शहीद बाबा मोहन उत्तराखंडी का मेला आयोजित..! पौड़ी से लापता होते शहीद मोहन सिंह नेगी “उत्तराखंड़ी”।
(मनोज इष्टवाल)
भाग्य की बिडम्बना देखिये वीरांगना तीलू रौतेली के मंगेतर भवानी सिंह नेगी के वंशज उत्तराखंड आंदोलन के पहले व उत्तराखंड राज्य निर्माण के बाद अंतिम 13वीं भूख हड़ताल टुपरी उड़्यार में करने वाले शहीद बाबा मोहन सिंह उत्तराखण्डी की आज पौड़ी गढ़वाल में सुध लेने वाला कोई नहीं है। लेकिन कर्णप्रयाग के विधायक अनिल नौटियाल ने उनकी शहादत का सम्मान करते हुए आगामी 08 अगस्त को उनके अनशन स्थल “बेनिताल” में उनके नाम का शहीद मेला आयोजित किया है।
ज्ञात हो कि बाबा मोहन सिंह उत्तराखंडी ने 02 जुलाई 2004 से 08 अगस्त 2004 तक कर्णप्रयाग, गैरसैण व नारायण बगड़ विकास खण्ड की संयुक्त सीमा पर अवस्थित बेनिताल के टुपरी उड़्यार में गैरसैंण राजधानी सहित कई जनहित मांगों पर सत्याग्रह छेड अन्न जल त्याग 38 दिन तक लगातार भूख हड़ताल की। आखिर उन्हें वहां से रेक्यु कर 09 अगस्त को कर्णप्रयाग स्थित सामुदायिक केंद्र में भर्ती किया गया जहां रात्रि प्रहर में उन्होने प्राण त्याग दिए और उत्तराखंड राज्य हित में शहीद हो गए।
शहीद स्मृति बेनिताल समिति द्वारा उनकी पुण्यतिथि पर शहीद मेले का आयोजन किया गया है जिसमें क्षेत्रीय विधायक अनिल नौटियाल शिरकत करेंगे। उन्होंने समस्त जनता से अनुरोध किया है कि राज्य प्राप्ति व राज्य हित में प्राण त्यागने वाले ऐसे मनुषी बाबा मोहन सिंह उत्तराखंडी में शहादत दिवस पर बेनिताल मेले में ज्यादा से ज्यादा संख्या में पहुंचकर ऐसे राज्य आंदोलनकारी का सम्मान बढ़ायें जिन्होंने गैरसैण राजधानी की अन्तिम माँग को लेकर भूख हड़ताल की और बेनिताल को देवतुल्य बना दिया।
(बाबा मोहन सिंह उत्तराखंडी का गांव बंठोली)
ज्ञात हो कि निर्माण के लिए बाबा मोहन उत्तराखंडी ने वर्ष 1997 से आमरण अनशन से संघर्ष शुरू किया। 13 बार उन्होंने आमरण अनशन कर उन्होंने पहाड़ को एक करने में भी अहम भूमिका निभाई। वहीं शासन/प्रशासन (केंद्र व यूपी सरकारों) को उत्तराखंड निर्माण के बार-बार सोचने पर मजबूर किया। सरकारी नौकरी के साथ घर, परिवार को छोड़कर उन्होंने पहाड़ में आंदोलन की एक नई रूपरेखा रची। नवंबर 2000 को उत्तराखंड देश के नक्शे में नए राज्य के रूप में अस्तित्व में आया, लेकिन गैरसैंण राजधानी का सपना साकार होना अब भी शेष था। उन्होंने अपना आखिरी आमरण अनशन बेनीताल में 2 जुलाई 2004 को शुरू किया। 37वें दिन 8 अगस्त को उन्हें कर्णप्रयाग तहसील प्रशासन द्वारा जबरन उठाकर सीएचसी में भर्ती किया गया, जहां उन्होंने रात्रि को दम तोड़ दिया था।
बाबा मोहन सिंह उत्तराखंडी का जन्म पौड़ी जिले के एकेश्वर ब्लाक के बंठोली गांव में वर्ष 1948 में हुआ। पिता मनवर सिंह सिपाही नेगी के तीन बेटों में मझले मोहन इंटरमीडिएट एवं आईटीआई की पढ़ाई के बाद वर्ष 1970 में बंगाल इंजीनियरिंग में भर्ती हुए, लेकिन उनका सेना में मन नहीं लगा। वर्ष 1994 में नौकरी छोड़ वे राज्य आंदोलन में कूद गए। 2 अक्टूबर 1994 को रामपुर तिराहे में हुई घटना से उन्होंने आजीवन बाल, दाड़ी न काटने की शपथ ली। और राज्य आंदोलन की बागडोर पकड़ ली। 11 जुलाई 1997 को राज्य व राजधानी गैरसैंण के लिए शुरू अनशन का सफर 8 अगस्त 2004 की रात्रि को मौत के साथ ही थमा।
