सन 1913 से हुआ था ढोल सागर पर का शोध कार्य शुरू ….! ढोल सागर (प्रथम खंड) की एक हजार प्रतियां 1932 में आई बाजार में!
(मनोज इष्टवाल)
बद्रिकेदारेश्वर प्रेस पौड़ी के प्रोपराइटर ब्रह्मानन्द थपलियाल द्वारा सन 1932 के श्रावण मास में अपने सम्पादन में ढोल सागर का प्रथम खंड बाजार में उतारा था, यह बहुत कम लोग जानते हैं. यूँ विगत 10 बर्षों से मैं स्वयं भी ढ़ोल सागर पर वृहद कार्य कर रहा हूँ इसलिए ज्यादा सामग्री उपलब्ध नहीं करवा पाऊंगा! फिर भी आप सभी की जानकारी के लिए बता दूं कि ढोल सागर की तर्ज पर प्रेम लाल भट्ट जी द्वारा दमौ सागर भी लिखा गया जिसे मात्र 29 पंक्तियों में ही समेटा गया और 1926 में इसे आनन फानन प्रकाशित किया गया. भले ही इसे दमाऊ सागर नहीं समझा गया हो. लेकिन यह शोध कार्य अवश्य था!
इसके अलावा मोहन लाल बाबुलकर द्वारा “गढ़वाल की लोकधर्मी कला (पृष्ठ १४१-१४५), डॉ. शिबानंद नौटियाल की पुस्तक “गढ़वाल के लोकनृत्य (पृष्ठ-४४८-४५१), केशव अनुरागी की लिखी पुस्तक “ढोल सागर” सहित कई विद्वानों द्वारा ढोल संदर्भित जानकारियाँ अपनी अपनी पुस्तकों के माध्यम से दी गयी हैं लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि ये सभी पुस्तकें ढूँढने से नहीं मिलती! पंडित ब्रह्मा नन्द थपलियाल व साथियों द्वारा ढोल सागर पर 1913 से कार्य शुरू हो गया था जिसके संग्रहण में उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ी क्योंकि यह किसने सर्वप्रथम लिखा था यह संज्ञान किसी की नहीं है क्योंकि यह भोजपत्रों में लिखा गया संस्कृत हिंदी और गढ़वाली शब्दों का संग्रहण रहा है. जैसे-
पार्वत्युवाच- आपु पुत्रं भवे ढोलम, ब्रह्मपुत्रं च ड़ोरिका,
पौन पुत्रं भवे नादं,नीम पुत्रं गजबलम.
बिष्णु पुत्रं भवे पूड्म,नागपुत्रं शुडलिका..!
मित्रों आपके संज्ञान के लिए यह भी बता दूँ कि पंडित भवानी दत्त थपलियाल द्वारा 1926 में वृहद ढ़ोल सागर का प्रकाशन 1926 में किया गया था जोकि भारत प्रिंटिंग प्रेस मेरठ द्वारा मुद्रित एवं प्रकाशित की गई! ढ़ोल सागर के ज्ञाता तत्कालीन तहसीलदार ईश्वरी दत्त घिल्डियाल ने इसके अनुवाद में काफी मशक्कत की, और सबसे बड़ी बात ढोल सागर की यह रही कि यह आवजी जाति और शिब का वाद होने के बाद भी पंडितों के सौजन्य से बाजार में उपलब्ध हो पाया!
