*काश…कि विश्वमोहन बडोला एक बार उत्तराखंड के पत्रकारों व साइन जगत के कलाकारों को भी कुछ टिप्स देकर जाते!
(मनोज इष्टवाल)
बेहद अनुशासित, मित्रों के बीच बेबाक व दमकते के चेहरे पर गम्भीरता…! यही कुछ ख़ास चीजें प्रथम दृष्टा मैंने उस शख्स में देखि व महसूस की थी जिनका परिचय संसद मार्ग स्थित आकाशवाणी भवन से निकलते वक्त दूरदर्शन के सम्पादक स्व. राजेन्द्र धस्माना जी ने मुझसे करवाया था और मैंने जाने क्यों उनके झुककर चरण छू लिए ….! जाने क्यों? लेकिन वह आत्मीयता यहीं खत्म न हुई उसके बाद जब कभी भी मिले तो उन्होंने मुझे अपनत्व की नजरों से स्नेह दिया व खूब बातें पहाड़ व गढवाल की संस्कृति पर की! आज जब उनका बिशाल प्रोफाइल पढता हूँ तो आँखें जमीन सूंघने लगती हैं क्योंकि तब मैं उम्र के पड़ाव का बहता गदर था और वे समुद्र हो गए थे! अब लगता है बडोला परिवार ने तो सिर्फ एक शख्स के रूप में अपना अभिवाहक खोया है लेकिन उत्तराखंड ने एक ऐसा बेटा जिसने उस काल में अपने को स्थापित किया जिस काल में बमुश्किल बहुत कम उत्तराखंडी रुपहले परदे पर दीखते थे! चाहे वह मंडी हाउस हो या फिर टीवी की ब्लैक एंड वाइट स्क्रीन में “हम लोग” नाटक में!
वह तब देश के नामी पत्रकारों में शुमार थे और उनका आवास था मयूर विहार स्थित समाचार अपार्टमेंट! नाम था विश्व मोहन बडोला! दूरदर्शन के मित्र प्रबोध डोभाल के साथ उनके घर जाना हुआ! मुझे आज भी याद है क्योंकि तब देश की सुप्रसिद्ध आर्टिस्ट (पेंटिंग) श्रीमती चमेली जुगरान ने भी मुझे चाय पर न्यौता दिया था! वह वहीँ पास रहती थी! तब मैं शायद 24 बर्ष का था व भोलू यानि वरुण बडोला बमुश्किल 12-13 साल के! उस दिन घर में पी गयी वह चाय मुझे नया दृष्टांत दे गई! विश्व मोहन बडोला जी ने लगभग डपटते हुए कहा था- इष्टवाल, तुम दिमाग से सार्प तो हो लेकिन एक साथ कई चीजें दृश्यपटल पर ले आते हो! एक बात पूरी नहीं होती दूसरी तपाक से बोल देते हो! सब्र करना सीखो व दूसरे की बात भी पूरी सुन लिया करो! मुझे तब शर्मिन्दगी हुई और वह चाय पचाकर भागने की जल्दी..! रास्ते में प्रबोध भाई से बोला था- यह आदमी सनकी तो नहीं! प्रबोध सिर्फ मुस्करा दिए और बोले- मनोज, अगर आप व मैं वैसे होते तो आज जहाँ विश्व मोहन बडोला जी हैं वहां होते! उन्होंने जो कहा उसे अमृत समझकर जिन्दगी में उतार लो, बहुत कुछ जीवन में कर पाओगे!
अभी कुछ महीनों पहले ही तो वरुण अपने पिताश्री का गाया गीत गाते सोशल मीडिया पर दिखे थे! गीत के बोल थे “जिकुड़ी धडक-धडक करदा, अपणी नीचा वाणी, छैला की याद में उल्यारु व्हे पराणी!” उनके इस गायन के अंदाज ने मुझे विश्वमोहन बडोला याद दिला दिए! यह भी अजब-गजब इत्तेफाक था कि लखनऊ में एक बार दो विश्वमोहन मुझे एक साथ मिले! एक विश्वमोहन बडोला तो दूसरे विश्वमोहन थपलियाल! दोनों ही अपनी अपनी विधा के बेहद सल्ली व पारंगत..! बस अंतर इतना था कि विश्वमोहन थपलियाल की वाणी का शहद समोहित करता है और विश्वमोहन बडोला का कार्य करने का तरीका!
