तो क्या सत्रहवीं सदी में विद्याधर डोभाल ने बनवाया था विदाकोटी का मुरली मनोहर मंदिर ?
(मनोज इष्टवाल)
जिस मंदिर में स्थापित कृष्ण भगवान की मूर्ति 10 वीँ सदी की बताई जाती है उस मंदिर का निर्माण बर्ष भला सन 1706 कैसे हो सकता है? क्या सचमुच में यह वही स्थान है जहाँ देवप्रयाग में रघुनाथ मंदिर स्थापना के पश्चात लक्ष्मण जी सीता माता को वन गढ़ में छोड़ गए थे? क्या यहाँ माता सीता जब कुटिया बनाकर रहने लगी तब लक्ष्मण जी ने देवालय बनाकर श्री राम की मूर्ति स्थापित की थी? क्या श्रृंग ऋषि पत्नी राजा दशरथ व रानी कौशल्या पुत्री एवं श्रीराम जी की बहन शांता माता सीता से मिलने आई थी? क्या विदाकोटी से माता सीता की मूर्ति ले जाकर बाबुलकर पंडितों ने मुछयाली गाँव में स्थापित की? ऐसे आज भी बहुत सारे प्रश्न हैं जिनके जबाब जानने के लिए हमें जड़ खोदनी पड़ेगी।
विदाकोटी में मुरली मनोहर मंदिर
मूलत: विदाकोटी माता सीता का निवास स्थल माना जाता रहा है। तो क्या माता सीता के काल से ही यहाँ मुरली मनोहर मंदिर स्थापित था? आखिर यहाँ मुरली मनोहर यानि कृष्ण भगवान की मूर्ति होने का क्या औचित्य है? यह सब जानने के लिए हमें 21 अक्टूबर 1706 को गढ़वाल नरेश फतेपति शाह द्वारा राजदरबार के बख्शी विधाधर डोबराल ऊर्फ डोभाल को दिए ताम्र पत्र की राजाज्ञा पढ़ लेनी चाहिए।
(उपरोक्त ताम्र छाया प्रति पुरातत्ववेत्ता श्री संदीप बडोनी जी द्वारा उपलब्ध करवाया गया)
“विद्याकोटी (देवलगढ़), ताम्प्र० संवत् १७६३/१७०६ ई० । (शु०) श्री साके १६२८ संवत् १७६३ कार्तिक मासे दिन ६ गते गुरुवासरे देव-प्रियाग सुभस्थाने श्री महाराजाधिराज फतेपतिसाहीदेव ज्यू ला जो कह्यो चन्द्रपर्व मा धर्मपत्त्र लेषी दीन्यो (1) राजमुद्रा – श्री (1) महाराजा फते पति साह (1) बदरीना थो दिग्विजयी जयति सर्वदा (1) जो देवलगढ़ मंडल मा सल्डस्यू लागदो कोलासू गाऊ छ तष की जिमी पर हुक्म पूछीक विद्याधर डोबराल ले धर्मार्थ विद्याकोटी धर्मशाला राजश्री ५ देवालय बाग बणायो (।) तख का दिवा बाती भोजग वाला वैष्णव का पाणा षर्च कू भूका प्यासा अतीत अभ्यागत अथितो को बाग हवेली देवालय की मरम्मत को दुइ जोला) माटि कोलासू काट कुरालो वाला वसदा हम ले लगाई दीन्या (1) देवप्रियाग क्षेत्र त्रिवेणी का ऊपर चन्द्र पर्व मां शंकल्प कये (1) श्री विश्नु प्रीत्यर्थ सुन्दरदास वैष्णव का पास (1) सौंधा कोलासू लागदा आदमीयू न सुन्दरदास का या वेकी औलाद सिस साखा जो धर्मशाला रवन तो का कयां मां रहणो (1) कोलासू लागदी छिदविद षाणी कमौणी (1) कोलासू कौ पर देवलगढ़ तौर ताका कमीण वार महास का सो मे रु लियेक भितेरु कैरद (1) वाधका नी करनो (1) सी गांऊ सर्व कर अकैरो कैक लगाई दीन्यो (1) गढ़वाल संतान न लेवण भकोण नि कारनी (1) हमारा धर्म को प्रतिपालन करन (1) षेण षपणा मा उन उपेन्द्रसाह जी दिलीपसाह जी मधुकर-साह जी पहाड़साह जी मदनसिह भंडारी विद्याधर डोबराल तेगसिह स्यामसिह अमरसिह ज्यूण भंडारी। सुभम्”
(उत्तराखंड के अभिलेख एवं मुद्रा – डॉ शिब प्रसाद डबराल “चारण” पृष्ठ 282)
Sake 1628 (Vikram) Samvat 1763, in the month of Kaartik, 9th day of solar month, Thursday; at Devprayag auspicious place, King Fatepati Shah said according to which donation deed was written and given.