ढोल की उत्पति के बारे में ढोल सागर कहता है :-
अरे आवजी ढोल किले ढोल्य़ा
किले बटोल्य़ा किले ढोल गड़ायो
किने ढोल मुडाया ,कीने ढोल ऊपरी कंदोटी चढाया अरे गुनी जनं
ढोल इश्वर ने ढोल्य़ा पारबती ने बटोल्या
विष्णु नारायण जी गड़ाया चारेजुग ढोल मुडाया
ब्रह्मा जी ढोलउ परी कंदोटी चढाया ।
ढोल सागर के द्वितीय खंड पर केशव अनुरागी जी ने कार्य किया था क्योंकि वे खुद इसके ज्ञाता भी थे लेकिन आज तक इसका द्वितीय खंड बाजार में नहीं आ पाया! ऐसा नहीं है कि ढोल सागर के ज्ञाता अब नहीं हैं ! हैं तो कई लेकिन ज्यादात्तर उपेक्षाओं के शिकार हैं! उत्तराखंड सरकार के संस्कृति मंत्री सतपाल महाराज की अगुवाई में संस्कृति विभाग उत्तराखंड सरकार द्वारा ढोल पर अनूठा प्रयोग किया गया और उसमें प्रदेश भर के गुनिजन आवजी समाज के लगभग 1300 से अधिक आवजी/बाजगी समाज के लोगों ने शिरकत की ! हरिद्वार में खूब ढोल भी बजा लेकिन नतीजा वही सिफर निकला! काश…कि हम ढोल सागर के ज्ञान की बात करते न कि वहां तालों को बजाकर गुणगान करते!
गुनिजन समाज के कई ढोल सागर ज्ञाता आज भी ज़िंदा हैं लेकिन इनमें परिपूर्ण ढोल सागर कौन जानता है बताया नहीं जा सकता है क्योंकि चाहे सुप्रसिद्ध जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण हों, ओंकार दास, उत्तम दास या फिर कई अन्य विद्वत जन कहा नहीं जा सकता कि ढोल सागर में सब कितने पारंगत हैं!
ढोल-दमाऊँ गढ़वाल-कुमाऊँ के पारम्परिक वाद्य यंत्र हैं, बिना इन वाद्य यंत्रों के उत्तराखंड में यज्ञ, पूजा, मांगलिक कार्य आदि सम्पन्न नहीं होते। ढोल की थाप पर मनुष्य के तो पैर थिरकते ही हैं अपितु स्वर्ग में सोते हुए देवी , देवता और अप्सरायेँ भी धरा पर थिरकने को मजबूर हो जाती हैं। एक थाप पर अनेकों लोग देव रूप धारण कर लेते हैं और एक गलत थाप पर न जाने कौन सी आपदा आ पड़े कोई नहीं जानता। इन यंत्रों को बजाने वाले दास या औजी कहलाते हैं। “औजी” शब्द का शाब्दिक अर्थ है शिव भक्त। ढोल सागर एक ताल सम्बन्धी ग्रन्थ या “मौखिक परंपरा” है इसमें काफी मतभेद हैं। ढोल सागर में शिव-पार्वती संवाद हैं एवम विज्ञानं भैरव शैली में है। ढोल सागर गुरु गोरखनाथ सम्प्रदाय की देन है। गुरु गोरखनाथजी भी शिव उपासक ही थे इसलिए ढोल सागर पर भी विज्ञानं भैरव का प्रभाव पड़ा। विज्ञानं भैरव के प्रथम श्लोक से लेकर चौबीसवें श्लोक तक का शिव- पार्वती का वार्तालाप ही ढोल सागर में औजी भी प्रारंभ करते हैं। ढोल सागर की मूल भाषा ब्रज है एवं केवल कुछ शब्द ही संस्कृत, गढ़वाली व कुमाऊँनी के है।
ढोल सागर गढ़वाल-कुमाऊँ मंडल का एक महत्वपूर्ण गेय साहित्य (जिसको गाया जा सके) है, कुछ विद्वानो के अनुसार यह गद्य शैली (लेख जैसे कहानी, निबंध आदि) है। सातवीं सदी से तेरहवीं सदी तक नाथपंथी (गुरु गोरखनाथ के अनुयाई) सिद्धों ने नाथपंथी साहित्य को समूचे गढ़वाल एवं कुमाऊँ मंडल में प्रचारित प्रसारित किया। ढोल सागर भी नाथपंथी साहित्य है और अनुमानतः शायद बारहवीं या तेरहवीं सदी में इसकी रचना हुई हो। कुछ विद्वानो के अनुसार ढोल के व्याकरण और इसकी उत्पत्ति की उत्तराखंड में केवल “मौखिक परंपरा” ही चली आ रही है जिसे “ढोल सागर” कहते हैं।
ढोल सागर में पृथ्वी संरचना के नौ खंड, सात द्वीप और नौ मंडलों का वर्णन किया गया है। ढोल को ताम्र जडित, चर्म पूड़ से मुड़ाया जाता है। ढोल की उत्पति के बारे में ढोल सागर कहता है
चारि जुग ढोल मड़ाया
विष्णु ने घोल्या (लकड़ी का खोळ बनाया )
पारबती ने बटोल्या (ढोल पर पूड़ चढ़ाई )
ब्रम्हा ढोल कन्दोरी चढाया (कंधे कि पट्टी )
महेश ने ढोल्या (और महेश ने ढोल धारण किया)
शिवजी ने धारण किया इसीलिए ढोल को “शिव जंत्री” भी कहते हैं। ढोल का ऊर्ध्वमुखी मूल ही नाद कि शुरुवात है:-
पूरब ढोली ढोली का आँखा
पश्चिम ढोली ढोल क़ी शाखा
उत्तर ढोली ढोल का मूल
दक्षिण ढोली ढोली का पेट!
