श्रीमाराज बल्लभा ने रखी थी ढांडरी कालिंका मन्दिर की नींव! नागरी लिपि में लिखी है मन्दिरमंडप पर इबादत…!
- माँ धारी देवी की तरह रूप बदलती हैं ढांडरी गाँव की कालिंका!
(मनोज इष्टवाल)
(मंदिर के बामांग में गुदा नागरी भाषा का अभिलेख)
यह सचमुच बेहद अद्भुत है क्योंकि साके और संवतसर में अगर मिलान किया जाय तो ओकाले एवं गैरोला व डॉ. यशवंत सिंह कटोच सहित अन्य सभी आंकड़े इस पर भिन्न-भिन्न राय प्रस्तुत करते हैं क्योंकि या तो इस अभिलेख को सही तरीके से पढ़ा नहीं गया या फिर पढने में कहीं चूक हुई है! पौड़ी गढ़वाल के पौड़ी शहर की तब नींव भी नहीं रखी गयी थी जब पट्टी नादलस्यूं के उनियालगाँव/थौली की सरहद पर बने देऊराड़ी देवी (दयुरडी) व सात ढांडरी गाँव के सुन्द्रियाल (सुनार) ढांडरी, बैरगणा, बिचला ढांडरी के ऐसे स्थान में अवस्थित कलिंका देवी की स्थापना हुई थी! मुख्यतः जहाँ माँ कालिंका मन्दिर स्थापित है वह सुनार ढांडरी से पूर्व नेगी ढांडरी कहलाती थी!
सन 1977-78 का वह दौर मुझे आज भी याद है जब मैं माँ कालिंका के प्रागंण के आस-पास अवस्थित बड़े बड़े खेतों में फुटबाल व क्रिकेट खेला करता था! तब माँ कालिंका का 7 दिनी मंडाण(जज्ञि/यज्ञ) आयोजित होता था जो आज भी निरंतर जारी है लेकिन कालान्तर की परिस्थितियों के मध्यनजर अब यह सात दिन की जगह पांच व तीन दिनी होना शुरू हो गया है! इस दौर में मुझे यह बात हमेशा चुभा करती थी कि जब कालिंका सात गाँव ढांडरी की देवी है फिर चोपड़ा गाँव के नेगी क्यों इस पूजा में विधिवत शामिल होते हैं! जिसमें पुजारी की भूमिका में बिचली ढांडरी के बडथ्वाल पंडित अपनी जिम्मेदारी निभाते आ रहे हैं! जबकि विधिवत माँ कालिंका के पुजारी रेवडी गाँव के पंडित जुगराण रहे हैं! जो आठ गाँव ढांडरी के कुलपुरोहित रहे हैं! और यह पुरोहिताई उन्हें कालान्तर में मिली है क्योंकि सन 1700 ई. में जुगराण जाति जो मूलतः कुमाऊं के पांडे थे गढ़वाल के जुगडी गाँव में बसे और जुगराण कहलाये! इन्ही के वंशज रयोड़ी (रेवडी) गाँव में बसे जो माँ कालिंका के पुजारी कहलाये! कहा जाता है कि यह सब पूजाविधि में निपुण थे व माँ हाटकाली की वंश परम्परा के पुजारियों में एक थे! माँ कालिंका की जज्ञि इसलिए भी की जाती थी ताकि समय पर बारिश हो और खेतों में अन्न उपज की कमी न हो!
इस कहानी का पटाक्षेप तब हुआ जब मैंने उत्सुकतावश अपने जीजा जी से इसकी जिज्ञासा प्रकट की! उन्होंने बताया कि दरअसल जहाँ माँ कालिंका का मन्दिर अवस्थित है वह जमीन चोपड़ा गाँव के नेगियों की थी! व उनके पूर्वज सुन्द्रियाल उस काल में चोपड़ा गाँव में बसे थे! नेगियों व सुंदरियालों ने जमीन की अदला-बदली करके जहाँ जगह बदल ली वहीँ सुन्द्रियाल जाति के लोग चोपड़ा छोड़कर ढांडरी आ बसे! मूलतः सुन्द्रियाल सन 1711 में कर्नाटक से गढ़वाल के सुन्द्रोली गाँव आ बसे व कालान्तर में इनके वंशज चौन्दकोट के क्वी-मंजगाँव में बसे जहाँ बदरीनाथ मंदिर अवस्थित है! वहीँ से सुन्द्रियाल वंशजों को पहले पौड़ी चोपड़ा बसाया गया और बाद में ये ढांडरी आ बसे!