{Round seal of King Fatehpati Shah}
(Royal Seal in three circles}
(First Circle) Shree
(Second Circle) Maharaj Fate Pati Shah
{Third Circle) Badrinath, universal victor, always wins.
In Devalgarh mandal, adjoining Saldsyun is the Kolaasu village. There on the land, after taking permission, Vidyadhar Dobhal built Vidyakoti Dharmashala, temple and orchard for charity. For prayers (in temple) there food and expenses of vaishnavas, hungry and thirsty travelers, we donated land of 2 jyulas in Kolaasu. At the triveni area above Devprayag, on moonlit night, sankalp was done. For the love of Lord Vishnu, it was entrusted to Sunder Das Vaishnava. People in Kolaasu should obey Sunderdas and his disciples who live in the Dharmshala. The minor taxes and cesses of the Kolaasu village should be consumed and enjoyed by them (disciples of Sunderdas). On Kolaasu matters of give and take, Kameen of Devalgarh should not interfere and the village is declared tax free by us. Coming generations of Garhwal should not ask for money or dues from them. Our agreement should be respected. In consumption and enjoyment, they should be given free hand.Witness Brahaspati ji, Dakshin Bhatt, Ramnath, Shree Kunwar Upendra Shah ji, Dilip Shah ji, Madhukar Shah Ji, Pahad Shah Ji, Madan Singh Bhandari, Vidyadhar Dobhal, Teg Singh, Amar Singh, Syam Singh, Jyunu Bhandari. Let Good things happen.
(This copper plate transliteration is courtesy Shoor Beer Singh Panwar’s book.)
उपरोक्त ताम्र पत्र के अनुसार गढ़राजधानी श्रीनगर पहुँचने से 10 मील पूर्व रानीबाग़ चट्टी के बड़े पड़ाव से पूर्व ढाकर यात्रा मार्ग व चार धाम यात्रा का छोटा पड़ाव विद्याकोटि अर्थात विदाकोटी में 05 राजश्री धर्मशाला, देवालय व बाग़ का निर्माण 21 अक्टूबर 1706 में चंद्रग्रहण के दिन राजा फतेशाह के दरबार में बख्शी (खजाँची/ वित्त नियंत्रक) विद्याधर डोबराल (डोभाल) ने करवाया था? क्या तब यह क्षेत्र देवलगढ़ मंडल के सल्डस्यूं के कोलासू ग्राम सभा का क्षेत्र था? तो फिर विदाकोटि से माता सीता का क्या सम्बन्ध रहा? यहाँ तो द्वापर युगी कृष्ण का देवालय है फिर त्रेता युगी माता सीता से क्या सम्बन्ध हो सकता है? ताम्रपत्र के अनुसार विदाकोटी का स्थापना बर्ष 9 गते कार्तिक मंगलवार, शक संवत 1628, विक्रम संवत 1763 सन 1706 माना गया है, फिर भी इसके निर्माणकर्ता विधाधर डोभाल के स्थान पर इसे सीता माता का स्थल क्यों कहा जाता है? आखिर माँ सीता के विदाकोटि, मुछयाली, सल्ड व फलस्वाडी में स्थित मंदिरों का आपसी सम्बन्ध क्या है? ऐसा अतीत में क्या हुआ कि डोबा/डोभा गाँव के डोभाल बनेलस्यूं घीड़ी जा बसे? उन्हीं के वंशजों में वर्तमान में राष्ट्रीय सलाहकार अजीत डोभाल भी शामिल हुए। यूँ तो डोभालों से का बोरिख गाँव खंडवारी आने सहित गढवाल के अन्य गाँवों में विस्थापित होने के कई किस्से कहानियाँ हैं लेकिन विदाकोटि में आखिर ऐसा क्या हुआ होगा कि वहां डोभाल जाति का नामलेवा नहीं रहा! क्या मुच्छयाली गाँव के बाबुलकरों व डोभालों में कोई मन मुटाव हो गया था या फिर इसके पीछे कोई और कहानी है?
