(मनोज इष्टवाल)
युवा इतिहासकार संदीप बडोनी इसे सिरकोट के थपलियालों की सरहद सीमांकन का विवाद बता रहे थे! यह मेरे लिए कन्फ्यूजन इसलिए पैदा कर रहा था क्योंकि श्रीकोट के सीमांकन में कहीं से भी यह नहीं लगता कि इस गाँव पर कफोला अपना दावा प्रस्तुत कर सकें! यह धार पोर यानी ठेठ खातस्यूं में है जबकि सिमतोली बीच धार में होने के कारण भूमि विवाद या सीमा विवाद की परिधि में कहा जा सकता है! चूँकि संदीप बडोनी द्वारा फील्ड सर्वे नहीं किया गया है और मैंने कोलडी-जसपुर श्रीकोट व कदोला-मरोड़ा-सिमतोली का पैदल भ्रमण कर रखा है इसलिए मैं इस बात पर पुख्ता दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह वहीँ सीमा विवाद है जिसे हमारे दादा, ताऊ व पिताजी कहा करते थे कि पहले यह गाँव हमारी पट्टी यानि कफोलस्यूं में था बाद में फैसले में आधा खातस्यूं को दे दिया गया!
गोरखा काल में अगर सबसे ज्यादा जुल्मों सितम किन्हीं को सहने पड़े तो वह बारहस्यूं का ही जनमानस हुआ जिसमें वर्तमान में 14 पट्टियाँ हैं जिनका नाम क्रमशः असवालस्यूं, बनेलस्यूं, बनगढ़स्यूं, गगवाडस्यूं, इडवालस्यूं, कंडवालस्यूं, कफोलस्यूं, खातस्यूं, मनियारस्यूं, नांदलस्यूं, पैडूलस्यूं, रावतस्यूं और सितोंनस्यूं हैं! क्योंकि बारहस्यूं की मिट्टी मटियार, चट्टान स्लेटी व स्पटिक मानी जाती रही हैं जिसके कारण यह सबसे उपजाऊं भूमि कही जा सकती है! इसके किसान राजा के काल में अपना अन्न बेचने राजधानी श्रीनगर जाया करते थे, ब्रिटिशकाल में ये पौड़ी मंडी में अपना अन्न बेचते थे व नमक गुड के लिए दुगड्डा ढाकर मंडी जाया करते थे! यहाँ की कृषि आमद देखते हुए गोरखा शासन काल में भू-राजस्व प्रणाली पर संसोधन करते हुए कृषि पर कर बढ़ा दिया! इसके अलावा भौकर, टंडकर, मिझाड़ी, घी कर, सलाम्या या सलामी कर, सौण-फाल्गुण, भवन कर, स्युन्दी कर, करघा कर, डोम कर, नजराना व भेंट को भी इनमें जोड़कर गाँव के गाँव करों में ही लाद दिए! यही नहीं गोरखा सिपाही इसके अलावा भी प्रताड़ित करने लगे! जो कर नहीं देता उसे बौंशाल मेटाकुंड के नीचे नयार नदी तट में अवस्थित राणीहाट में औने पौने दामों पर बेचा जाता! या फिर वहां से लाकर हरिद्वार हर की पैडी पर वे बेचे जाते, जिनमें बच्चे, जवान व औरतें ज्यादा शामिल होती थी! इस बढती प्रताड़ना के चलते इन 15 सालों में स्थिति यह आ गयी कि गाँव के गाँव वीरान हो गए! जनसंख्या न्यूनतम स्तर पर पहुँच गयी! आलिशान भवन खंडहरों में तब्दील हो गए! सिर्फ वही लोग अपनी तिबारी बचा पाए जो पुराने धन्नासेठ रहे वरना इन 11 बर्षों के जुल्मों सितम ने बारहस्यूं परगने की कमर तोड़ कर रख दी!
ब्रिटिश काल में आलम यह रहा कि पहली जनगणना 1841 में परगना बारहस्यूं की जनसंख्या 22,063, 1853 में 33,497, 1885 में 34232, 1872 में 44,727 व 1881 में सदी की अंतिम गणना के अनुसार यह आंकडा बढ़कर 48,220 पहुंची! ट्रेल व विलियम का मानना है कि ब्रिटिश न्याय व्यवस्था की खबर जैसे जैसे मैदानी भागों में भागे लोगों को पता लगने लगी उन्होंने इक्के दुक्के करके वापस अपनी जमीन में लौटना शुरू कर दिया था!
