कुमाऊँ में रणदेवी के रूप में माना जाता है नंदा का पौराणिक स्वरुप…! केले के पेड़ों से बनायी जाती हैं नंदा सुनंदा …।
(मनोज इष्टवाल)
गढ़वाल कुमाऊँ में भाद्रपद की अष्टमी को नंदा अष्टमी के रूप में बनाया जाता है ! नंदा अष्टमी में पूरे कुमाऊँ में नंदा माँ की अष्टमी के रूप में मेले आयोजित किये जाते हैं. नैनीताल में हो या अल्मोड़ा या फिर बागेश्वर कोट भ्रामरी में..! आजकल चारों ओर माँ की जैकार सुनाई देती है।
जहाँ विगत 18 सितम्बर2016 को नैनीताल नैना देवी मंदिर से ज्योली चोपड़ा गॉव माँ नंदा का केले वृक्ष (कदली वृक्ष) लेने बारात पहुंची वहीँ अल्मोड़ा से भी कदली वृक्ष लेने ढोल बाजों के साथ बारात निकलती है जो पल्यु बैंड (धौल चीना) से केला न्यौत (आमंत्रित ) कर लाते हैं और सुबह चंद वंशज राजाओं की उपस्थिति में पूरे अल्मोड़ा शहर में उसका भ्रमण होता है।माँ नंदा सुनन्दा की इसी कदली वृक्ष से मूर्तियाँ बनाकर प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। बागेश्वर गरुड़ में कोट-भ्रामरी में भी यही प्रक्रिया शुरू हो जायेगी।
नंदा का गढ़वाल से कुमाऊँ आगमन को किंवदंतियों से जोड़कर व इतिहास से जोड़कर देखा जाय तो कहा जाता है कि अल्मोड़ा के चंद वंशज राजा बाज-बहादुर चंद ने गढ़वाल का जूनागढ़ विजय कर रणदेवी के रूप में माँ नंदा को अपने साथ ले आये. इतिहासकारों का मानना है कि 1673 में बाज-बहादुर चंद ने जब जूनागढ़ पर विजयी हासिल की थी, तब वह माँ नंदा की मूर्ती अपने साथ ले आये और वापस लौटते समय बागेश्वर गरुड़ में विश्राम करते समय मूर्ती के दो टुकड़े हो गए । पंडितों-राजपुरोहितों के मतानुसार राजा ने पूजा अर्चना के बाद खंडित मूर्ती का एक हिस्सा कोटमाई नामक स्थान पर ही स्थापित कर दिया जिसे वर्तमान में कोट भ्रामरी नाम से पुकारा जाता है जबकि इसका दूसरा हिस्सा राजा बाजबहादुर चंद ने अपने महल में अपनी कुलदेवी गौरा के साथ स्थापित कर माँ नंदा को अपनी कुलदेवी सा सम्मान दिया। कहा जाता है कि राजपुरोहितों ने ही राजा को सलाह दी थी कि अब मा नंदा के दो स्वरूपों की पूजा हो एक नंदा तो दूसरी सुनन्दा…! राजा को राजपुरोहितों की बात जँची क्योंकि तब तक सारे कुमाऊं में इस बात का डंका बज चुका था कि राजा बाजबहादुर चन्द जूनागढ़ जीतने के बाद वहां की रणदेवी नन्दा के साथ अल्मोड़ा लौट रहे हैं। जनता में विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए ही कदली से माँ नंदा के दो स्वरूप बनाये गए ऐसा कुमाऊं की जनश्रुतियों में प्रचलित है।
1857 तक इसका पूजन चम्पावत के चंदवंशी राजाओं द्वारा किया जाता रहा है लेकिन चंद वंश के अंतिम राजा आनन्द सिंह के अविवाहित ही मौत हो जाने के बाद यह कार्य काशीपुर के चंदवंशी राजाओं द्वारा किया जाने लगा जो आज भी बदस्तूर जारी है। ये भी चंद वंशी राजाओं (शिबपाल सिंह) की ही शाखा मानी जाती है।
नन्दा के इस शक्ति रुप की पूजा गढ़वाल में करुली, कसोली, नरोना, हिंडोली, तल्ली दसोली, सिमली, तल्ली धूरी, नौटी, चांदपुर, गैड़लोहवा आदि स्थानों में होती है। गढ़वाल में राज जात यात्रा का आयोजन भी नन्दा के सम्मान में होता है।
कुमाऊँ में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पोंथिग, कपकोट तहसील, चिल्ठा, सरमूल आदि में नन्दा के मंदिर हैं। अनेक स्थानों पर नन्दा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं। नन्दाष्टमी को कोट की माई का मेला, माँ नन्दा भगवती मन्दिर पोथिंग (कपकोट) में नन्दा देवी मेला (जिसे पोथिंग का मेला के नाम से भी जानते हैं) और नैतीताल में नन्दादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नन्दादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है।
रण विजयी करने के बाद लौटे राजा बाजबहादुर चन्द जब माँ नंदा को लेकर आये तो कुमाऊँ भर में माँ नंदा को रण देवी के रूप में मानकर भी पूजा जाने लगा। और तभी से यहां नन्दा के स्वरूप को कई स्थानों पर रणदेवी के नाम से ही जाना जाने लगा है।