ऐसे कई प्रश्नों का जबाब ढूंढने के लिए मैंने पूर्व विधायक मुकेश कोहली जी, विधाकोटी के पंडित खिमा नंद भट्ट जी व कई अन्य लोगों से जानकारी जुटाने का प्रयत्न किया।
पुरातत्वविद्ध संदीप बडोनी इस बात को लेकर संशय में थे कि वनगढ़स्यूँ कोलासु गाँव की जमीन विद्याकोटि में है तो फिर यहाँ विधाधर डोभाल के वंशज क्यों नहीं बसे। उनका यह संशय इसलिए बरकरार रहा क्योंकि हम विद्याधर डोभाल किस पद पर तब राजा फतेशाह के यहाँ कार्यरत थे, पता नहीं कर पाए। इस सबके लिए कई किताबें में पांडूलिपि टटोलने के पश्चात् ज्ञात हुआ कि सारंगधर व विद्याधर दोनों ही राजा के बख्शी (वित्त अधिकारी /वित्त नियंत्रक) थे।
ताम्र पत्र पर अंकित अन्य साक्षियों के बारे में संदीप बडोनी जानकारी देते हैं कि इनमें वृहस्पति जी राज गुरूजी, राम नाथ जी देवप्रयागी पंडे (दक्षिण भारतीय भट्ट), उपेंद्र साह जी राजा फतेसाह के बड़े बेटे अर्थात कुमाउनी रानी के बेटे, उपेंद्र साह के बारे में जानकारी देते हुए संदीप बडोनी बताते हैं कि उपेंद्र साह के कारण राजवंश दिवाली नहीं मनाता था क्योंकि उपेंद्र साह 10 माह राज्य करने के बाद दिवाली के दिन स्वर्ग सिधार गए थे। उपेंद्र साह की मृत्यु 25 अक्टूबर 1717 में हुई थी।
संदीप बडोनी जानकारी देते हुए बताते हैं कि उपेंद्र साह के बाद राजा दलीप साह हुए जिनके के कारण राजवंश की शाख संतान हुई। दलीप साह फते साह के दूसरे पुत्र हुए। इनकी माँ जुमला नेपाल के राजवंश से थी। ये वही जुमला नरेश खानदान है जिन्होंने बद्रीनाथ मंदिर निर्माण में योगदान दिया व मंदिर के साथ ही धर्मशाला का निर्माण किया। दलीप साह की पत्नी दिल्ली के तुंवर वंशजों की पुत्री थी, जिनका पुत्र राजा प्रदीप साह हुआ।
मधुकर साह राजा का वजीर व राजा पृथ्वीपति साह का छोटा पुत्र हुआ। जिसके वंशजों को बाद में गोर्खाओं ने चुन-चुन कर मारा था। पहाड़ साह रवाई का रौतेला व भेलंग के रौतेलाओं का पूर्णज माना जाता है। इसके वंशज जहरीखाल के सुरमाड़ी गाँव के थोकदार भी हुए। मदन सिंह भंडारी गजे सिंह भंडारी का पोता एवं माधोसिंह भंडारी का पड़पोता हुआ। जिसने अपने दादा गजे सिंह भंडारी का धोखे से क़त्ल करने वाले सात भाई कठेतों को चुन-चुनकर मारा। तेग सिंह और श्याम सिंह दोनों फौजदार रहे। तेग सिंह रवाई का व श्याम सिंह गढ़वाल का फौजदार रहा। दोनों ही भाई थे व ये बागूड़ी नेगी रहे। अमर सिंह भंडारी गजे सिंह भंडारी के पुत्र रहे तो स्वाभाविक है ये भी राजदरबार में बड़े पद पर आसीन रहे होंगे। अमर सिंह ज्यूण भंडारी कहलाये या ज्यूण भंडारी कोई और व्यक्ति था यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है क्योंकि ज्यूण तब राजदरवार का एक पद हुआ करता था जो वर्तमान में सब रजिस्ट्रार कहा जा सकता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि कहाँ रह गया देवल गढ़, कहाँ सल्डस्यूँ, कुलासु और कहाँ विद्याकोटि? इसके जबाब में संदीप बडोनी जानकारी देते हुए बताते हैं कि गढ़राज वंश के दौरान गढ़वाल कई मंड़लों में विभक्त था। देवल गढ़ मंडल के अंतर्गत सल्डस्यूँ पट्टी नहीं बल्कि परगना हुआ। पट्टी शब्द तो ब्रिटिश काल में प्रचलन में आया। गोर्खा काल में इसे गर्का कहा जाता था। इससे स्पष्ट होता है कि वनगढ़स्यूँ पट्टी में पड़ने वाला विद्याकोटि तब सल्डस्यूँ परगना के कोलासु गाँव का हिस्सा था।
अब बड़ा प्रश्न यह हुआ कि विद्याकोटि को त्रेता युग से जोड़कर देखा जाता है! यह स्थल माता सीता से संबंधित बताया जाता है। फिर यहाँ राम या सीता के स्थान पर मुरली मनोहर मंदिर अर्थात द्वापर के श्री कृष्ण की मूर्ती क्यों? जबकि देवप्रयाग में रघुनाथ मंदिर में पुरुषोत्तम श्री राम जगत जननी सीता माता व लक्ष्मण जी की मूर्ती हैं। फिर विद्याकोटि का माता सीता से आखिर संबंध क्या है व इसे सीता सर्किट का पहला पड़ाव क्यों समझा जाता है?
