Sunday, June 1, 2025
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मेरा पहला प्यार..(फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय लाइफ).चौथा अध्याय..!

मेरा पहला प्यार..(फर्स्ट अफेयर ऑफ़ माय लाइफ).चौथा अध्याय..!

पिछले अंक के अंतिम में आपने पढ़ा – मैंने फिर अपने को कोसा..साले तेरा क्या जाता था ..थोड़ा और हंस लेती तो..कम से कम उसके हँसते मुखमंडल के साथ उसकी खिलखिलाई काया का वह रूप जिसमें यौवन का बसंत लहलहा रहा था उसके थोड़ी देर और दर्शन तो होते…!

गतांक से आगे…….

(मनोज इष्टवाल)

इसके बाद तो प्रेम सागर में लटकी बेल जो पेंग भरते ही नभ को छूने लगी थी! मैं महीने में दो सप्ताह जरुर उस गॉव किसी न किसी बहाने जाया करता और पनघट पर उसकी गागर की एक झलक देखने भर को बेताब रहता! जब तक गागर भरती उसकी नजरें उठकर या तो पनघट में पानी भर रही ग्रामीण महिलाओं अपनी सहेलिओं के साथ बात करने के लिए उठती या फिर गागर में ऊँचे धारे से गिर रहे जल-प्रपात के बिलाप की आवाजों में मगन रहती जो गागर में गिरते ही अपने स्वर बदल देता था, या फिर निगाह जमीन पर गढ़ जाती लेकिन मेरी खुशबू का आभास जाने कैसे उसके नथूनों तक पहुँच जाता था! मैं भी चोरी-छुपे बस उस पर नजर जमाये रहता था कि जाने कब उन आँखों का दीदार हो जाए, जिनमें मुझे मेरा ईश्वर दिखता है! फिर इतना संतोष रहता था कि जैसे ही गागर सिर तक उठेगी उसकी एक सरसरी नजर और बंद होंठों की मुस्कान मेरे दिल के चैन को जरुर आराम पहुंचाएगी…!

दिन महीने और अब साल गुजरने की नौबत आ गयी थी हमारी वार्षिक परीक्षा शुरू होने के लिए सिर्फ एक हफ्ता बचा था! मुझे डर यह भी था कि कहीं इस प्यार की कहानी से  मेरी परीक्षाओं में बाधा न आये और मैं उसकी यादों में कहीं अपना साल बर्वाद न कर दूँ क्योंकि सबका मुझ पर अटूट विश्वास था जिसे मैं कायम रखना भी चाहता था!  जब मेरे ताऊजी के मंझले बेटे जखेटी में अंग्रेजी के अध्यापक थे तब में छटी कक्षा का छात्र था! उससे पहले पांचवीं कक्षा तक पढाई के लिए जो फुटबाल मेरे ताऊजी के छोटे बेटे मेरा बनाया करते थे उसकी परिकल्पना ही करना बेकार है! मैं लाडला था, बचपन में नाक बहती रहती थी! नहलाने की बात आई तो घर से भाग जाता शाम तक लापता रहता था सर्दियों में हाथ-पैरों में इतना मैल जमा रहता कि फटकर उनसे खून बहता रहता था! बड़ी बहननें रोज मेरे लिए गर्म पानी करती और खाना खाने के बाद रात्री प्रहर में पकड में आ ही जाता था! अब भागूं भी तो भागूं कहाँ ? फिर गर्म पानी परात और दे पत्थर व झंगोरे के भूसे से मेरे हाथ-पैरों की सफाई व सफाई..! सच कहूँ तो तब ग्रामीण परिवेश में मुझे ही नहीं लगभग हर किसी को यह सब विरासत में मिला होता था क्योंकि वह हमारा ही समय था जब लोगों में शिक्षा के प्रति जागृति आनी शुरू हुई थी वरना उस से पहले के ग्रामीण नौकरी करना पाप समझते थे भले ही मेरे दादा जी तब देहरादून के राजपुर रोड थाने में अंग्रेजों के जमाने में दरोगा हुआ करते थे और दूसरे दादा जी मेरठ में पुलिस में ही हेड मुंशी ! इसलिए हमारे परिवार में दो चार आखर सभी पढ़े हुए थे.

