नंदाघुंटी, त्रिशूल और चरवाहे की भेड़।
(केशव भट्ट)
बेहद तीखी हवा जैसे इम्तेहान लेना चाहती थी. ज्योरागली पहुंचकर सामने पहली बार नंदाघुंटी और त्रिशूल के साक्षात दर्शन हुए. इससे पहले जब भी यहां आया, धुंध-कोहरे से ये नज़ारे छुपे हुए मिले थे. कुछेक जन नीचे से ही ज्योरागली को नमस्कार कर रूपकुंड के रहस्य को टटोलने में लगे थे, लेकिन बुजुर्ग परिहारजी के कदम जैसे थकने का नाम ही नहीं ले रहे थे और अपनी बिटिया आंचल के साथ ज्योरागली में आकर ही उन्होंने अपनी सांस थामी. आधे घंटे तक सभी प्रकृति के इस विलक्षण नजारे को दिल थाम कर देखते रहे. मन में कई विचार आ-जा रहे थे. ऐसा लगा कि जैसे यह शान्ति जो हम सब को थामे हुए है कहीं हाथ से निकल न जाय. इस अलौकिक शान्ति में इसे खोने का डर हमें अशांत कर देता है.
‘चलें अब….’ प्रदीप की आवाज से मैं अपनी चेतना में लौटा. टीम ने धीरे-धीरे रूपकुंड का पथरिला उतार, उतरना शुरू कर दिया.
रूपकुंड पर बंगाली ट्रेकरों का एक दल मिला जो नंदाघुंटी और त्रिशूल के मध्य से रॉंटी सेडल दर्रे के पार जा रहा था. उन्होंने अपनी बंगाली बीड़ी आगे बढ़ाई तो उस छोटी सी बीड़ी को देख मैंने उत्सुकतावश एक ले ही ली. मन भी था और खुद को समझाने के लिए यह जबाब भी कि इस उंचाई पर फेफड़ों की दुरुस्तगी भी परख ली जाय. उंचाई में वैसे भी सपने बेतरतीब उड़ान भरते हैं. बीड़ी पीते मैं फिर अपनी कल्पनाओं में डूब गया… हर कोई कहते फिरता है कि धूम्रपान से कुछ नहीं मिलता, तो फिर छोड़कर क्या मिलेगा?
बंगाली दल को शुभकामनाएं देकर हमने नीचे को उतरना शुरू किया. बगुवावासा पहुंचने तक ग्यारह बज चुके थे. दाल-चावल को पेट में धकेलने के बाद वापसी की तैयारियां शुरू हो गईं. टेंटों से दूर एक कोने में प्रदीप गुनगुनी धूप की चादर ओढ़कर धरती की गोद में चिपका हुआ दिखा.
आज का पड़ाव पाथर नचौनिया के नीचे पानी के स्रोत के पास था, जहां अणवालों का बसेरा था. सांझ होने तक सभी वहां पहुंच चुके थे, सिर्फ भू-वैज्ञानिक ‘दीपिका’ के अलावा. अंधेरा गहराने लगा था और सभी को दीपिका के न पहुंचने की चिंता सताने लगी. प्रदीप ने बताया कि पंकज उनके साथ है तो भरोसा हो गया कि यह अणवाल अपनी भेड़ को किसी न किसी तरीके से कैंप में ले ही आएगा. अंतत: अणवाल को अपनी भेड़ को सकुशल लाने में साढ़े आठ बज ही गए.
जारी…