इस्टाग्राम में “फादर्स डे” पर गीत देख, अपने शूरवीर पिता याद आ गये। और लौट आई बचपन की यादें।
(मनोज इष्टवाल)
धन्यवाद अंग्रेजों! धन्यवाद शायद इसलिए भी क्योंकि हम अपनी ब्यस्तता में आप ही की तरह भूल गये हैं कि मेरी माँ की लोरियां क्या रही होंगी। बाबा (पिता जी ) के कंधे पर झूलकर हम किस उम्र तक पूरा गाँव घूमा करते थे। सच कहें तो इस भौतिकवादी युग ने उन्हें पितृ पक्ष के अलावा याद करना भी भुला दिया है। धन्यवाद अंग्रेजों का इसलिए कि कम से कम उन्होंने “फादर्स डे” के रूप में एक दिन तो मुकरर्र किया जब हमें भी उन्हें याद करने का मौका मिला।
इंस्टाग्राम में बिटिया ने मेरी फोटो के साथ एक गीत डाला जिसके बड़े खूबसूरत बोल कुछ इस तरह थे – “ऊँगली पकड़ के तूने चलना सिखाया था ना, दहलीज ऊँची है ये पार करा दे। बाबा मैं तेरी मलिका टुकड़ा हूँ तेरे दिल का, एक बार फिर से दहलीज पार करा दे…। ” शब्द यूँ तो दिल को छूने वाले हैं इसलिए स्वाभाविक है बेटी का प्यार प्रफुल्लित कर गया लेकिन फिर झेंप भी गया कि मैंने कब बेटी को अंगुली पकड़ के चलना सिखाया होगा? याद नहीं…। हाँ एक घटना याद जरूर आई कि एक बार पढ़ाते वक्त गुस्से में अपनी नन्ही सी बिटिया को छज्जे से आँगन में बंधे भैंस के कीले की तरफ उल्टा लटकाते हुए कहा था कि बोल फैंक दूँ… रोना बंद कर। आज भी मुझे याद है.. मेरी माँ की आँखों में आँसू निकल आये थे – बोली थी.. ऐसा गुस्सा अगर हमने तेरे साथ दिखाया होता तो आज….। उस रात माँ ने खाना नहीं खाया था।
मुझे तो यह बात भूल पड़ गई लेकिन बेटी की माँ ने जरूर उसे याद रखवा दी कि तेरे बाप ने जिन्हें तू पप्पा कहकर पुकारती है तेरे साथ ऐसा किया। यकीनन वक्त इस भागम -भाग की जिंदगी से फिर उस दौर में ले गया जहाँ अभाव तो थे लेकिन चैन व शुकुन के बक्से संदूक भरे मिलते थे।
अब एक बेटी ने अपने पप्पा को याद किया तो भला एक बाप अपने बाबा को क्यों न याद करे। मेरे बाबा इस समय जीवित होते तो उनकी उम्र 102 साल होती लेकिन आँखें व दिलो दिमाग जब कालांतर की परछाई का पीछा करता उस काल में चला गया तो लगा बुझे हुए दीये फिर टिमटिमा और घुघु (पीठ में झूलते हुए) में झूलता हुआ मैं मानो बेताल बन अपने विक्रमादित्य बने बाबा से वह अबोध प्रश्न वही बचपन की जिद कर रहा होऊंगा जो तब करता था। बाबा अक्सर मुझे भड़ वार्ताएं सुनाया करते थे। सुख सागर यूँ तो मैं भी माँ के पेट में ही सुन चुका था क्योंकि तीन साल की उम्र में मुझे सुख सागर के कई अध्याय कंठस्थ थे। घुग्घु में लादे मेरे पिता मुझे खुश करने के लिए अक्सर कहा करते थे – लूण ले ले हग्गा हग्गा। यकीनन इस से खूबसूरत यादें और क्या होंगी पुन: अपने बचपन को जीने की। आज फादर्स डे है…। अंग्रेजों का फादर्स डे! लेकिन सच कहूं बाबा…. आज आप बहुत याद आ रहे हैं क्योंकि आज बचपन के वह सभी दृश्य तरोताजा हो रहे हैं जैसे जब आप पेंशन लेने पौड़ी जाया करते थे और मेरी टकटकी जाखाली के पैदल रास्ते पर लगी रहती थी। माँ आपकी चाल लगभग डेढ़ किमी दूर जाखाली से ही पहचान जाती थी और कहती वो देख तेरे पिता जी आ गये। मैं दौड़कर महादेव या स्कूल तक पहुँच जाता। आप जेब से टॉफी निकालते और मैं खुश होकर आप पर चिपक जाता। आप के बैग में मिलिट्री कैटीन की तीन रम की बोतलें होती व दैनिक दिनचर्या का झोला भर सामान लेकिन फिर भी मुझे गोदी उठा लेते और थोड़ी देर बाद उतार देते। न जाने ऐसी कई यादें और भी हैं… जो अगर शुरू करूँ तो ख़त्म होने का नाम नहीं लेती।