 

उधर ताई जी दूध मठकर छान्च व मक्खन बनाती तो ताऊ जी के सबसे बड़े बेटे मक्खन की डली लेकर कहते कि अब इसके हाथ पैरों में मलो सुबह तक मुलायम रहेंगे. नित यही कर्म था लेकिन क्या सूअर मैले में जाना छोड़ दे वही मेरी आदत भी थी! सुबह से शाम धुमाचौकड़ी ! सिर मुंह पर मिट्टी ही मिट्टी, लेकिन जिस दिन मेरी दूसरे नम्बर की बहन के में हाथ पड जाता तो नहलाने से पहले कुटाई शुरू हो जाती थी! बस मैं शनिवार आते ही दुबक सा जाता था उस दिन सबसे छोटा भाई जो मेरा फ़ुटबाल बनाकर रखता था! वह तब मेसमोर इंटर कालेज पौड़ी में पढा करते थे. तब तक सबसे बड़े भाई पुलिस में भर्ती हो गए थे! मैं रोज भगवान् से प्रार्थना करता “ हे भगवान् व गाडी भ्याळ लमडी जन्यां ज्याम मेरु भैजी आणु हो…ऊ मुरियाँ न पर वेकु हत्त खुट्टू टूटी जयां.ज्यांन ऊ मी थैंन मरद..( हे भगवन वह उस गाडी का अक्सिडेंट हो जाए जिसमें मेरा भाई हो..वह मरे नहीं पर उसका हाथ पैर टूट जाए ..जिससे वह मुझे मारता है.) हा हा हा आज जब ये बचपन याद आता है तो आंसू आ जाते हैं! कितना निश्छल निष्कपट था वह समय! कभी लगा ही नहीं कि मेरी माँ अलग है और ताई जी अलग….! भाई दूसरे घर से हैं न कि सगे! तब कितना प्यार प्रेम था कह नहीं सकता! एक ककड़ी होती थी और खाने के लिए पूरा परिवार! जब तक कोई बहन सिलबटे में नमक पीसती तब तक सबसे बड़े भाई ककड़ी पर ठीक नाप के चीरे रखते थे और उनके बांटने से यह संतुष्टि रहती थी कि सबको बराबर ही मिला होगा! अक्सर यह तब हुआ करता था जब आँगन में मंडूवे या गेहूं जाऊ की धौऊँ (अन्न की बालों को लाठी डंडों से कूटना या फिर उनके ऊपर बैल घुमाना) हुआ करती थी वह आज भी बिलकुल वैसे हैं जैसे पहले थे! भले ही पैंसे और सुख संसाधनों ने अब गाँव छोड़कर शहरों में बसने को मजबूर कर दिया हो लेकिन उनके मन प्राण में आज भी गाँव बसा है और वही भाई चारा!  यह अब भी आभास नहीं होता कि हम अलग अलग पिता की संताने हैं लेकिन अब समझदार हो गए तो यह पता लग ही जाता है कि मेरे ताऊजी अलग पिता के पुत्र थे और मेरे चाचाजी और पिता जी अलग! सच कहूँ जिस दिन मुझे यह पता लगा तो बहुत बुरा लगा! आज जब परिदृश्य को बेहद सूक्ष्मता के साथ देखता हूँ तो पाता हूँ मेरे छोटे भाई की मार न खाई होती तो मुझ जैसा लाडला या बिगडैल कभी पढ़ भी पाता कि नहीं! खैर यह कहानी फिर दिशा भटक गयी इसलिए मुख्य बिषय पर आते हैं!
छठी कक्षा तक छोटे भाई की मार के प्रताप से मैं बहुत होशियार हो गया था मुझे अच्छे से याद है! मास्टर भाई छोटे भाई से कापी चेक कराते हुए कह रहे थे! देख हरीश इसने अंग्रेजी में एक भी प्रश्न का गलत उतर नहीं लिखा है! देख तो लेख भी सुंदर है!  जी निब का कमाल का इस्तेमाल किया है इसने! (तब छटी कक्षा में पहुँचने के बाद बांस की कलम से लिखना बंद हो जाता था और होल्डर निब हिंदी लिखने के लिए और जी निब से अंग्रेजी लिखी जाती थी) लेकिन ऐसे ही नैथाणी गुरूजी के लड़के राजेश ने भी किया है! दोनों ने एक का भी गलत उत्तर नहीं दिया है! छोटे भाई बोले- फिर आपने इसे 19/20 और राजेश को 20/20 क्यों दिए हैं जबकि उसने कापी में एक आध जगह कट-फट भी कर रखी है! तब मास्टर भाई बोले- कल कोई ये न बोले कि कापी मैंने चेक की इसलिए अपने भाई को फुल बट्टे फुल मार्क्स दे दिए! छोटे भाई बड़े भाई से झगड़ पड़े! बोले यह तो गलत है आपको ऐसा नहीं करना चाहिए! मैं तिमंजले पर चल रही यह वार्तालाप कुलण (मकान के पिछवाड़े की खिडकी) से कान लगाकर सुनता रहा और इसी बहाने बैल की भाँती धीरे धीरे सुसु भी कर रहा था ताकि वो ये न समझे कि मैं उनकी बातें सुन रहा हूँ! उस दिन मुझे लगा कि जब अपने पर आती है तो तब भले ही मुझे भी उतना ही बुरा लगा था कि आखिर भाई जी ने मुझे एक नम्बर कम क्यों दिया लेकिन आज जब समझदार हो गया तो लगा सच का सामना करने की कितनी मजबूरियाँ होती हैं! मास्टर भाई की वह सीख आज भी मेरे काम आती है! मैं पहले उस व्यक्ति को देखता हूँ जिसे मुझ से ज्यादा जरूरत होती है!

