सीतावनस्यूं का फलस्वाड़ी गाँव …! जहाँ जगत-जननी सीता माता धरती में समाई थी! आज भी लगता है मंसार का मेला!
(मनोज इष्टवाल)
रामायण में एक प्रसंग आता है कि जब पुरुषोत्तम राम चन्द्र राजतिलक के बाद साधारण भेष में नगर भ्रमण पर निकले और उन्होंने एक धोबी के कहते सुना कि रावण के यहाँ रही सीता कहाँ से सति सावित्री हुई तब उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण से कहा कि वह सीता को अयोध्या से कहीं दूर छोड़ आये! विगत दिन जब हिमालय दिग्दर्शन की टीम को हिमालयी यात्रा के लिए प्रदेश के मुख्यमंत्री ने हरी झंडी दिखाई तब उन्होंने एक यात्रा सीता के समाधि स्थल फलस्वाडी गाँव की करने की बात भी कही! यादें तरोताजा हो गयी और बर्ष 1992 में दिल्ली दूरदर्शन के लिए बनाई अपनी वह डाकुमेंटरी फिल्म याद आ गयी जिसे मैंने मंसार मेले के दिन यहाँ आकर फिल्माया था!
फलस्वाडी गाँव के नीचे एक भव्य खेत में दूसरे दिन मेला जुटना था ! पहले दिन बबूल को ग्रामीण रस्सी बनाने में तब्दील कर रहे थे! यह कार्य इस खेत के निकट ही बनी सीता चौंरी में हो रहा था! कोटसाड़ा गाँव के साहित्यकार भजन सिंह “सिंह” जी से मुलाक़ात क्या हुई लगा सारे प्रश्नों का जवाब मिल गया! उन्होंने अंगुली से इशारा कर फलस्वाड़ी गाँव के दांयी तरफ गदेरे के पार बने गुम्बदनुमा मंदिर की ओर इशारा करते हुए बताया कि ये बाल्मीकि मंदिर है और इसका काल लगभग सातवीं सदी बताया जाता है! बातों बातों में हमें सौभाग्य मिला कि हम भजन सिंह “सिंह” जी के कोटसाड़ा गाँव जाकर उनके घर में कलेवे की रोटी खा सकें! मुझे आज भी याद हैं वे गुदगुदी गहथ की दाल की भरी ढबाडी रोटी व ताजा ताजा मक्खन साथ में पिंगली (पीलापन लिए ) भैंस के दूध की चाय!
मंसार मेला जुटा तो देखा ढोल दमाऊं के गाजे-बाजों के साथ कुछ लोग जडाऊ की सिंह से उस खेत को खोद रहे हैं ! मैंने तब भजन सिंह “सिंह” जी को पूछा था कि ये कुदाल या अन्य चीज से क्यों नहीं खोदते हैं और इसका प्रायोजन क्या है! तब उन्होंने बताया कि आज ही के दिन एक लोड़ी (नदी के आस पास पाया जाने वाला लिंगाकार पत्थर) इस खेत में प्रकट होता है ! कहा जाता है इसी दिन सीता माता इसी खेत में धरती में समाई थी! उस लोडी पर धातु टच न हो इसलिए उसकी तलाश जडाऊ के सींग से की जाती है क्योंकि इस से उस लोडी को कोई नुक्सान नहीं होने वाला!
खैर मेला प्रारम्भ हुआ लोडी हाथ लगते ही सैकड़ों की संख्या में उपस्थित लोकजन समूह है के बीच सीता मैय्या की जय के नारे बुलंद हुए लेकिन आश्चर्य यह था कि जय श्रीराम दबी-दबी आवाज में ही तब लोगों की जुबान से निकल रहा था! किंवदन्तियाँ हैं कि लक्ष्मण द्वारा देवप्रयाग में रघुनाथ मंदिर स्थापना के पश्चात माँ सीता ने इसी संगम में स्नान किया और अलकनंदा पार कर वन क्षेत्र में प्रविष्ट हुई! धर्मग्रन्थ कहते हैं कि त्रेता युग में रावण, कुम्भकरण का वध करने के पश्चात कुछ वर्ष अयोध्या में राज्य करके राम ब्रह्म हत्या के दोष निवारणार्थ सीता जी, लक्ष्मण जी सहित देवप्रयाग में अलकनन्दा भागीरथी के संगम पर तपस्या करने आये थे। इस संबध में केदारखण्ड में लिखा है कि:-
यत्र ने जान्हवीं साक्षादल कनदा समन्विता।
यत्र सम: स्वयं साक्षात्स सीतश्च सलक्ष्मण।।
सममनेन तीर्थेन भूतो न भविष्यति।
केदारखंड : अध्याय . १३९-३५-५५
जहां गंगा जी का अलकनन्दा से संगम हुआ है और सीता-लक्ष्मण सहित श्री रामचन्द्र जी निवास करते हैं। देवप्रयाग के उस तीर्थ के समान न तो कोई तीर्थ हुआ और न होगा। अर्थात यह प्रमाणिकता इस बिषय को पुख्ता करते हैं!