यह मंदिर नेगियों की जमीन पर बनाया गया था ऐसा माना जाता है जिसके पुजारी गुजरात से आये बडथ्वाल जाति के लोग हुए जिनके पूर्वज सूर्यकमल व पंडित मुरारी संवत 1500 ई. में बड़ेथ गांव् में बसे! चूंकि मंदिर मंडप अभिलेख लिपि नागरी भाषा में है जो मूलतः गुजरात में जन्मी लिपि बताई जाती है! नागरी लिपि का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। कुछ अनुसन्धानों से पता चला कि नागरी लिपि का विकास प्राचीन भारत में पहली से चौथी शताब्दी में गुजरात में हुआ था। सातवीं शताब्दी में यह लिपि आमतौर पर उपयोग की जाती थी और कई शताब्दियों के पश्चात इसके स्थान पर देवनागरी और नंदिनागरी का उपयोग होने लगा। गुजरात के कुछ शिलालेखों की लिपि, जो प्रथम शताब्दी से चौथी शताब्दी के बीच के हैं, नागरी लिपि से बहुत मेल खाती है। 7वीं शताब्दी और उसके बाद नागरी का प्रयोग लगातार देखा जा सकता है। ‘नागरी’ शब्द की उत्पत्ति के विषय में मतभेद है। कुछ लोग इसका केवल ‘नगर की’ या ‘नगरों में व्यवहत’ ऐसा अर्थ करके पीछा छुड़ाते हैं। बहुत लोगों का यह मत है कि गुजरात के नागर ब्रह्मणों के कारण यह नाम पड़ा। गुजरात के नागर ब्राह्मण अपनी उत्पत्ति आदि के संबंध में स्कंदपुराण के नागर खण्ड का प्रमाण देते हैं।
गुजरात में जितने दानपत्र उत्तरीय भारत की अर्थात् नागरी लिपि में मिले हैं वे बहुधा कान्यकुब्ज, पाटलि, पुंड्रवर्धन आदि से लिए हुए ब्राह्मणों को ही प्रदत्त हैं। राष्ट्रकूट (राठौड़) राजाओं के प्रभाव से गुजरात में उतरीय भारत की लिपि विशेष रूप से प्रचलित हुई और नागर ब्राह्मणों के द्वारा व्यबह्वत होने के कारण वहाँ नागरी कहलाई। यह लिपि मध्य आर्यावर्त की थी सबसे सुगम, सुंदर और नियमबद्ध होने कारण भारत की प्रधान लिपि बन गई। ईसा की नवीं और दसवीं शताब्दी से तो नागरी अपने पूर्ण रूप में लगती है।
राष्ट्रकूट राजा “दंतदुर्ग” के एक ताम्रपत्र के आधार पर दक्षिण में “नागरी” का प्रचलन संवत् 675 (754 ई.) में था। वहाँ इसे “नंदिनागरी” कहते थे। राजवंशों के लेखों के आधार पर दक्षिण में 16वीं शती के बाद तक इसका अस्तित्व मिलता है।
अर्थात यह आशय लगाया जाना कि श्रीमाराज बल्लभा जब यात्रा भ्रमण में आये होंगे तब उनके उत्तरभारतीय कुलपुरोहित बडथ्वाल उनके साथ यहाँ आकर बसे होंगे और उन्होंने ही कालिंका मंदिर मंडप अभिलेख उत्कीर्ण किया होगा क्योंकि इस शिलालेख पर नागरी व स्थानीय भाषा के शब्द लिपि का मिश्रण है जिस से साफ़ तौर पर जाहिर है कि चारधाम यात्रा काल में ढांडरी गाँव का कोई न कोई अस्तित्व जरुर रहा होगा व तत्कालीन गढ़वाल के पंवारवंशीय राजा द्वारा चोपड़ा गाँव के नेगियों की जमीन पर कालिंका मन्दिर निर्माण हेतु भूमि उपलब्ध करवाई गयी होगी! जिसका सीधा सा अर्थ हुआ कि इसी दौरान मंदिर की देख रेख हेतु बिचली ढांडरी के बडथ्वाल पंडितों को जमीन देकर यहाँ बसाया गया होगा ताकि वह कालिंका की विधिवत पूजा कर सकें ! क्योंकि उत्तर प्रदेश के लखनऊ अभिलेखागार ने इस बात की पुष्टि की है कि कालिंका में खुदा यह अभिलेख नागरी भाषा में है जो इस बात का पुख्ता प्रमाण प्रमाण है कि यह अभिलेख गुजरात के किसी क्षेत्र के राजा बल्लभा के द्वारा यहाँ खुदवाया गया है ! बडथ्वाल जाति के पंडित क्योंकि गुजरात से ही यहाँ आये हैं व नागर खंड में चमत्कारपुर के राजा का वेदवेत्ता ब्राह्मणों को ही इस लिपि का ज्ञान था अत: यह कहा जा सकता है कि बडथ्वाल जाति के पूर्वज गुजराती नागर ब्राह्मण थे!
