कि माँ सुरकंडा की कृपा है कि वह व उसके पति दोनों ही अपनी वृत्ति बाड़ी खूब अच्छे से सम्भाल रहे हैं! उनके गैक (यजमान) उन्हें ससम्मान अपने पारिवारिक उत्सवों में न्यौता देते हैं और वह शादी ब्याह से लेकर मुंडन तक के सभी उत्सवों में ढोल बजाती हैं जहाँ से उन्हें अपेक्षाकृत अच्छा धन प्राप्त होता है!
उषा ने जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण के जन्मदिन पर माँ बालकुंवारी के जागर से गुणगान किया लेकिन ताजुब यह था कि उनके पति सुमन दास उनके साथ “ढओळ पुर्याने” (आवाजी संगत) देने का भी काम नहीं कर पा रहे थे ! ऐसी महिला के लिए जाने हाल में कितनी बार तालियाँ बजी व कितनों के हाथ जेब के अन्दर गए! मन तो मेरा भी हुआ कि अपनी ओर से भी पारितोषिक दूँ लेकिन लगा जितना जेब में है वह तो ऐसी देवी के लिए कम है! मेरा मन उन्हें बड़े प्लेटफोर्म पर लाकर खड़ा करने का है! उम्मीद है आप लोग भी अगर अपने उत्सवों में उन्हें बुलायेंगे तो न सिर्फ उषा देवी का बल्कि यह पूरे बाजगी समाज का आदर सत्कार करना होगा!
सुनिए उषा देवी का ढोल वादन:-