राजा पराक्रम शाह ने रमा-धरणी को ऐसे करवाया था कत्ल। ब्राह्मण हत्या से आया था जलजला व तबाह हुआ श्रीनगर।
(मनोज इष्टवाल)
गढ़ राजवंश के इतिहास में राजा पराक्रम शाह पहला ऐसा राजा माना गया है जिसके अत्याचारों ने जनता में त्राही-त्राहि मचा दी। यह वह पहला शासक कहलाया जिसके सिर पर एक नहीं कई कलंक हैं। इसने न सिर्फ़ ब्राह्मण हत्या का पाप किया अपितु अपने बड़े भाई राजा प्रधुम्नशाह को राणीहाट के महल में ही कैद कर दिया। यह हवश का इतना भूखा राजा था कि जो महिला इसकी नजर में पड़ी उसे ही अपनी हवश का शिकार बना डाला। और तो और इसने दरबारी कवि व चित्रकार मौलाराम तुंवर से उसकी प्रेयसी गणिका को छीनकर मौलाराम को कैद खाने में डलवा दिया। इसी के राजकाज में जहाँ बड़ा भाई राजा प्रधुम्नशाह नेपाल का कर चुकाते-चुकाते कंगाल हो गया वहीं इसने अपनी अय्याशियों से प्रजा में त्राहीमाम मचाकर रखा। यह वह काल था जब गढ़वाल ने ‘बावनी‘ जैसा अकाल झेला व 08 सितंबर 1803 वृहस्पतिवार में अनंत चतुर्दशी के रात्रि पहर डेढ़ बजे गढ़राज का प्रलयकारी भूकंप आया जिससे पूरे गढ़ राज की दो तिहाई जनता प्रभावित हुई। गाँव के गाँव खंडहरों में तब्दील हुए और यहीं से गढ़राज वंश तबाह हुआ। आम जन ने इसे बेक़सूर रामा-धरणी नामक ब्राह्मणों की हत्या का पाप बताया।
यह आश्चर्य की बात है कि हमें यह तक पता नहीं है कि गढ़वाली सेना ने सन 1991 से लेकर 1803 तक गोर्खाली सेना को लगभग 09 बर्ष तक गढ़वाल में नहीं घुसने दिया और तो और कई बार गढ़वाली सेना ने नेपाली सेना को भागने को मजबूर कर दिया लेकिन जब कुल में ही द्रोही पैदा हो जाए तो क्या किया जा सकता है। प्रधुम्नशाह गढ़राज वंश के ऐसे लाचार शासक हुए जिनके पास सैन्य क्षमता तो अपार थी लेकिन उन्होंने अपने राजकाज के दौरान चौतरफा आक्रमण झेलने के साथ गृहयुद्ध भी झेला। न सिर्फ़ सिरमौर बल्कि नेपाल से युद्ध में नौ बर्ष खफा दिए। और तो और अपने भाई पराक्रम शाह के छल से राजगद्दी खोई और उनके पुत्र सुदर्शनशाह व पराक्रम शाह की दो धड़ों में बंटी सेना के मध्य युद्ध भी देखा। इन सभी घटनाओं को तत्कालीन दरबारी कवि मौलाराम तुंवर ने अपने ‘गणिका‘ नाटक व ‘गढ़-गीता-संग्राम’ में उल्लेख किया है।
राजा प्रधुम्नशाह ने नेपाल व गढ़वाल विवाद मिटाने के लिए अपने दो मंत्री रामापति खंडूरी को काठमांडू में वकील व धरणीधर खंडूरी को गोरखों का लेखवार बनाया। नेपाल व गढ़वाल के तालुकात सुधारने के लिए रामापति खंडूरी ने बेहद कूटनीति व राजनीति के तहत अपने छोटे भाई धरणीधर खंडूरी का विवाह नेपाल नरेश के राजगुरु की पुत्री बैजू बामणी से करवाकर गोरखा समाज का दिल जीत लिया व गढ़वाल नरेश नेपाली राजा का विश्वासपात्र बन गया लेकिन दुर्भाग्य ऐसा कि पराक्रम शाह के लिए यह सब अपच था क्योंकि सुरा व सुंदरी उसकी सबसे बड़ी कमजोरी थी, लेकिन रामा व धरणी पर कोई कार्यवाही करना साक्षात नेपाल सरकार से राजद्रोह करने जैसा था। पराक्रम शाह के सलाहकार, मंत्री, दरबारियों को रामा व धरणी के बढ़े कद से ईर्ष्या होने लगी और उन्होंने राजा के कान भरने शुरू कर दिए।