उस खबर ने स्तब्ध कर दिया!
अभी जुम्मा-जुम्मा चार या पांच दिन ही गुजरे होंगे जब दून स्कूल के आनंद कुमार जी का फोन आया! मैं पहाड़ों से लौटा था और थकान मिटाने में लगा था! उनसे जानकारी मिली कि विश्वमोहन बडोला इस इस लोक से उस लोक की अनंत यात्रा पर निकल गए हैं! मुझे आश्चर्य हुआ कि यह बात आनन्द जी को कैसे पता? लेकिन जब उन्होंने जानकारी दी कि वे उनके साढू भाई हैं तब मैं स्तब्ध रह गया! सच पूछिए तो लगा मानों अपना कोई अभिवाहक चला गया हो! ये विधि का भी कैसा विधान है, समझ नहीं पाया! इतने साल गुजर गए तब एक बार भी मुझे यह नहीं लगा कि मैं कहीं से विश्वमोहन बडोला जी का नम्बर पूछूँ व उनकी कुशल क्षेम पता करूँ लेकिन आज हृदय की व्यग्रता में वह शख्स आँखों के आगे उभरकर आता है जो अब परलोकवासी हो गये! वह शख्स टीवी स्क्रीन पर श्याम स्वेत परदे पर हम लोग जैसे टीवी सीरियल का किरदार निभाते दिखाता है व जोधा अकबर फिल्म के रुपहले परदे पर दिखता है!
आकाशवाणी से उत्तराखंड के पहले गायक कौन..! लोकगायक जीतसिंह नेगी या सुप्रसिद्ध नाट्यकर्मी/पत्रकार/रंगकर्मी विश्वमोहन बडोला?
आज भी दिलो-दिमाग पर यह प्रश्न जाने क्यों गूंजता है कि आकाशवाणी के पहले गायक कौन हुए! यों तो लोकगायक जीत सिंह नेगी ने ग्रामोफोन पर गीत रिकॉर्ड करने 1942 से शुरू कर दिए थे, लेकिन आकाशवाणी में उनका पहला गीत “तू होलि उच्ची डांडयूँ म वीरा घसियारि का भेष म, खुद म तेरी सड़क्यूँ पर मी रूणु छऊँ प्रदेश मा!:” क्या सचमुच 1955 में रिकॉर्ड हो गया था? या फिर उनके ग्रामोफोन एचएमबी से 1955 में रिलीज हुआ जिसमें यह गीत भी था! कुछ का मानना है कि उन्होंने आकाशवाणी का पहला गीत 1960-61 रिकॉर्ड किया! वहीँ विश्वमोहन बडोला ने आकाशवाणी दिल्ली से 1959 में जब पहला गीत गाया था तब उस दौर में यह चर्चा जरुर उठी थी कि आकाशवाणी का यह पहला गढवाली गीत है लेकिन तब बतौर गायक, संगीत संयोजक व गीतकार के रूप में लोकगायक जीत सिंह नेगी काफी नाम कमा चुके थे क्योंकि उनके ग्रामोफोन तब उत्तराखंड के हर धनवान घर में सुनाई देते थे! वैसे लोकगायक जीत सिंह नेगी का मानना भी यही था कि उन्होंने आकाशवाणी के लिए 1955 में पहला गीत गाया! अब इस बारे में आकाशवाणी का रिकॉर्ड रूम ही जानकारी दे सकता है कि किसने सर्वप्रथम आकाशवाणी से गढवाली गीत गाया है क्योंकि न आज लोकगायक जीत सिंह नेगी ज़िंदा हैं न ही विश्वमोहन बडोला जी!
विश्वमोहन बडोला जी का परिचय!
विश्वमोहन बडोला का जन्म पौड़ी जनपद के यमकेश्वर क्षेत्र के ग्राम ठंठोली ब्लॉक ढांगू जिला पौड़ी गढ़वाल में हुआ था। बाद में उनका परिवार कोटद्वार गढ़वाल में चला आया जहाँ अभी भी उनका घर है। वो कोटद्वार नियमित रूप से आते रहते थे उनका पहाडों से बहुत लगाव था। वो भले ही दिल्ली मुंबई में बस गए थे लेकिन उत्तराखंड उनके ह्रदय में बसता था। अपनी पत्रकारिता के दिनों के दौरान वो नियमित रूप से हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय श्रीनगर गढ़वाल में पत्रकरिता पर व्याख्यान देने के लिए आते रहे। उच्च शिक्षा के लिए वे दिल्ली आ गए और उनकी शुरू की शिक्षा दिल्ली में हुई और बाद में उन्होंने किरोड़ी मल कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय से बी ए आनर्स में उपाधि प्राप्त की।
पत्रकारिता के आईने में विश्वमोहन बडोला!