ऋषिकेश से विदाकोटि (विद्याकोटी) तक पैदल मार्ग।
ढाकर यात्रा मार्ग व चार धाम यात्रा का मुख्य पड़ाव विद्याकोटि अर्थात विदाकोटी तक पैदल मार्ग से ऋषिकेश होकर पहुँचने के लिए 5 बड़ी चट्टियां व लगभग इतनी ही छोटी चट्टियां लांघनी पड़ती थी जिनमें ऋषिकेश से पहली नाईमोहन चट्टी 12 मील, नाईमोहन से दूसरी महादेवचट्टी 12। मील, महादेवचट्टी से तीसरी व्यासघाट चट्टी 10 ।।। मील, जिसके बीच छोटी चट्टी के रूप में सिमला, कांडी इत्यादि हैं। ब्यासघाट चट्टी से पूर्व व बाद पड़ने वाली चट्टियों का विस्तार देने के स्थान पर हम ब्यास घाट चट्टी से आगे चौथी मंजिल व्यासघाट से देवप्रयाग उमरासु छोटी चट्टी, उमरासु चट्टी से सौडू छोटी चट्टी और सौडू चट्टी से देवप्रयाग यानि बाह चट्टी 8 मील का सफऱ तय करते हैं। बाह चट्टी यानि देवप्रयाग से रानीबाग चट्टी 8 ।। मील है। लेकिन हमें तो बाह चट्टी से लगभग 2 से ढाई मील आगे विद्याकोटी (विदाकोटी) का सफर करना है। देवप्रयाग के वरिष्ठ पत्रकार रमन ध्यानी बाहबाजार या बाह चट्टी से विदाकोटि के पैदल मार्ग को और करीब से समझने के लिए बताते हैं कि हम बाहचट्टी से धनेसुर, दीवानीगाड़ (कोटीगाँव का एक परिवार पूर्व में यहाँ रहता था) होकर विदाकुटी (विदाकोटी/विद्याकोटी) पहुँचते हैं।
कुछ प्रबुद्धजनों का मानना है कि विदाकुटी नाम ही इसलिए पड़ा क्योंकि यहाँ पर लक्ष्मण जी ने एक कुटिया माता सीता के लिए बनवाई और यहीं से उनसे विदा लेकर वापस अयोध्या लौट आये। कुछ कहते हैं कि विदाकुटी में माता सीता ने लक्षमण मंदिर की स्थापना की तो कुछ का मानना है कि यहाँ की माता सीता की मूर्ती बाद में मुच्छयाली गाँव ले जायी गयी।
बहरहाल आप देवप्रयाग तक वर्तमान में अपने वाहन से या फिर अन्य वाहनों से सड़क मार्ग से पहुँच सकते हैं लेकिन विद्याकोटी पहुँचने के लिए आपको देवप्रयाग से पैदल ही आना होगा। और अगर आप ट्रैकिंग के शौक़ीन हैं तो आप प्रकृति का आनन्द लेते हुए विद्याकोटी से 6।। मील रानीबाग चट्टी व वहाँ से 3 मील दूर राम छोटी चट्टी, रामपुर से 5 मील बिल्ब केदार छोटी चट्टी व बिल्ब केदार से 3 मील दूर श्रीनगर तक या फिर लगभग ढाई मील दूर तक कीर्ति नगर पुल तक ट्रैक कर सकते हैं।