थोड़ा काम, थोड़ी घुमक्कड़ी, कुछ कहानी, कुछ प्रसंग व इतिहास।
(हंसादत्त लोहनी)
भारत पाकिस्तान सीमा पर स्थित उड़ी (Uri) लगभग पांच हजार फीट की ऊंचाई पर बसा चारों ओर छोटी पहाड़ियों से घिरा हुआ है। पश्चिमी दिशा में कल कल करती झेलम नदी मुज्जफराबाद की ओर बहती है, कहें तो घाटी शायद तीन किलोमीटर लंबी और एक किलोमीटर चौड़ी ही होगी। समतल भूमि पर फौज के हरे-भरे मैदान व रहने के लिए तिरछी छत के छोटे केबिन बहुत खूबसूरत दिखते हैं। पहाड़ों पर चटक रंगों से पुते स्थानीय घर और भी शोभा बढ़ाते हैं। यहां के अखरोट और बादाम बहुत प्रसिद्ध हैं। पहाड़ी झरनों की झर झर, वृक्षों के बीच से निकलती हवा की सरसराहट और पक्षियों की कू कू, चीं चिं ही यहां का शोरगुल है।
भारत की क्षेत्रीय अखंडता को बनाए रखने में इस छोटी सी घाटी का इतिहास बहुत महत्वपूर्ण है। 1947, 1965, 1971 के युद्धों में उड़ी का बहुत महत्व रहा है, मुझे एक टूटा पुल दिखाया गया जो 1971 के युद्ध में पाकिस्तानी सेना को रोकने के लिए उड़ा दिया गया था, 1965 में भारतीय सेना ने हाजी पीर पर कब्जा कर लिया था वहां से लाया माइलस्टोन गर्व से प्रदर्शित है, 2019 में सर्जिकल स्ट्राइक भी उड़ी से ही नियंत्रित की गई थी।
प्रसिद्ध कश्मीरी इतिहासकार कल्हण के ग्रंथ राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर का संबंध महाभारत काल से रहा है और यहां पर जरासंध का राज था।
यह मान्यता है कि अपने वनवास का कुछ समय पांडवों ने उड़ी में बिताया था। यहां दो मंदिर हैं जिनकी मान्यता है कि यह पांडवों द्वारा स्थापित किए गए हैं। पहला पांडव मंदिर है जिसको अब स्थानीय लोगों ने बड़ा आकार दे दिया है, ऊंची तिकोनी गोल छत है जिस पर चमकदार नारंगी-पीला रंग वृक्ष व वनस्पति की हरी पृष्ठभूमि पर और भी निखार ले आता है। पास ही पानी की धारा है जो कहते हैं कि अर्जुन के तीर से प्रस्फुटित हुई है। मंदिर में काले पत्थर से उकृत शिवलिंग व नंदी महाराज स्थापित हैं। मंदिर के पुजारी उड़ीसा से हैं और उन्हीं की मेहनत व प्रेरणा से मंदिर में भव्यता व नया रूप आया है।
दाता मंदिर अब सांस्कृतिक धरोहर के रूप में संरक्षित है। मंदिर लगभग 3500 वर्ष पुराना है और बड़े चौकोर शिलाओं से बना है जिन्हें देखकर लगता है कि किसी बहुत ही बलशाली इंसान या लिफ्ट का इस्तेमाल किया होगा। क्या पता वह बलवान व्यक्ति स्वयं भीम हों। पुरातन काल के इन मंदिरों को देखकर आश्चर्य होता है कि बिना सीमेंट सरिया के इतने विशाल पत्थर किस तरीके से चिपकाए हैं कि हजारों साल से टिके हुए हैं। कुछ वर्ष पहले आतंकी तत्वों ने मंदिर को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की थी, सांस्कृतिक धरोहर होने के नाते मंदिर की सुरक्षा फौज को दी गई थी जिसे अब BSF ने ले लिया है। पीढ़ियों से चले आ रहे पुजारी परिवार भी प्रांगण में ही रहते हैं।
झेलम नदी थोड़ा नीचे बहती है, मंदिर में द्रोपदी के स्नान हेतु कोई जलस्रोत नहीं था जिसके समाधान के लिए भीम ने एक घड़ा चिना और रोज झेलम नदी से पानी भरकर लाते थे, घड़े की आकृति का यह बर्तन अब भी मंदिर प्रांगण में मौजूद है जिसका मुंह लगभग डेढ़ मीटर गोलाई व छः फीट गहरा है। वहां तैनात जवानों ने बताया कि घड़े में हमेशा पांच फीट पानी भरा रहता है जो कभी कम नहीं होता है जो बहुत ही अचरज की बात है।
वर्तमान काल में भी यह प्राचीन निर्माण बहुत उन्नत कला, ज्ञान व रहस्यों से भरपूर बहुत अद्भुत व रोचक लगती हैं और दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर करती हुए अपने वास्तविक भारतीय इतिहास का अनुपम प्रमाण देती हैं।