श्रीकोट-सिमतोली..! खाती गुसाईं व कफोला बिष्टों का वह सीमा विवाद..जिसमें 17 लोग मारे गए थे!
(मनोज इष्टवाल)
पौड़ी फाइल फोटो यह ब्रिटिश काल की पैमाइश का समय कहा जा सकता है! या फिर कुछ अनसुलझे ऐसे विवाद रहे होंगे जिनका निबटारा करने में सालों लग गए! यूँ तो बारहस्यूं परगने में तब 14 पट्टियां थी। जिन में से अगर दो पट्टियों (कफोलस्यूं और खातस्यूं) को छोड़ दिया जाय तो अन्य में कभी कोई सीमा विवाद हुआ हो, ऐसा कहीं वर्णित नहीं है। सिमतोली दोनों पट्टियों का एक मात्र ऐसा गाँव है जो आधा से अधिक खातस्यूं में व बाकी कफोलस्यूं में है। इस बंटवारे की उहापोह मेरे लिए विद्यार्थीकाल से बनी हुई थी, क्योंकि अक्सर सरोला लोग यहीं के थपलियाल कफोलस्यूं में शादी विवाह कार्यों में रसोई बनाने का काम करते थे। इस विवाद की जड़ तक तब पहुंचा, जब अचानक एक युवा इतिहासकार संदीप बडोनी के मुंह से शब्द निकले कि खाती और कफोलाओं के सरहद विवाद में 1893 में 17 लोग मरे। बस फिर क्या था मैं इसकी जड़ तक जाने के लिए पोथी-पोथडे टटोलने लगा। आँखों में तब चमक आई जब वाल्टन का “गढ़वाल हिमालय गजेटियर” ट्रेल का “स्टेटिकल स्केच ऑफ़ गढ़वाल” व जीआरसी विलियम्स का “मेमॉयर ऑफ़ गढ़वाल” के पन्ने टटोलते हुए विवाद की जड़ समझ आई। युवा इतिहासकार संदीप बडोनी इसे सिरकोट के थपलियालों की सरहद सीमांकन का विवाद बता रहे थे। यह मेरे लिए कन्फ्यूजन इसलिए पैदा कर रहा था, क्योंकि श्रीकोट के सीमांकन में कहीं से भी यह नहीं लगता कि इस गाँव पर कफोला अपना दावा प्रस्तुत कर सकें। यह धार पोर यानी ठेठ खातस्यूं में है जबकि सिमतोली बीच धार में होने के कारण भूमि विवाद या सीमा विवाद की परिधि में कहा जा सकता है। चूँकि संदीप बडोनी द्वारा फील्ड सर्वे नहीं किया गया है और मैंने कोलडी-जसपुर श्रीकोट व कदोला-मरोड़ा-सिमतोली का पैदल भ्रमण कर रखा है इसलिए मैं इस बात पर पुख्ता दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह वही सीमा विवाद है जिसे हमारे दादा, ताऊ व पिताजी कहा करते थे कि पहले यह गाँव हमारी पट्टी यानि कफोलस्यूं में था बाद में फैसले में आधा खातस्यूं को दे दिया गया। चूंकि आज भी कफोलस्यूँ कोलड़ी ही एक मात्र ऐसा गांव है जहां कई घरों में तिबारीदार मकान हैं व जिन्हें कम से कम 150 से 200 साल पुराना माना जा सकता है, ऐसे में लगता है कि कफोला और ख़ातियों का विवाद कोलडी-मरोड़ा जसपुर बनाम सिमतोली-श्रीकोट को लेकर रहा होगा।
सर हेनरी रेमजे
गोरखा राजकाज (सन 1804 से 1815) में परगना बारहस्यूं में 15 गर्खा (पट्टियां) थी व इसकी आबादी लगभग डेढ़ लाख के आस-पास मानी गयी है! 1812 में गोरखाओं द्वारा गढ़वाल की भूप्रबन्धन व्यवस्था की गयी जिसमें बारहस्यूं की 15 गर्खाओं के सयाणा (थोकदार) मुन्नी चंदोला (सम्भवतः मुन्ना चंदोला थापली गाँव), खुंतु रौत , उछलू बिष्ट , पदमु बिष्ट , उद्योत सिंग बिष्ट , दिलमणी बामण , मंगू बिष्ट , कुतेऊ बिष्ट , धन सिंह बिष्ट , क्विनु रौत , रिख्वा गुसाई, नरकु, धीर्जू, नौशेरू, सुरबलू कफोला, दिल्लू, धनसिंग, गोबिंदी, नौसेर सिंग व उबदलू सिंग असवाल थे! गोरखा काल में अगर सबसे ज्यादा जुल्मों सितम किन्हीं को सहने पड़े तो वह बारहस्यूं का ही जनमानस हुआ जिसमें वर्तमान में 14 पट्टियाँ हैं जिनका नाम क्रमशः