माँ सीता के भाव विह्वल वश लक्ष्मण जी ने जहाँ माता सीता को शांता के हवाले किया वह स्थान विदाकोटी कहलाया! जब विदाकोटि में शेषावतार लक्ष्मण ने सीता को छोड़ दिया तो उसके बाद शांता ने सीता का पीछा किया सीतासैण में थोड़ा धकान मिटाने के दौरान शांता और सीता का वार्तलाप हुआ लेकिन सीता ने शांता की बात नहीं मानी और आगे की यात्रा शुरू कर दी शांता भी फिर सीता माता के साथ आगे चल दी! क्षेत्रीय विधायक मुकेश कोहली बताते हैं कि यहाँ से माता सीता का अगला पड़ाव उनके गाँव मुछयाली हुआ जहाँ सीतासैण नामक स्थान अवस्थित है!
कहते हैं कि यहीं माँ सीता से ऋषि वाल्मीकि की भेंट हुई और गर्भवती सीता माता ने जहाँ लव को जन्म दिया वह स्थान फलस्वाड़ी कहलाया! जिसके कुछ ही दूरी में वाल्मीकि ऋषि रहा करते थे! यहाँ भी अलग अलग धारणाएं हैं कोई कहता है कि माता सीता जब धरती में समां रही थी तब शांता ने उनकी चुटिया पकड ली तो कोई इसे पुरषोत्तम राम से जोड़कर देखते हैं!
अब बाबड (बबूल) की मोटी रस्सी मैदान के बीचों-बीच उतर चुकी थी! दो धड़े बने और खींचतान शुरू हो गयी जो रस्सी खींच गया उसकी जीत मानी गयी! यह इत्तेफाक था कि तब कोटसाड़ा गाँव वाले जीते थे! सीता माता के प्रसाद के रूप में रस्सी की घास बांटी गयी! कहते हैं जो भी गाँव या क्षेत्र बाबड की रस्सी में विजय हासिल करता है उस साल वहां खूब खेती व धन’धान्य से सम्पन्नता रहती है!
जब लक्ष्मण माता सीता को तपोवन क्षेत्र में छोड़कर वापस अयोध्या लौट गए थे तब माता सीता ने जहाँ कुटी बनाई उसे पहले लोग सीता कुटी के नाम से जानते थे व अब सीतासैण के नाम से जाना जाता है! यहां के लोग कालान्तर में इस स्थान को छोड़कर यहां से काफी ऊपर जाकर बस गये और यहां के बावुलकर लोग सीता जी की मूर्ति को अपने गांव मुछियाली ले गये। वहां पर सीता जी का मंदिर बनाकर आज भी पूजा पाठ होता है। कुछ समय बाद सीता जी अपनी कुटी छोड़कर बाल्मीकि ऋर्षि के आश्रम आधुनिक कोट महादेव चली गई। जिसका उल्लेख कुछ यों मिलता है:-
पुनर्देवप्रयागे यत्रास्ते देव भूसुर:।
आहयो भगवान विष्णु राम-रूपतामक: स्वयम्।।
केदार. १५०-८०-८१
केदारखण्ड: अध्याय १५८-५४-५५ में भी दशरथात्मज रामचन्द्र जी का लक्ष्मण सहित देवप्रयाग आने का उल्लेख है।
अध्याय १६२-५० में भी रामचन्द्र जी के देवप्रयाग आने और विश्वेश्वर लिंग की स्थापना करने का उल्लेख है।
यह अपने आप में अनोखी बात है कि गढ़वाल राज्य निर्माण के बाद भी यहाँ के राजाओं के सामंतों के नाम अनेकोनेक पट्टियां हुई लेकिन माता सीता के नाम सीतावनस्यूं नामक पट्टी का नाम आदिकाल से अब तक चलता आ रहा है जो इसका पुष्ट प्रमाण है! जो लोग इस बात को भी पर्याप्त नहीं मानते उन्हें बता दें कि सीतावनस्यूं के मध्य कोट महादेव में तीन नदियों के संगम पर बाल्मीकि ऋषि का आश्रम था। जिसकी प्रतिमायें आज भी यहां के निकटम फलस्वाड़ी गांव में हैं। महाकवि तुलसीदास जी ने भी रघुवंश में वर्णित जिस तपोवन में सीता त्याग किया गया था उस तपोवन की भागीरथी तीर पर होने की पुष्टि की है। यही इसी बाल्मीकि आश्रम में सीता जी ने दो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया। जिनका नाम लव-कुश पड़ा। वहीँ केदारखण्ड के १५०-८७ और १४९-३५ में रामचन्द्र जी का सीता और लक्ष्मण जी सहित देवप्रयाग पधारने का वर्णन मिलता है।