मैं इतना नसीबवाला नहीं कि मैं अपनी बेटी व बेटे को इतना खूबसूरत बचपन दे पाता क्योंकि उनका बचपन कब बीता, मुझे पता नहीं क्योंकि जब अच्छा बाप बनने की नौबत्त आई तब मैं उनसे बहुत दूर था।
मेरे बाबा…..।
जन्म दिसम्बर 1921 स्वर्गलोक 13 जुलाई 1997। बंगाल इंजीनियरिंग में भर्ती 1937। सेकेंड वर्ल्ड वार में शामिल 1939 से 1945।
युद्ध बर्मा, फ्रांस, इटली व जापान के युद्ध अभियानों में शामिल हुए। चीन युद्ध 1962से पूर्व सेवानिवृत्त। नाम चक्रधर प्रसाद इष्टवाल।
मैडल सेकेंड वर्ल्ड वार में अद्भुत युद्ध कौशल का परिचय बॉम्बर टीम के रूप में लगातार 180 दिन युद्ध मैदान में रहने व बिषम परिस्थितियों में युद्ध पराक्रम दिखाने मेरे पिता स्व. चक्रधर प्रसाद इष्टवाल ने ब्रिटिश एम्पायर इंग्लैंड के राजा जॉर्ज षष्ठम के हाथों 4 युद्ध चक्र अर्जित किये व एक सेवानिवृत्ति के दौरान 1962 में चीन युद्ध के दौरान स्वतन्त्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के द्वारा सम्मान युद्ध कौशल सम्मान के रूप में अशोक। स्व. चक्रधर प्रयाद इष्टवाल व मेजर बड़थ्वाल ही गढ़वाल मंडल क्षेत्र से बंगाल इंजीनियरिंग के दो ऐसे हॉकी खिलाड़ी रहे जिन्होंने अंतरार्ष्ट्रीय हॉकी में मेजर ध्यान चन्द की टीम में स्वतन्त्र भारत का प्रतिनिधित्व किया।
सन 1948 में बर्लिन में आयोजित ग्रीष्मकालीन ओलंपिक में वे टीम का हिस्सा रहे। वे मूलतः सेंटर हाफ के रूप में खेला करते थे। उनकी वीरगाथा पर ब्रिटिश सरकार ने सेकेंड वर्ल्ड वार में कोटद्वार भावर में 100 बीघा जमीन देने की पेशकश की जो उन्होंने ठुकरा दी थी, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि भावर में मलेरिया के मच्छर होते थे जो जानलेवा थे।
अपनी जन्मभूमि ग्राम धारकोट, कफोलस्यूँ पौड़ी गढ़वाल में रहना ही उचित समझा। स्व. चक्रधर प्रसाद इष्टवाल के साथ थापली गांव के स्व. नरेंद्र प्रसाद सुंदरियाल भी द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल हुए थे जिन्हें घायल साथियों को ट्रक के माध्यम से सुरक्षित स्थान पर ले जाने व दुश्मनों से बचने के लिए पुल तोड़ने की कौशलता के लिए “वीर चक्र” से सम्मानित किया गया।
स्व. चक्रधर प्रसाद इष्टवाल द्वितीय विश्व युद्ध के अपने संस्मरण सुनाते हुए बताते हैं कि 6 अगस्त 1945 को सुबह के करीब आठ बजे हिरोशिमा पर परमाणु बम का जोरदार हमला हुआ। नागासाकी पर गिराया गया बम हिरोशिमा से भी ज्यादा शक्तिशाली था। नागासाकी में 9 अगस्त की सुबह करीब 11 बजे परमाणु बम गिराया गया। तब उन्हें रेडियो वायरलेस से इस हमले की जानकारी दी गयी थी। हमें 3 अगस्त को इसी क्षेत्र से रेस्क्यू किया गया था, जहां हम लगभग एक हफ्ते से भूख से व्याकुल थे। आखिर जब चावल पहुंचे तो उन्हें पकाने के लिए वर्तन नहीं थे। तब हमने अपनी खुंखरियों से नागासाकी के जंगलों में बांस काटे व उन्ही के में चावल व पानी भरकर चावल पकाए व खाये। उन्होने बताया कि इस परमाणु हमलेमें 40 हजार से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी। इस तबाही का ऐसा मंजर सामने आया कि इसके ठीक एक माह बाद सेकेंड वर्ल्ड वार की समाप्ति की घोषणा हुई।