(चौन्दकोट गढ़ी जहां बाबा मोहन सिंह उत्तराखंडी ने आमरण अनशन किया था)
बाबा मोहन उत्तराखंडी के आंदोलन।
11 जनवरी 1997 को लैंसीडाउन के देवीधार में राज्य निर्माण के लिए अनशन।
16 अगस्त 1997 से 12 दिन तक सतपुली के समीप माता सती मंदिर में अनशन।
1 अगस्त 1998 से 10 दिन तक गुमखाल पौड़ी में अनशन।
9 फरवरी से 5 मार्च 2001 तक नंदाठौंक गैरसैंण में अनशन।
2 जुलाई से 4 अगस्त 2001 तक नंदाठौंक गैरसैंण में राजधानी के लिए अनशन।
31 अगस्त 2001 को पौड़ी बचाओ आंदोलन के लिए अनशन।
13 दिसंबर 2002 से फरवरी 2003 तक चॉदकोट गढ़ी पौड़ी में गैरसैंण राजधानी के लिए अनशन।
2 अगस्त से 23 अगस्त 2003 तक कौनपुर गढ़ी थराली में अनशन।
2 फरवरी से 21 फरवरी 2004 तक कोदियाबगड़ गैरसैंण में अनशन।
2 जुलाई से 8 अगस्त 2004 तक बेनीताल में अनशन।
आखिकार 9 अगस्त 2004 को रास्ते में ही मौत।
उनके आंदोलन स्थल ज्यादात्तर वह गढ़ व स्थान रहे जहाँ जल्दी से कोई नहीं पहुंच पाता था। उनके जनांदोलनों से उनका घर परिवार पूरी तरह बिखर गया। उस दौर में पुलिस दबिश बंठोली स्थित उनके घर पर अल सुबह या देर रात दिया करती थी। माँ पत्नी बच्चे इस आंदोलन की चपेट में जो त्रास झेलते थे उसका बर्णन किया जाना सरल नहीं है लेकिन खानदानी व पतिव्रता पत्नी ने उनके हर सितम को हंसकर सहा व जीया। एक बार मैं स्वयं भी बाबा मोहन सिंह नेगी से मिलने उनके गांव बंठोली जा पहुंचा तो किसी सज्जन ने मुझे टोकते हुए कहा था- कहाँ जा रहे हो उस पागल के घर…! राज्य आंदोलन …राज्य आंदोलन चिल्ला-चिल्लाकर घरवालों का तो छोड़ो हमारा भी जीना हराम कर दिया उसने। अब तो उसके रिश्तेदार तक उस के घर इस डर से नहीं आते कि पुलिस उन्हें ही पकड़कर पूछताछ के न बुला ले। बहरहाल मैं जब उनके घर पहुंचा तब दोपहर का भोजन का वक्त था। घर में चैंसा भात बना था लेकिन ब्राह्मण होने के कारण मेरे लिए रोटियां बनी व आलू प्याज की सब्जी। दही का कटोरा व अन्य..! मन कर रहा था कि बाबा को बोल दूँ कि मुझे भी भात दे दीजिए लेकिन जाति के सिपाही नेगी..अर्थात ऊंची जाति का राजपूत भला जूठी रसोई एक ब्राह्मण को कैसे परोसता। उसी से मुझे ज्ञान हो गया था कि बाबा मोहन सिंह उत्तराखंडी संस्कारवान भी हैं व बुद्धिकौशल में भी प्रवीण। बंठोली वह गांव है जहां पहली बार मैंने गेंडे की खाल व मालू के पत्तों की बनी ढाल देखी।
बहरहाल बाबा मोहन सिंह उत्तराखंडी से जुड़े संस्करणों की पैविस्त लंबी है लेकिन मेले आयोजनों में चौंदकोट क्षेत्र शायद फिसड्डी ही रहा। एकेश्वर व जणदा जैसे बड़े ऐतिहासिक मेले भी यहां अंतिम सांस गिन रहे हैं। जिस वीरांगना तीलू रौतेली ने कत्यूरी काल में 07 लड़ाइयां लड़ अपने पिता भाई व मंगेतर के खून का बदला ही नहीं लिया बल्कि गढ़ राज्य का विस्तार कुमाऊं की सीमा तक किया। यहीं गुराड़ गांव में जन्मी इस वीरांगना की याद में आजतक कभी इस क्षेत्र में मेला आयोजित नहीं हुआ जबकि कांडा (बीरोंखाल) में उसका भव्य मेला लगता है। वही सब बाबा मोहन सिंह उत्तराखंडी के साथ भी दिखने को मिल रहा है,क्योंकि वह भी इसी चौंदकोट क्षेत्र के बंठोली में जन्मे। शायद ही गांव में उनकी शहादत पर कुछ लोग इकट्ठा होते हों मेला लगना तो बहुत दूर की बात है। क्या यहां के जननेता या जिला प्रशासन कभी बाबा मोहन सिंह उत्तराखंडी की इस शहादत पर ऐसा कुछ पौड़ी जनपद में करेगा जैसा रुद्रप्रयाग का जन मानस कर रहा है?