इत्युक्ता भगवन्नाम तस्यो देवप्रयाग के।
लक्ष्मणेन सहभ्राता सीतयासह पार्वती।।
इस बात के भी पुष्ट प्रमाण हैं कि ब्राह्मण ह्त्या (रावण वध) का पाप धुलने के लिए देवप्रयाग से आगे श्रीनगर में रामचन्द्र जी द्वारा प्रतिदिन सहस्त्र कमल पुष्पों से कमलेश्वर महादेव जी की पूजा करने का वर्णन है।
राम भूत्वा महाभाग गतो देवप्रयागके।
विश्वेश्वरे शिवे स्थाप्य पूजियित्वा यथाविधि।।
यही वह क्षेत्र है जहाँ लव-कुश ने श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा पकड़कर बाँध लिया था और देवल नामक स्थान पर बने लक्ष्मण मंदिर को इस बात की प्रमाणिकता से जोड़कर देखा जाता है कि यहीं लव-कुश से युद्ध करते वक्त लक्ष्मण को मूर्छा आ गयी थी ! प्रमाणस्वरूप किंवदन्तियाँ हैं कि ये मंदिर हलके से तिरछे हो रखे हैं!
फलस्वाड़ी गाँव में सीता के धरती में समाने से सम्बन्धित जो कहानी सामने आती है वह यह है कि यहीं पर राजा राम के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को लव और कुश ने पकड़ लिया था और राजा राम की सेना को परास्त कर स्वंय राम को यहां आने के लिए विवश कर दिया था। जब राजा राम अपने घोड़े को छुड़ाने यहां आये तो लव और कुश उनसे काफी तर्क-वितर्क करने लगे। कहते हैं कि बात को बढ़ता देख सीता माता ने लव-कुश से कहा कि बेटा यही श्री राम हैं और ये तुम्हारे पिता हैं। सीता की बात सुनकर लव-कुश तो मान गये कि श्री राम हमारे पिता हैं। लेकिन श्री राम को फिर भी शंका हुई कि ये दोनो बालक मेरे ही पुत्र हैं। बाल्मीकि ऋर्षि के समझाने पर भी जब श्री राम को विश्वास नही हुआ तो श्री राम ने सीता माता को पुन: प्रमाण देने के लिए कहा। सीता माता ने धरती माता से विनती की कि हे… धरती माता मैं जिन्दगी भर मुसीबतों का सामना करते हुए अपने पतिव्रता धर्म को निभा रही हूँ आज तो मुझे राज महलों में होना चाहिए था लेकिन मैं तपोवन में इन श्री राम की धरोहर इन बच्चों का पालन पोषण कर रही हूँ। मैं जब रावण की कैद में थी तो तब श्री राम ने मेरे सतीत्व की अग्नि परीक्षा ली थी लेकिन आज फिर श्री राम को मुझपर विश्वास नही हो रहा है। इसलिए हे माता अब मेरे पास प्रमाण देने के सिवाय कुछ भी बाकी नहीं रह गया है। यदि मैं सच्ची पतिव्रता धर्म निभा रही हूँ तो अब आप मुझे अपनी गोद में ले लीजिये। बस फिर क्या था अचानक जोरदार आवाज के से साथ धरती फट गई और सीता माता खड़े-खड़े पृथ्वी में धंसने लगी रामचन्द्र जी ने सीता जी को ऊपर खींचने की कोशिश की लेकिन उनके हाथ सिर्फ सीता जी के बाल ही आये । तब से अब तक यहां पर सीता जी की मन इच्छा पूर्ति के कारण मनसार का मेला लगता है।
सितोनस्यूं पट्टी के कोट महादेव के पास जिस खेत में घटी थी वह कोटसाड़ा गांव का है । फलस्वाड़ी के भट्ट लोग इसके पुजारी हैं। यह मेला कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है खेत में एक गोल पत्थर ;लोड़ी तथा बाबड़ घास की 160 चोटियां बनाकर पूजा होती है बाद में बाबड़ घास को ही प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। क्योंकि राम के हाथों में सीता जी के बाल ही आये थे। अनेकों नर और नारी अपने मनोती के लिए इस मनसार मेले में आते हैं। यहां आज भी माता सीता कई लोगों की मनोती पूरी करती है। प्राप्त जानकारी के अनुसार वर्तमान में जहाँ माता सीता की चौंरी थी अब वहां मंदिर निर्माण हो गया है!