सात फेरों के सातों वचन…! एक वचन वह कौन सा है जिसे दुल्हा मांगता है?
(मनोज इष्टवाल 15/10/2015)
कल भतीजे की शादी में शिरकत की। रात भर दूल्हे के साथ बैठना पड़ा और पहली बार विवाह संस्कार के सभी श्लोकों को ध्यान पूर्वक न सिर्फ सुना बल्कि उन्स्की पंडितजी से व्याख्या भी करवाई। भले ही पंडित जी उसकी व्याख्या का पूरा स्वरुप प्रस्तुत नहीं कर पाए लेकिन उन्की वैवाहिक कर्मकांड की पुस्तक से मैंने उसी समय श्लोक उतारे और उन्हें लिख लिया। मेरा दायित्व बनता है कि हिन्दू समाज में सात फेरों के सात जो वचन हैं वह हिन्दू धर्म संस्कृति के वैवाहिक कर्मकांड में किस तरह वर्णित होते हैं उन्का उल्लेख आपके सामने रखूं साथ ही बताऊँ कि अंत में वर वधु से मात्र जो एक वचन मांगता है वह वचन है क्या..?
हिंदू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म – जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारा को साक्षी मान कर दो तन , मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं । विवाह = वि + वाह , अत : इसका शाब्दिक अर्थ है – उत्तरदायित्व का वहन करना। पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संम्बंध से अधिक आत्मिक संम्बंध होता है और इस संम्बंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।
सात फेरों के सात वचन
विवाह के बाद कन्या वर के वाम अंग में बैठने से पूर्व उससे सात वचन लेती है। कन्या द्वारा वर से लिए जाने वाले सात वचन इस प्रकार है।
प्रथम वचन
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या :
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी !
( यहाँ कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना कोई व्रत – . उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ ।)
द्वितीय वचन
पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या :
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !
( कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता – पिता का सम्मान करते हैं , उसी प्रकार मेरे माता – पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ . )
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तृतीय वचन
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात ,
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !
( तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं ( युवावस्था , प्रौढावस्था , वृद्धावस्था ) में मेरा पालन करते रहेंगे , तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ। )
चतुर्थ वचन
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या :
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !
( कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर – परिवार की चिन्ता से पूर्णत : मुक्त थे अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ। )
पंचम वचन
स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा ,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच : पंचमत्र कन्या !
( इस वचन में कन्या जो कहती है वो आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में , विवाहादि , लेन – . देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ। )
म्मान तो बढता ही है , साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।
षष्ठम वचनः
न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत ,
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम !
( कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे . यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ । )
सप्तम वचनः
परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या ,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच : सप्तममत्र कन्या !
( अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति – . पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ। )
वधु द्वारा लिए गए इन वचनों को वर बहुत ध्यान पूर्वक सुनकर फिर दुल्हन से सिर्फ एक वचन मांगता है कि-
मदीय चित्तानुगच्च चितं सदाममाज्ञा परिपालनच्यं.
पतिवर्ता धर्मपरायणा त्वं, श्रुर्या सदा सर्व मिमंप्रयतनत: !!१!!
मेरी सोच मेरे चित्त के अनुसार उसकी आज्ञा का पालन करते हुए पतिवर्ता धर्म धर्मपरायणता से निभाते हुए हमेशा मेरे अनुसार तुम्हे अपने आप को ढालना होगा.