(संजय चौहान की कलम से)
— 2012 के मार्च के महीने की बात है अचानक एक दिन मेरे फोन पर राजेन दा का फोन आया। उधर से आवाज आयी संजय चौहान बोल रहे हैं क्या ! मैंने कहां हाँ मैं ही बोल रहा हूं, जी कहिए। मैं राजेन टोडरिया बोल रहा हूँ। सहसा विश्वास नहीं हुआ कि राजेन टोडरिया जी बोल रहे हैं। क्योंकि राजेन टोडरिया जी से मेरी मुलाकात या बातचीत उससे पहले कभी नहीं हुई थी। मैं अचरज में था कि उनके पास मेरा फोन नंबर कहां से आया। मैं बरसों से उनकी पत्रकारिता का बहुत बडा प्रशंसक रहा हूँ। उनकी लेखनी ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। पहाड़ पर केंद्रित उनके लेखों को अक्सर पढ़ता रहता था। इसलिए उन्हें जानता था। उन दिनों चमोली जनपद के पीपलकोटी के बंड पट्टी में शराब के खिलाफ प्रसिद्ध कंडाली आंदोलन जोर शोर पर चल रहा था। जो बाद में पूरे प्रदेश में फैल गया था। देहरादून से लेकर दिल्ली तक उसकी गूँज सुनाई दी थी।
कंडाली आंदोलन पर लिखे मेरे लेखों की सराहना करते हुये उन्होंने कहा संजय बहुत अच्छा लिखते हो, तुम्हारे लेखों को पढता रहता हूं यों ही जनसरोकारों के मुद्दों पर लगातार लेखनी चलाओ। जल, जंगल, जमीन पर पहला हक स्थानीय लोगों का होना चाहिए इस बात को कभी मत भूलना। राज्य बनने के 12 बरस बाद भी आज पहाड़ मूलभूत सुविधाओं के आभावों में पलायन का दंश झेल रहा है। पहाड़ के गाँव कैसे विकास से जुड़े, स्थानीय लोगों को कैसे रोजगार मिले इसको लेकर हमें कुछ करना होगा। नहीं तो एक दिन पूरा पहाड़ खाली हो जाएगा। संजय तुम्हारा नंबर बड़ी मुश्किल से मिल पाया। काफी दिनों से ढूँढने की कोशिश कर रहा था। देहरादून आना होगा तो मिलना फिर लम्बी बात होगी। मुझे शराब के खिलाफ कंडाली आंदोलन और चमोली में निर्माणाधीन जलविधुत परियोजनाओं में स्थानीय लोगों को रोजगार से सम्बधित विषय पर दो लेख कल तक भेज दो। जिसके बाद मैंने दोनों लेख उन्हें भेजे। लगभग एक घंटे तक उन्होने उस दिन बात की थी। फिर अप्रैल में देहरादून जाना हुआ तो तब पहली बार राजेन दा से आमने सामने बात हुई। मिलकर ऐसा लगा कि पता नहीं कितने सालों से हम एक दूसरे को जानते हों। कहते थे संजय हमने जिस उद्देश्य के लिए राज्य की परिकल्पना की थी आज वो कोसों दूर है। हमें मिलकर कुछ करना होगा। उसके बाद उनसे हर हफ्ते बात होती रहती थी। बहुत कुछ मिला उनसे सीखने को। लेकिन ठीक एक साल बाद आज ही के दिन असमय ही उनके जाने की खबर से बहुत दु:ख हुआ था। मुझे तो विश्ववास ही नहीं हुआ की राजेन दा अब हमारे बीच नहीं रहे। उनके असमय जाने से सबसे ज्यादा नुकसान पहाड़ और हम जैसे युवाओं को हुआ जो उनसे बहुत कुछ सीखते थे। वे स्वयं पत्रकारिता के संस्थान थे, न जाने कितने पत्रकारों नें उनसे पत्रकारिता की बारीकियों को सीखा होगा।
वास्तव में पहाड और यहां के जनमानस के सच्चे हितैषी थे राजेन दा ! राजेन दा आपकी वो फोन काॅल तामउम्र याद रहेगी !
श्रद्धाजंलि, शत शत नमन!