एक वह दौर भी था जब सन 1991 में राजा प्रधुम्नशाह के काल में गोरखा सेना ने मलाड गढ़ी व लंगूर गढ़ी पर भयंकर आक्रमण किया लेकिन गढ़वाली सेना ने गोर्खाली सेना को बुरी तरह खदेडते हुए यहाँ से मार भगाया। इस संबंध में अगर कोई गढ़वाल का इतिहासकार लिखता तो इसे अतिसयोक्ति माना जाता लेकिन इस घटना का जिक्र नेपाल के जाने माने इतिहासकार ढूँढीराज भंडारी ने अपनी पुस्तक “नेपाल को ऐतिहासिक विवेचना” के पृष्ठ संख्या 203 में करते हुए लिखा है कि – ‘ मला गढ़ी को आक्रमणमा गोर्खालीहरुद्वारा पराजित भए तापनि शत्रु को फोनले कोडिया तथा लंगूरमा घमासान युद्ध गरे। श्रीनगरका वीर जवानहरूको उत्साह र पराक्रमको समक्ष प्रतिमानशाही जस्ता वीर सेनानायकले पनि युद्धस्थलबाट कुलेलम ठोकी भाग्नु पर्यो।’
पराक्रम शाह व राजा प्रधुम्नशाह के पुत्र राजकुमार सुदर्शनशाह की आपसी लड़ाई के बारे में उस काल का बर्णन अपने काव्य ” गढ़राजवंश काव्य” पर्ण 44 ब में कुछ इस प्रकार करते हैं :-
राजमन्त्री राजा को चाहें। कुवरमन्त्रि राजा को रिया है ॥
कुवरमन्त्रि सल्यानी भयो । राजमन्त्रि रामा रहे ।
२ रामा धरणी दोऊ भाई । जात पनूहि उमर जुवाई.
सीसराम शिवराम सहोदर क्यों रावण के मन्त्रि महोदर ।।
राजकाज सब कुवर को दीन्यो । राजा हुकुम जपत करि लीन्यो ।। राजमन्त्रि तब भये किनारे गये राजपूत्र के द्वारे ।।
राजपूत्र को दियो चेताई। पिता तुहारे लिये दबाई ॥
तुमह’ पब कछु होस सिंभालो । हमरे संग बाहर तुम चालो ।।
बाहर चलि हम करे लड़ाई। तुमको राज देहि बैठाई ॥
साह सुदरसन तिनको नामा तिनसो मन्त्र कीयो इह रामा।।
कुंवर सुनत इह बाहर पाये। रामापति निज द्वार बैठाये ॥
लगे मोरचा सहर में सारे श्रीनगर यो राज हि द्वारे ॥
भगे लोक सब ही अकुलाई। चचा भतीजे लगी लड़ाई ॥
केते दिवस हि लड़ते भये । पूरब पाप उदह गये।।
कटे मरे जो लोक हजारों श्रीनगर घो धारा धारी ।। ‘
यह अंश जानना भी आवश्यक था क्योंकि उस दौर के इन्हीं राजमंत्री राजदरबारियों के कारण न सिर्फ़ रामा -धरणी को साजिशन मौत के घाट उतारा गया बल्कि क्रूरतम गोरख्याणी आक्रमण के बाद गढ़वाल राज्य का लगभग ढाई सौ साल का राजपाठ भी छीना गया व 11 साल जनता को गोरखा राज में भयंकर पीड़ा झेलनी पड़ी। रामा-धरणी की मौत कैसे और क्यों हुई उस पर अगले भाग-2 में चर्चा करेंगे फिलहाल मौलाराम तुंवर के ‘गढ़राजवंश काव्य’ के पर्ण 44 ब की इन दो पंक्तियों पर गौर फरमाएं :-
कुंवर पराक्रम तन्त्र कर रामा दियो मराय ।
धरणी लीन्यो पकरि कै सो बी दयो कटाय ॥ ‘
क्रमशः….
संदर्भ :- डॉ शिव प्रसाद डबराल ‘चारण’ की पुस्तक “गोरख्याणी”, मौलाराम तुंवर की पुस्तक गणिका व गढ़राजवंश काव्य, मियाँ प्रेमसिंह की पुस्तक – गुलदस्त तवारिख, उपाध्याय की पुस्तक नेपाल दिग्दर्शन, एशियाटिक रिसर्चस, सेलेक्शन फ्रॉम कलकत्ता -गजट, डॉ डबराल गढ़वाल का इतिहास खंड- 1, ढूंढीराज भंडारी की पुस्तक नेपाल को ऐतिहासिक विवेचना।