विश्वमोहन बडोला कई समाचार पत्रों में कार्यरत रहे, जिन में इंडियन एक्सप्रेस , द स्टेट्समैन , पेट्रियट, डेक्कन हेराल्ड, आनंद बाजार पत्रिका एवं द टाइम्स ऑफ़ इंडिया प्रमुख हैं। उन्होंने डेक्कन हेराल्ड में चीफ ऑफ़ ब्यूरो एवं द टाइम्स ऑफ़ इंडिया लखनऊ में रेजिडेंट एडिटर के रूप में भी कार्य किया। वो दक्षिण एशियायी मामलों के विशेषज्ञ थे और उन्होंने कई प्रधानमंत्रियों एंड राष्ट्रपतियों के साथ विश्व भर के दौरे किये।
कॉलेज में अध्ययन के दौरान ही उन्हें रंगमंच से भी लगाव हो गया था जिसे उन्होंने पत्रकारिता में आने के बाद भी पूरी तन्मयता के साथ निभाया। उनके साढू भाई आनन्द कुमार बताते हैं कि बडोला जी ने एक बार अपने इंडियन एक्सप्रेस में काम करने के दिनों का एक वाकिया स्मरण करते हुए बताया की एक शाम जब इंडियन एक्सप्रेस के एडिटर इन चीफ राम नाथ गोयनका नाटक देखने दिल्ली के थिएटर में आये तो वो मुझे रंगमंच पर देखकर हतप्रभ रह गए और अगले दिन उन्होंने बताया की उनको बहुत सुखद आश्चर्य हुआ।
लेखक /पत्रकार /गीतकार /गायक /रंगकर्मी /लोककलाकार व अभिनेता!
हम में से ज्यादात्तर लोगों को यह जानकारी नहीं होगी कि वो एक बेहतरीन गायक भी थे, और उन्होंने दर्जनों गढ़वाली गाने भी गाये। “जिकुड़ी धडक-धडक करदा, अपणी नीचा वाणी, छैला की याद में उल्यारु व्हे पराणी!” गीत उनकी आवाज में भी ठेठ वैसे ही सुनाई देता था जैसे वरुण बडोला द्वारा हाल ही में सोशल साईट पर या यूट्यूब में गाया है! आल इंडिया रेडियो दिल्ली में उन्होंने पहला गढ़वाली गाना वर्ष 1959 उन्होंने गाया था। उन्होंने आल इंडिया रेडियो में 400 से भी ज़्यादा नाटकों में भाग लिया था और उनकी आवाज़ को आल इंडिया रेडियो एवं दूरदर्शन के नाट्य रूपांतरों के लिये उच्च कोटि का दर्ज़ा प्राप्त था। उन्होंने पंद्रह अगस्त एवं छब्बीस जनवरी के अवसरों पर कई बार आल इंडिया रेडियो तथा दूरदर्शन पर हिंदी में कमेंटरी भी की थी।
रंगमंच में गहरी रुचि रखते हुए उन्होंने ओम शिवपुरी , राम गोपाल बजाज,बृजमोहन शाह, बी.वी. कामथ जैसे अनुभवी कलाकारों के साथ दिशांतर नाट्य समूह की स्थापना की। दिशांतर ने कई नाटकों का प्रदर्शन किया जिसमें आषाढ़ का एक दिन, कंजूस , खामोश अदालत जारी है और द्रौपदी प्रमुख हैं। दिशांतर रंगमंच समूह काफी मशहूर हुआ और उसका दौर तब खत्म हुआ जब समूह के संस्थापक एक-एक करके मुंबई चले गए। विश्वमोहन दिल्ली में ही रहे और उन्होंने सुप्रसिद्ध अभिनेता राजिंदर नाथ के साथ अभियान समूह में सहयोग करना शुरू कर दिया। अभियान रंगमंच समूह ने अलीबाबा, धर्मशाला और नाटक पालमपुर का जैसे बहु-चर्चित नाटकों का प्रदर्शन किया। इसके बाद उन्होंने रुचिका रंगमंच समूह के साथ सहयोग किया जिसके चर्चित नाटकों में कालिगुला , सिक्स चरक्टेर्स इन सर्च ऑफ़ ऑथर एवं तिगोने प्रमुख हैं। बाद में उन्होंने मोहन उप्रेती के साथ मिलकर पर्वतीय कला केंद्र के