असवालस्यूं, बनेलस्यूं, बनगढ़स्यूं, गगवाडस्यूं, इडवालस्यूं, कंडवालस्यूं, कफोलस्यूं, खातस्यूं, मनियारस्यूं, नांदलस्यूं, पैडूलस्यूं, रावतस्यूं और सितोनस्यूं हैं! बारहस्यूं की मिट्टी मटियार, चट्टान स्लेटी व स्पटिक मानी जाती रही हैं जिसके कारण यह सबसे उपजाऊं भूमि कही जा सकती है। इसके किसान राजा के काल में अपना अन्न बेचने राजधानी श्रीनगर जाया करते थे, ब्रिटिशकाल में ये पौड़ी मंडी में अपना अन्न बेचते थे व नमक गुड के लिए दुगड्डा ढाकर मंडी जाया करते थे। यहाँ की कृषि आमद देखते हुए गोरखा शासन काल में भू-राजस्व प्रणाली पर संसोधन करते हुए कृषि पर कर बढ़ा दिया! इसके अलावा भौ कर, टंड कर, मिझाड़ी कर, घी कर, सलाम्या या सलामी कर, सौण-फाल्गुण कर, भवन कर, स्युन्दी कर, करघा कर, डोम कर, नजराना व भेंट को भी इनमें जोड़कर गाँव के गाँव करों में ही लाद दिए। यही नहीं गोरखा सिपाही इसके अलावा भी प्रताड़ित करने लगे। जो कर नहीं देता उसे बौंशाल मैंटाकुंड के नीचे नयार नदी तट में अवस्थित राणीहाट में औने पौने दामों पर बेचा जाता। या फिर वहां से लाकर हरिद्वार हर की पैडी पर वे बेचे जाते। जिनमें बच्चे, जवान व औरतें ज्यादा शामिल होती थी। इस बढती प्रताड़ना के चलते इन 15 सालों में स्थिति यह आ गयी कि गाँव के गाँव वीरान हो गए। जनसंख्या न्यूनतम स्तर पर पहुँच गयी। आलिशान भवन खंडहरों में तब्दील हो गए। सिर्फ वही लोग अपनी तिबारी बचा पाए जो पुराने धन्नासेठ रहे वरना इन 11 बर्षों के जुल्मों सितम ने बारहस्यूं परगने की कमर तोड़ कर रख दी।
मिस्टर डब्ल्यू टी गार्डनर
ब्रिटिश काल में आलम यह रहा कि पहली जनगणना 1841 में परगना बारहस्यूं की जनसंख्या 22,063, 1853 में 33,497, 1885 में 34232, 1872 में 44,727 व 1881 में सदी की अंतिम गणना के अनुसार यह आंकडा बढ़कर 48,220 पहुंची। ट्रेल व विलियम का मानना है कि ब्रिटिश न्याय व्यवस्था की खबर जैसे जैसे मैदानी भागों में भागे लोगों को पता लगने लगी उन्होंने इक्के दुक्के करके वापस अपनी जमीन में लौटना शुरू कर दिया था। 1839 में गढ़वाल कुमाऊं प्रांत से लग होकर स्वतंत्र जिला बना जिसका आयुक्त वरिष्ठ सहायक आयुक्त हुआ लेकिन यह जिला कमिश्नर या आयुक्त के नियन्त्रण में थे जो कुमाऊं बैठा करते थे। आपको बता दें कि गढवाल-कुमाऊ में पटवारी व्यवस्था ट्रेल की ही देन है जो 1819 से लागू की गयी। 1856 ब्रितानी हुकूमत में थोकदारी प्रथा को समाप्त करते हुए पधानों को पुलिस सम्बन्धी व्यवस्थाएं दे दी जो अपने अपने क्षेत्र से कर वसूली कर पहले अल्मोड़ा व बाद में पौड़ी पहुंचाया करते थे। थोकदारों की भ्रष्टाचार व अक्षमता को लेकर इतनी बदनामी हुई कि 1856 में ही ब्रितानी हुकूमत को यह व्यवस्था करनी पड़ी कि ब्रिटिश गढ़वाल में वरिष्ठ आयुक्त नियुक्त किया गया। भले ही सर हैनरी रेमजे ने एक बार फिर इस व्यवस्था को उलट कर यह व्यवस्था थोकदारों को दे दी थी व भारतीय शस्त्र अधिनियम 1878 के अधीन थोकदारों को एक बन्दूक व एक तलवार रखने की छूट दे दी।
क्यों नहीं हैं बारहस्यूँ परगने के थोकदारों के पास पुरानी बंदूकें, तलवार व राजशाही से प्राप्त ताम्रपत्र।
(कोलडी गांव में स्व. मेहरबान सिंह बिष्ट व महाराज सिंह बिष्ट के सदी पूर्व के मकान)