यह तो तय है कि संवत 1500 से लेकर संवत 1640 के मध्य गढवाल में कोई भी बल्लभा नामक राजा नहीं हुआ लेकिन इतना जरुर कहा जा सकता है कि हो न हो तत्कालीन समय में गुजरात के किसी हिस्से में कोई बल्लभा नामक राजा राज्य करते रहे होंगे!
कालिंका मन्दिर सम्बन्धी जानकारी देते हुए उत्तराखंड के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. यशवंत सिंह कटोच अपनी पुस्तक “उत्तराखंड का नवीन इतिहास” पृष्ठ संख्या 209 व “मध्य हिमालयन :३ उत्तराखंड का नवीन इतिहास” पृष्ठ 350 में ओकले तथा गैरोला, 1935 पृष्ट 10; का सन्दर्भ देते हुए लिखते हैं कि- (मानशाह 1591-1611 ई.) मानशाह का ढांडरी (नादलस्यूं) काली मंदिर-मंडप अभि. “श्रीसाके १५१४ संवत १६४९ माघ १७ गते”…!!” तीन पंक्ति में ! भाषा : गढ़वाली. बिषय : मानशाह द्वारा अपने प्रथम राज्याभिषेक बर्ष के पूर्ण होने के उपलक्ष में 31 जनवरी 1592 में काली मंदिर को भूमिदान. वहीँ वे इसी में आगे लिखते हैं कि- 1990 में मेरे द्वारा अभिलेख का निरिक्षण, तब वह चूना व पेंट से ढका हुआ था!
नेगी ढांडरी जोकि वर्तमान में सुनार ढांडरी कहलाती है के संजय सुन्द्रियाल इस मामले पर ज्यादा गंभीर दिखे व उन्होंने इस अभिलेख को लेकर देहरादून अभिलेखागार, दिल्ली अभिलेखागार व अंत में लखनऊ अभिलेखागार में पत्र-व्यवहार किया! लगभग 6 माह की भागदौड़ के बाद इस लिपि का पता करवा ही दिया! संजय सुन्द्रियाल बताते हैं कि लखनऊ अभिलेखागार से मुनिरत्नम व आलोक वर्मा जैसे महानुभावों ने इस बिषय पर गंभीरता से कार्य कर मुझे न सिर्फ जवाब भेजा बल्कि फोन पर हर सम्भव समझाने का प्रयत्न भी किया! इस सम्बन्ध में मैंने भी स्वयं वर्मा जी से बात की तब उन्होंने बताया कि यह अभिलेख निश्चित रूप से नागरी भाषा व स्थानीय भाषा (गढ़वाली) के मिश्रण में लिखा गया है जिसे इस तरह पढ़ा जा सकता है:-
(नागरी लिपि अभिलेख)
– “१.श्रीगणपतये २. श्री सा(क) १५२४ संवत १६ (४०) (सी)(तार्ति)माघ म दिनगत १३ जग- ३. त्रेश्वर श्रीमाराज वाल्भ आत्मज मयलस्य पमानं. स
४.वासन्तीकपतां तस्य पुत्रस्य वधमतीर्ध्य प्रमु. (कृ)ता!!
script & Language: Nagri Characters and Local Dialets
Gist:
Seems to records some pious act by vadhamartirdha son of mayala and vasntika, grandson of maraja valabha in Saka 1524,Sanvat 1640, magha 13 Tuesday.