माध्यम से उत्तराखंड की संस्कृति, कला एवं लोकगीतों से भारत के लोगो को अवगत कराया । पर्वतीय कला केंद्र की प्रमुख प्रस्तुतियों में राजुला मालूशाही, महाभारत, इंद्र सभा एवं अष्टावक्र बहुत लोकप्रिय रही। पर्वतीय कला केंद्र को भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय से श्रेष्ठ रंगमंच समूह का दर्ज़ा भी प्राप्त था एवं कई अवसरों पर पर्वतीय कला केंद्र को संस्कृति मंत्रालय द्वारा भारत के सांस्कृतिक प्रतिनिधि मंडल के साथ विदेशो में प्रस्तुति के लिए ले जाया गया।
उन्होंने कई टीवी नाटकों और धारावाहिकों में भी काम किया। भारत टेलीविज़न के सर्व्रथम “हम लोग” में उनकी यादगार भूमिका रही। इसके अलावा उन्होंने कई TV धारावाहिकों में काम किया जैसे अम्मा और फॅमिली , ज़िन्दगी की खूबसूरत है, राजधानी, जी प्रधान मंत्री, उपनिषद् गंगा, एक चाबी है पड़ोस में, निशा और उसके कजिन्स प्रमुख हैं।
उन्होंने कई फिल्मों में भी काम किया जिसमे प्रमुख हैं स्वदेश, जोधा अकबर, व्हाट्स योर राशि , लगे रहो मुन्नाभाई , जलपरी , टोटल सयापा, प्रेम रतन धन पायो, जॉली एल एल बी 2 इत्यादि प्रमुख हैं ।
विश्व मोहन बडोला जी को दिल्ली रंगमंच की उन्नति में विशेष योगदान एवं आल इंडिया रेडियो, दूरदर्शन , टेलीविज़न तथा फिल्मो में अनेको किरदारों को निभाने के लिए उन्हें हमेशा याद रखा जायेगा। 84 बर्ष की आयु में परलोक सिधारने वाले विश्वमोहन बडोला अपने पीछे वो पत्नी सुशीला बड़ोला, पुत्र वरुण बड़ोला और पुत्री अलका एवं कालिंदी बड़ोला को छोड़ गए हैं।
विश्वमोहन बडोला की मृत्यु पर कुछ यों प्रतिक्रियाएं व्यक्त की गयी!
वी एम यानी विश्व मोहन बडोला भी चले गए. रंगमंच, शास्त्रीय संगीत, अंग्रेज़ी पत्रकारिता और यारबाशी–उनके जीवन के ये चार स्तम्भ थे. दिल्ली रंगमंच के आरंभिक दौर को गढ़ने-संवारने में ओम शिवपुरी, सुधा शिवपुरी , सुषमा सेठ के साथ उनका बड़ा योगदान था और वीएम को जिन्होंने ‘घासीराम कोतवाल’, ‘हयवदन, ‘अलीबाबा’ और ‘बाड़ा चिरेबंदी’ में देखा होगा, वे उनके अभिनय और गायन को भूले नहीं होंगे. उन्होंने कई साल डागर बंधुओं से ध्रुपद भी सीखा था और अगर वे गाना नहीं छोड़ते तो आज बड़े उस्ताद हुए होते. पत्रकारिता में उनसे बेहतर सम्पादन करने वाले भी उस दौर में कम ही थे. लेकिन चीज़ों को एक मुकाम तक ले जाकर छोड़ देना उनकी फितरत में ही था. बडोला जी का हम लोगों की ज़िंदगी में भी बड़ा योगदान रहा. मेरे लिए वे गुरु, बड़े भाई, रहबर और प्यारे दोस्त थे. वीरेन डंगवाल तो उन्हें ‘बढ्डो’ कहता था और ज्ञानरंजन जब भी दिल्ली आते, अड्डा उनके ही घर में जमाते. दुनिया से जाना सभी को होता है, लेकिन अफ़सोस यह है कि उनके विलक्षण सुरीले गायन की रिकॉर्डिंग हम लोग नहीं कर पाए. वे खुद ही इस तरफ से लापरवाह थे. इस सच्चे, सरल, साफ़-दिल इंसान को मेरा आख़िरी सलाम. यहाँ उनके अभिनय की याद में एक लघु फिल्म.