ज्ञात हो कि अटलांटिक की लड़ाई और यूरोप में युद्ध की अवधि,उत्तरी अफ्रीकी अभियान की अवधि प्रशांत युद्ध की अवधि, 11 दिसंबर 1941 से 2 सितंबर 1945 तक, बर्मा अभियान की अवधि। 11 जून 1943 से 8 मई 1945 तक, इतालवी अभियान की अवधि, 6 जून 1944 से 8 मई 1945 तक, उत्तर-पश्चिम यूरोप अभियान की अवधि व तदोपरान्त जापान नागासाकी अभियान में लगातार 06 साल तक वे बॉम्बर दस्ते में शामिल रहे। उनकी बंगाल इंजीनियरिंग नदियों पर पुल निर्माण की एक्पर्ट थी। इन 06 सालों में भारतीय सैनिकों के बारे में उनके घर वालों को यदाकदा तार या डाक से उनकी कुशल क्षेम प्राप्त होती थी।
जब पिताजी स्व. चक्रधर प्रसाद इष्टवाल भर्ती हुए वे मात्र 16 साल के थे। व अभी उनकी बंगाल इंजीनियरिंग रुड़की के सेंटर में ट्रेनिंग ही चल रही थी कि सेकेंड वर्ल्ड वार शुरू हो गया था। वे बताते थे कि उन्होंने सन 1960 में सेवानिवृत्ति के लिए आवदेन दे दिया था जो ऐन चीन भारत युद्ध से पूर्व ही स्वीकार हो गया था । सेकेंड वर्ल्ड वार के दौरान उनके पैर में गोलियां लगी थी व वे गम्भीर रूप से घायल भी हुए लेकिन बम बरसाते हुए उन्होंने कितने दुश्मन सैनिकों को मारा होगा तब गिनती करना मुश्किल था। उन्हें इस बात का दुःख रहा कि उनके ब्रिटिश अफसर अक्सर सारा वार क्रेडिट खुद अपने आप ले लेते थे।
मेरे दादा जी ब्रिटिश काल में दरोगा।
दादाजी स्व. शंकरमणि इष्टवाल राजपुर थाने में दरोगा थे। अंग्रेज अफसर ने बेकसूर नानसू गांव के एक पुलिस जवान पर घोड़े में बैठे-बैठे कोड़ा मारा। व भारतीय होने की गाली दी। यह अफसर मसूरी जा रहा था। दादा जी ने आव देखा न ताव नशे में धुत्त अफसर को घोड़े से नीचे पटका, व बाद में घोड़े सहित उसे घुड़शाल में बंद कर दिया। वहीं अंग्रेज अफसर की मौत हो गयी। दादा जी को काला पानी की सजा सुनाई गई। दादा जी का केस तब बैरिस्टर मुकुन्दी लाल ने लड़ा। हमारे दूसरे दादा जी बलदेव प्रसाद जो मेरठ में पुलिस विभाग में ही मुंशी थे, ने इस केस पर हमारी देहरादून आराघर के पास की कपड़ों की दुकान, व कोतवाली के पास का मकान, थपलखेतु सहित अपनी कई जमीनें बेची। फिर भी वे दादा जी को कालापानी की सजा होने से नहीं बचा पाए। यह केस सालों साल चला।
हमारे गांव के सुबाग़ी कोली बताया करते थे कि जब हमारे बूढ़े दादा जी स्वर्ग सिधारे तब हम क्षेत्र के गिने चुने सम्पन्न परिवारों में शामिल थे। उनकी बरसी में तब देहरादून से बासमती चावल व राशन लाया गया था। इस समय लगभग हजार के आस पास खडीने सामान लेकर आई होगी क्योंकि डेढ़ मील दूर तक सब सफेद खडीने (भेड़ें) व उन पर लदा सामान ही दिखाई दे रहा था।
फिर वह दौर भी आया जब यह परिवार एकाएक दादा जी को कालापानी की सजा सुनाए जाने के बाद दीन हीन हो गया व पिता जी चक्रधर प्रसाद, ताऊ जी आदित्यराम व चाचा जी बिशम्बर दत्त का स्कूल छूटा। इसी गम में छोटे दादाजी बलदेव प्रसाद की हर्ट अटैक से मौत हो गयी। ताऊ जी ने हल सम्भाला और पिताजी 16 साल की उम्र में पाली गांव के अपने अभिन्न मित्र के साथ भागकर फौज में भर्ती हो गये थे। इधर छोटे दादा जी की मृत्यु हुई उधर देश आजाद हुआ और दादाजी काला पानी जाते जाते बच गए। उनकी सजा माफ हो गई।
मुझे नाज है, गर्व है और घमंड है कि मैं ऐसे पिता का पुत्र हूँ, जिनकी गौरव गाथा साथ समुद्र पार भी लिखी गयी।