5.रूपकुंड का छोरा ‘परू’……!
(केेेेशव भट्ट की कलम से)
कुछेक पल के बाद सभी आगे बढ़ चले. वेदनी गंगा पर लोहे का पुराना मजबूत पुल बना है. प्रदीप ने बताया कि अंग्रेजों के जमाने में बने इस पुल की उम्र सौ वर्ष के आसपास है. अपने समय में अंग्रेजों ने पहाड़ों को खूब नापा. प्राकृतिक खजानों के अलावा उन्होंने कई रास्ते खोजे या बनाए और अब तक अनजान चीजों की विस्तृत पड़ताल भी की. बैरन और सर विलियम ट्रेल जैसे अंग्रेजों ने हिमालयी क्षेत्रों की वर्षों तक खाक छानी. इस मार्ग में वेदनी और औली बुग्याल की खोज भी अंग्रेजों की ही देन बताई जाती है. जाड़ों में वेदनी बुग्याल जब बर्फ से लदकद हो जाता था तो अंग्रेज इसकी ढलानों में स्कीइंग किया करते थे. वेदनी से आगे क्या है, यह जानने की उत्सुकता में वे अपने लाव-लश्कर के साथ रूपकुंड तक पहुंच गए. रूपकुंड झील में सैकड़ों नरकंकालों को देखकर वे भी विस्मित हुए, लेकिन इसके रहस्य पर कयास ही लगाते रह गए.
पुल पार तीखी चढ़ाई से होकर गुजरना था. रास्ते भर खच्चरों का आना-जाना लगा रहा. खच्चरों को उनके मालिक घोड़ा कहना ज्यादा पसंद करते हैं. मानो घोड़े की उपाधि मिलने से खच्चर खुश होकर ज्यादा बोझ उठाने को राजी हो जाता हो! यानी मालिक भी खुश और खच्चर रूपी घोड़ा भी खुश. इनका कारवां नीचे नदी से दीदिना गांव में नए बन रहे मकानों के लिए रेता ढोने में लगा था. दीदिना से नीचे नदी तक आने-जाने का करीब पांच किलोमीटर रास्ता, जिसके दो या तीन चक्कर ये रोजाना लगाते हैं. एक बार में रेत के दो कट्टे ढो लेते हैं. एक कट्टे का सौ रुपये भाड़ा तय है.
दोपहर की धूप में तीखी चढ़ाई सभी का पसीना निकाल रही थी. कुछ पल पेड़ों में छांव में सुस्ताने के बाद हम फिर से आगे की राह नापने लग जाते. रास्ते में एक जगह सूखा धारा मिला, जिसका हाल में ही जीर्णोदार किया गया था लेकिन पानी का नामोनिशान वहां नहीं था. दीदिना गांव की सरहद दिखाई दी तो पांव में जैसे पंख लग गए. गांव के बीच नए बने दिवान सिंह के होम स्टे में आज ठहरने की व्यवस्था की गई थी. लोहाजंग से यहां पहुंचने में साढ़े चार घंटे लग गए, जबकि यहां के बच्चों के लिए रोज लोहाजंग स्कूल जाना-आना मामूली बात है. ठिकाने में पहुंचते ही राजमा, चावल के साथ पापड़ परोसे गए. भोजन काफी मीठा लगा. बाहर हरी घास में कुछेक साथी धूप का आनंद लेते हुए पसर गए.
साथी भंडारीजी अपने विशाल कैमरे के साथ चिड़ियों की फोटोग्राफी में लग गए. उनका कैमरा, हॉलीवुड मूवी थोर व एवेंजर्स के सुपरहीरो थोर के हथौड़े जितना भरी-भरकम था. मूवी में हीरो ही उस हथौड़े को उठा सकता था और यहां भंडारीजी के साथ भी यह बात थी. पूरे ट्रैक में अपने हथौड़े रूपी कैमरे को लेकर वह थोर की तरह पेड़ों के झुरमुटों और बुग्यालो में विचरते रहे.
शाम चार बजे प्रदीप ने सभी को गांव घुमाने का प्रस्ताव रखा. वह हमें दीदिना गांव की पगडंडी से होते हुए गांव से ऊपर जाने वाले रास्ते में किलोमीटर भर आगे एक बड़े मैदान तक ले गया. यहां से गांव काफी सुंदर लग रहा था. ट्रेकिंग में कई सारे नियमों में एक नियम यह भी है कि दिन में ऊंचाई हासिल करो और रात को सोने के लिए नीचे आ जाओ, ताकि सभी ऊंचाई के अभ्यस्त हो जाएं. पर्वतारोहण कोर्स में सीखाए गए इस नियम को प्रदीप बखूबी अमल में लाते दिखा. ट्रैकिंग में उसके अनुशासित आचरण को देखकर अच्छा लगा.
दिदीना गांव में कुछेक मकानों को छोड़ नए मकान बन रहे थे. विस्थापन के कारण यहां बिजली भी जल्दी आ गई. कुलिंग गांव से लगभग 70-80 परिवार विस्थापन होकर अब यहीं बसने में जुटे थे. नए मकान पहाड़ी शैली में हैं, लेकिन उनकी दीवारें सीमेंट और रेत के ब्लाकों की हैं. कुछेक छतें पाथर की बनी दिखीं लेकिन ज्यादातर नए मकानों की पहली मंजिल कंक्रीट की थीं, जिसकी दूसरी मंजिल की ढलवां छत टिनों से पाटी गई थीं. ये लोग अपने पुस्तैनी ‘कुलिंग’ गांव में घरों के किवाड़ खोलने भी जाते रहते हैं. यहां दिदीना में नए बन रहे मकानों को होम स्टे का भी रूप दिया जा रहा है. ऐसा लगा जैसे इन्होंने ताउम्र प्रकृति की इस गोद में रहने की ठान ली है.
“चलिए..! वापस लौटते हैं…” पंकज की आवाज गूंजी तो मैं अपनी तन्द्रा से वापस लौट आया. प्रदीप का चचेरा भाई है पंकज. कॉलेज बंद हैं तो वह भी प्रदीप के साथ हाथ बंटा रहा है. भेड़ों के चरवाहे ‘अणवाल’ की तरह वह ट्रैकिंग में आने वाले मेहमानों को बड़ी जिम्मेदारी से हांकते हुए सुरक्षित ठिकाने तक ले जाता है. इधर सूरज ने भी अपनी दुकान समेटनी शुरू कर दी थी. पहाड़ के सीनों में चिपके घरौंदों में उजाला टिमटिमाने लगा था. पहाड़-आसमान एकाकार हो गया था.
जारी…