(Google reunion) https://www.youtube.com/watch?v=gHGDN9-oFJE (मंगलेश डबराल)!
My dear Varun,
It has been two days since I learnt through your Facebook post about your father’s passing away, and I’m still grieving his loss, sitting over 12,000 kilometers away at Columbia University in New York.
I was one of his favourite students at the journalism school 32 years ago, in 1987-88, in New Delhi. He was the Chief of Bureau for the Deccan Herald in the capital at that time and taught us news editing.
He was strict and punctual and expected his students to come to the class after reading the prescribed lessons, besides the day’s newspapers, and he expected everyone to take part in the class exercises. He couldn’t stand fools and non-serious students.
He forced his students to think for their own sake, apply their mind, go out on a limb, attempt writing news headlines and editing mofussil stories—arguably among the worst copy filed by rural reporters—even if they couldn’t get them right at first.
We were all intimidated at first. But then some of us had a purpose and plan which he recognized. And he started frequently calling out Alpana Bhat, Meenakshi Kumar, Ameeta Garg, Max Martin, Atul Malik, Rajiv Gupta and me, besides some others occasionally.
I still remember his explanation on the adjournment of the House sine die and when it is prorogued. Or the meaning of a court taking suo moto notice of a case. Or why the Army is called out of the barracks by the civil administration for assistance and not called in. Or why dateline is primarily the place where the story originates from and not its date.
He was larger than life, back in the day. Someone all of us looked up to. We could hear him on AIR Vividh Bharati’s nightly drama show, Hawa Mahal; see him on multiple theatre stages at Mandi House—I watched him perform in a Hanif Kureishi play at Sri Ram Centre, just after My Beautiful Laundrette was released in London; read signed newspaper reports on front pages from his travels with the heads of state.
He was convinced after an informal conversation with me that I was serious about a career in the media. From then on, he was more like a vigilant parent to me, guiding, opening doors and creating opportunities.
Towards the end of the journalism programme, sometime at the beginning of 1988, he called me home. All of you lived in a second-floor house in Green Park Extension. It was late in the evening. As I walked up the stairway, I heard you singing. So I stood still to soak in the song, also to stop the tik-tok tik-tok sound my shoes were making. But a few seconds later, the song stopped and he opened the door. He looked down. I looked up. He wondered why I had stopped midway. I told him I didn’t want to interrupt your song. He ushered me in with a hug.
Subsequently, we met regularly at the Press Club. His office was walking distance away in the INS Building. He loved his paan after his meal. We had great conversations.
In one conversation, I think in March of 1989, he told me that he was moving to Lucknow as he had been appointed the Resident Editor for both The Times of India and Navbharat Times there. He told me to join him if nothing was working out for me in Delhi. “Jaise Varun rehta hai mere saath, vaise tum bhi rehna aur maje se kaam karna” he said.
We continued to be in touch when I joined India Today. Our meetings became less frequent when I moved to Chandigarh to work at The Indian Express, and he moved to Mumbai. During my visits to Delhi, I would often call the landline at Samachar Apartments, but he wasn’t there.
I finally tracked down his new number through my old friend Richa Gupta Kala in October 2017 and was thrilled to hear his voice. I was doing my GoNews India project in NOIDA with Pankaj Pachauri at that time. So we met for a meal at Samachar Apartments after a very long gap.
The photo that you see here was taken on the night of 12 October 2017. It was taken by Aunty, your mom. It will now remain my abiding memory as I anchor him in my heart forever. He touched many lives like mine and generated a lifetime of goodwill.
I am grieving his loss, but I’m also glad that I met him and became a part of him. The Teacher gave a lot of love to the Taught which I’ll cherish forever.
God bless his soul.
God bless you all.
Warmly,
Harpal Singh
स्मृति शेष… में बस इतना ही! सचमुच एक ऐसा ही नाम है विश्व मोहन बडोला! एक ऐसा नाम जिन्हें प्रकृति अपने में सम्माहित कर लेती है! और वह विश्वमोहन बडोला……..!