बर्ष 1896 में पौ लिखते हैं कि विगत बर्षों में थोकदारों के रवैये को मध्यनजर रखते हुए सर रेमजे ने पुनः ठकुराई या थोकदारी अधिकार वापस ले लिए। 1890 की पैमाइश व पट्टी सीमांकन के बाद खाती गुसाईं व कफोला बिष्ट की सरहद बंटवारे में कलह इतना बढ़ गया कि सिमतोली या श्रीकोट गाँव को अपना अधिकार क्षेत्र मानने के कारण धड़े बंधी शुरू हुई। थोकदारी अहम टकराया और लाठी-डंडे, तलवारें, गोलियां चली जिसमें सैकड़ों जख्मी हुए व 17 लोगों की घटना स्थल पर ही मौत हो गयी। यह बात जब कमिश्नर के पास कुमाऊं पहुंची तो उन्होंने दोनों पक्षों के थोकदारों के साथ उनके सगे सम्बन्धी थोकदारों को भी हिरासत में लेकर जेल में डाल देने का हुक्म सुनाया। हथियार जब्त हुए साथ ही ब्रिटिश सरकार द्वारा दिए गए या राजा द्वारा दिए गए ताम्रपत्र वापस ले लिए गए । बर्षों चले केस का फैसला आखिरकार तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर धर्मानंद जोशी की अदालत द्वारा 1893 में दिए गए फैसले के साथ समाप्त हुआ। जिसमें श्रीकोट को खातस्यूं का अभिन्न हिस्सा माना गया व सिमतोली कफोलस्यूं का हिस्सा। स्वतन्त्र भारत में 1960-64 में हुए अंतिम व 12वें भूमि-बंदोबस्त में फिर खातस्यूं व कफोलस्यूं के सीमांकन को सुधारा गया व सिमतोली गाँव दो पट्टियों में विभाजित हो गया जिसका बड़ा भाग खातस्यूं के हिस्से में गया। अत: सिमतोली गाँव आधा खातस्यूं में व आधा कफोलस्यूं में राजस्व बाँट या भू प्रबन्धन के हिसाब से आगणक किया गया।
(इस तिबारी के आंगन को पंचायती आंगन कहा जाता है कोलडी गांव में)
आपको बता दें कि गोरखा काल में सन 1812 में भूमि बंदोबस्त किया गया था। ब्रिटिश काल का पहला भूमि बंदोबस्त 1815 में कुमाऊँ में गार्डनर व 1816 गढ़वाल में ट्रेल द्वारा करवाया गया। यह बड़ा आश्चर्यजनक है कि इन दोनों पट्टियों की देवी माँ ज्वाल्पा को माना गया है जो कफोला बिष्ट की सरहद में है व इसके मैती थपलियाल जाति के माने गए हैं। जो मवालस्यूं खैड, खातस्यूं सिरकोट, सिमतोली व थापली गाँव (कफोलस्यूं) में अवस्थित हैं। जन श्रुतियों में अक्सर सुनने को मिलता है कि सरहद सीमांकन झगड़े की जड़ नहीं था बल्कि ज्वालपा धाम में आयोजित होने वाला बिशाल मेले में श्रीकोट के थपलियालों की महत्वपूर्ण भागीदारी ही खाती व कफोला जाति के थोकदारों के अहम का बिषय बन गया था।
बारहस्यूँ का सबसे बड़ा मेला।
बहरहाल इस झगड़े की वजह से ज्वाल्पा देवी में जुटने वाला ब्रिटिश काल में गढ़वाल मंडल के सबसे बड़े मेले का अंत हुआ और तब से लेकर वर्तमान तक ज्वाल्पा देवी में मेला आयोजित नहीं हुआ।
बर्ष 1909 में एक सर्वे के अनुसार ज्वाल्पा देवी की अष्टबलि मेले में जुटने वाली भीड़ गढ़वाल मंडल के मेलों में हर बर्ष सबसे ज्यादा जुटने वाली भीड़ मानी गयी है.। तब सिर्फ गढ़-कुमाऊ की सीमा पर स्थित बिनसर महादेव जिसे चौथान बिनसर मेले के रूप में जाना गया है वहां 8000 से 10000 भीड़ जुटती थी जबकि इडवालस्यूं बिल्बकेदार में बिखोती मेले में भी लगभग 8000 की भीड़ जुटती थी, लेकिन ग्रामीण परिवेश में होने वाले मेलों में जेठ माह में ज्वाल्पा अष्टबली में पूरे गढ़वाल मंडल में सबसे ज्यादा भीड़ जुटती थी जिसकी संख्या 5000 थी। जिसे बारहस्यूँ का सबसे बड़ा मेला करार दिया गया। इसके बाद असवालस्यूं मुंडन महादेव (खैरालिंग/मुंडनेश्वर) में जेठ माह में मुंडन मेले के आयोजन में 3000 की भीड़ जुटती थी।