1839 में गढ़वाल कुमाऊं प्रांत से लग होकर स्वतंत्र जिला बना जिसका आयुक्त वरिष्ठ सहायक आयुक्त हुआ लेकिन यह जिला कमिश्नर या आयुक्त के नियन्त्रण में थे जो कुमाऊं बैठा करते थे! आपको बता दें कि गढवाल-कुमाऊ में पटवारी व्यवस्था ट्रेल की ही देन है जो 1819 से लागू की गयी! 1856 ब्रितानी हुकूमत में थोकदारी प्रथा को समाप्त करते हुए पधानों को पुलिस सम्बन्धी व्यवस्थाएं दे दी जो अपने अपने क्षेत्र से कर वसूली कर पहले अल्मोड़ा व बाद में पौड़ी पहुंचाया करते थे! थोकदारों की भ्रष्टाचार व अक्षमता को लेकर इतनी बदनामी हुई कि 1856 में ही ब्रितानी हुकूमत को यह व्यवस्था करनी पड़ी कि ब्रिटिश गढ़वाल में वरिष्ठ आयुक्त नियुक्त किया गया! भले ही सर हैनरी रेमजे ने एक बार फिर इस व्यवस्था को उलट कर यह व्यवस्था थोकदारों को दे दी थी व भारतीय शस्त्र अधिनियम 1878 के अधीन थोकदारों को एक बन्दूक व एक तलवार रखने की छूट दे दी!
बर्ष 1896 में पौ लिखते हैं कि विगत बर्षों में थोकदारों के रवैये को मध्यनजर रखते हुए सर रेमजे ने पुनः ठकुराई या थोकदारी अधिकार वापस ले लिए! 1890 की पैमाइश व पट्टी सीमांकन के बाद खाती गुसाई व कफोला बिष्ट की सरहद बंटवारे में कलह इतना बढ़ गया कि सिमतोली या श्रीकोट गाँव को अपना अधिकार क्षेत्र मानने के कारण धड़े बंधी शुरू हुई! थोकदारी अहम टकराया और लाठी-डंडे गोलियां चली जिसमें सैकड़ों जख्मी हुए व 17 लोगों की घटना स्थल पर ही मौत हो गयी! यह बात जब कमिश्नर के पास कुमाऊं पहुंची तो उन्होंने दोनों पक्षों के थोकदारों के साथ उनके सगे सम्बन्धी थोकदारों को भी हिरासत में लेकर जेल में डाल देने का हुक्म सुनाया! हथियार जब्त हुए साथ ही ब्रिटिश सरकार द्वारा दिए गए या राजा द्वारा दिए गए ताम्रपत्र वापस ले लिए गए! बर्षों चले केस का फैसला आखिरकार तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर धर्मानंद जोशी की अदालत द्वारा 1893 में दिए गए फैसले के साथ समाप्त हुआ! जिसमें श्रीकोट को खातस्यूं का अभिन्न हिस्सा माना गया व सिमतोली कफोलस्यूं का हिस्सा! स्वतन्त्र भारत में 1960-64 में हुए अंतिम व 12वें भूमि-बंदोबस्त में फिर खातस्यूं व कफोलस्यूं के सीमांकन को सुधारा गया व सिमतोली गाँव दो पट्टियों में विभाजित हो गया जिसका बड़ा भाग खातस्यूं के हिस्से में गया अत: सिमतोली गाँव आधा खातस्यूं में व आधा कफोलस्यूं में राजस्व बाँट या भू प्रबन्धन के हिसाब से आगणक किया गया!
आपको बता दें कि गोरखा काल में सन 1812 में भूमि बंदोबस्त किया गया था! ब्रिटिश काल का पहला भूमि बंदोबस्त 1815 में कुमाऊँ में गार्डनर व 1816 गढ़वाल में ट्रेल द्वारा करवाया गया! यह बड़ा आश्चर्यजनक है कि इन दोनों पट्टियों की देवी माँ ज्वाल्पा को माना गया है जो कफोला बिष्ट की सरहद में है व इसके मैती थपलियाल जाति के माने गए हैं, जो मवालस्यूं खैड, खातस्यूं सिरकोट, सिमतोली व थापली गाँव (कफोलस्यूं) में अवस्थित हैं! जन श्रुतियों में अक्सर सुनने को मिलता है कि सरहद सीमांकन झगड़े की जड़ नहीं था बल्कि ज्वालपा धाम में आयोजित होने वाला बिशाल मेले में श्रीकोट के थपलियालों की महत्वपूर्ण भागीदारी ही खाती व कफोला जाति के थोकदारों के अहम का बिषय बन गया था!