जैसा कि मेरे द्वारा पूर्व में भी बताया गया है कि गुजरात में जितने दानपत्र उत्तरीय भारत की अर्थात् नागरी लिपि में मिले हैं वे बहुधा कान्यकुब्ज, पाटलि, पुंड्रवर्धन आदि से लिए हुए ब्राह्मणों को ही प्रदत्त हैं। राष्ट्रकूट (राठौड़) राजाओं के प्रभाव से गुजरात में उतरीय भारत की लिपि विशेष रूप से प्रचलित हुई और नागर ब्राह्मणों के द्वारा व्यबह्वत होने के कारण वहाँ नागरी कहलाई। इस से साफ़ जाहिर होता है कि गुजरात में राष्ट्रकुल राजाओं में कोई वलभ या वलभा राजा हुए जो पंद्रहवीं शती में चारधाम यात्रा पर आये व उन्होंने अपने कुल पुरोहित बडथ्वाल (नागर ब्राह्मणों) को बिचली ढांडरी में बसाकर 26 जनवरी 1583 ई. के आस-पास यानि माघ 13 गते कालिंका मंदिर की नींव रखी या फिर इसे बनवाकर तैयार करवाया! क्योंकि यहाँ मुझे लगता कि लखनऊ अभिलेखागार से प्राप्त जानकारियाँ ओकले तथा गैरोला व डॉ. यशवंत सिंह कटोच से ज्यादा सटीक व पुख्ता हैं अत: यह कहना कि यह पंवार वंशीय राजा मानशाह द्वारा अपने प्रथम राज्याभिषेक बर्ष के पूर्ण होने के उपलक्ष में 31 जनवरी 1592 में काली मंदिर को भूमिदान है सर्वथा गलत है बल्कि यह कहना ज्यादा उपयुक्त रहेगा कि यह मंदिर महाराजा वलभा ने पंवार वंशीय राजा बलरामशाह के राजकाज के समय बनवाया था जिन्हें कई इतिहासकारों ने रामशाह या बलभद्रशाह के नाम से भी पुकारा है! क्योंकि इस काल में गढ़वाल में परमार वंशी राजा मानशाह के पिता बलरामशाह का राजकाज था! इसलिए यह तथ्य या प्रमाण सही नहीं है कि यह मंदिर राजा मानशाह के राज्याभिषेक के दौरान बनवाया गया है क्योंकि इसके कोई भी अभिलेख या प्रमाण मौजूद नहीं हैं व यह भी सर्वथा सत्य है कि उस काल में गढ़वाल नरेश के अभिलेख नागरी भाषा में उदृत नहीं किये जाते थे!
संजय सुन्द्रियाल बताते हैं कि उन्होंने माँ के हर रूप को बेहद करीब से देखा है! माँ के प्रातः स्नान के समय वह बालिका रूप में दिखती हैं तो दोपहर यौवना व शांयकाल एक वृद्धा के रूप में ! वे कहते हैं कि उन्हें माँ के हर रूपों से इसलिए वास्ता पड़ा है कि उन्होंने सच्चे मन व श्रद्धा विश्वास से माँ की सेवा की है! यहाँ माँ सिर्फ काली रूप में विराजमान नहीं है क्योंकि जहाँ वह महिसामर्दिनी के रूप में अवस्थित है वहीँ कमल पुष्प कर व वीणा वादिनी सरस्वती भी उनमें सम्माहित है अत: माँ कालिंका की एक ही आकृति में तीन तीन देवियों का ऐसा समावेश देखना खुद को धन्य समझने जैसा है! कहते हैं वर्तमान में बाहर विराजमान पांच पांडव पहले गर्भ गृह में ही थे कालान्तर में वे बाहर स्थापित किये गए!
बहरहाल मंदिर प्रागंण के प्रथम खंड में बरामदा द्वितीय खंड में माँ शक्ति व तृतीय खंड में आदिदेव महादेव विराजमान हैं! शिबलिंग की उत्पत्ति पर अभी एक मत नहीं है क्योंकि यह स्वयम्भू लिंग है या फिर थरपा गया लिंग ..! कहा नहीं जा सकता! लेकिन शिबलिंग के ऊपर ताम्रतौली चोरी होने से भले ही उसका स्थान दूसरी तौली ने ले लिया हो लेकिन उस तौली के लिए कहा जाता है कि जब मंदिर स्थापित हुआ था तभी से वह उसमें विराजमान थी!