ढोल सागर में ढोल के उनचालीस (39) व दमाऊँ के तीन (3) ताल हैं। कई बिद्वान ढोल की चौरासी (84) ताल बताते हैं। शायद इसका संबंध “चौरास” से है। लोक श्रुतियों के अनुसार देव पूजन के चावल के लिए सट्टी (धान) कूटने के समय “चौरास” बजाई जाती थी और चौरासी (84) अलग-अलग तालों पर चौरासी घाण (ऊखल में समाने वाले अनाज की मात्रा) सट्टी (धान) कूटा जाता था। यानी की एक ताल में एक घाण सट्टी।
उत्तराखंड के लोक साहित्य को सँजोये रखने के लिए कई विद्वानों व गुणी जनों ने अथक प्रयास किया है, इनमें से स्व. केशव अनुरागी व डा. शिवा नन्द नौटियाल का योगदान अति प्रसंसनीय है। केशव अनुरागीजी ने ढोल वादन की शैली को प्रायोगिक धरातल में प्रचारित व प्रसारित किया। केशवजी राम लीला या अन्य कार्यकर्मों में ढोल वादन करते थे एवं साथ साथ कईयों को ढोल वादन का प्रशिक्षण भी देते थे। केशव जी ने कई लोक गीतों की स्वर लिपि भी तैयार की हैं और श्री शिवा नन्द नौटियाल जी ने उन कई लिपियों को अपने ग्रन्थ में स्थान भी दिया है। उदाहरणार्थ स्व. केशव अनुरागीजी की बनाई हुई “चैती प्रभाती” ढोल दमाऊँ युगल बंदी की स्वर लिपि निम्नवत
है :-
1 2 3 4 5 6 7 I 8 9 10 11 12 13
झे नन तू झे नन ता – I झे गा तु झे ननु ता –
15 16 17 18 19 20 21 I 22 23 24 25 26 27 28
त ग ता झे गु त – I झे गा झे न्ह न ता –
29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 I 1 2 3
ता – क झे ना तु झे गा — ता — I झे ननु तु
यह लोक गीत चैत महीने में बजाया जाता है जिसे “चैत प्रभाती” कहते हैं। उत्तराखंड में चैत संगरांद के दिन औजी घर घर जाकर सुबह सुबह ढोल दमाऊँ पर इसे बजाते हैं।
ढोल सागर में ढोल बजाने के लिए अँगुलियों का भी अपना अनुशासन होता है और किस तरह दोनों हाथ की अंगुलियाँ ढोल को शाबाशी व पीटते हैं उसका अलग ही रूप है! एक पूड़ा हमेशा गजाबल (लाकुड) की मार खाता रहता है तो दूसरा सिर्फ शाबाशी ही लेता है:-
प्रथम अंगुली- ब्रंण बाजती
द्वितीय अंगुली – मूल बाजती
तृतीय अंगुली- यवदि बाजती
चतुर्थ अंगुली – ठं ठं ठं कारंती
पंचम अंगुली – झपटी झपटी बाजी
दूसरा हाथ गजाबलम (लाकुड) – धूमधाम बाजी !
क्रमशः जारी…………………………………………………………………..!