भावनाओं में बहकर आदमी कहाँ-कहाँ पहुँच जाता है ये देखिये न! कहाँ मैं बोर्ड परिक्षा की तैयारी की बात करने वाला था कहाँ घर पर केन्द्रित हो गया! मैं इस शनिवार को भी उसके गॉव की ओर जा पहुंचा क्योंकि अब पूरे महीने तक उसे देख पाना संभव नहीं था इसलिए साहस जुटाकर चला ही गया! देर रात्री तक पनघट में इसी आस से हमारी गप्पें लगती रही कि शायद आज मुलाक़ात हो ही जायेगी लेकिन ऐसा सौभाग्य नहीं मिला! रात मैंने जाग कर काटी आज मैंने सोच रखा था कि वर्ष भर के खुमार में डूबी एक चिट्ठी तो मैं उसे देकर ही रहूँगा! फिर रात जाने क्या दिमाग में आया जेब में रखी चिट्ठी जिसको लिखने के लिए  मैंने जाने कितनी रफ कापियां पहले फाड़ी होंगी! निकाली और उसे फाड़ दी! बड़े धीरे-धीरे से उसे फाड़ रहा था ताकि उसकी पड़पड़ाहट की आवाज दूसरे कमरे तक न पहुंचे!

सच कहूँ उस दिन मैं इस विरह मिलन की पीड़ा में खूब रोया भी! जाने वह क्या ज़माना था और क्या प्यार था! क्या ऐसा ही प्यार आज भी जीवित होगा? यह कह पाना शायद कठिन है! पुराने कपडों को भरकर बनाए गए तकिये ने उस दिन मेरे नमकीन आंसुओं का जमकर दोहन किया! अब मिलन की आस ख़त्म हो चुकी थी क्योंकि दूसरी सुबह हमें वापस मेरे गॉव निकलना था और उसके गाँव घर का रास्ता हमारे रास्ते से जुदा था!

भावनाओं के भंवर ने दूसरी सुबह मुंह लटका दिया था! मामी फूफू दीदी सभी बस एक ही सुर में कह रही थी पेपर ढंग से देना! ऐसा न हो नक़ल करो और रिस्टीकेशन हो जाए! उनकी बातों को एक कान सुन दूसरे कान से निकाल हम अपना रास्ता नापने लगे! जख्म से दिल इस कदर भरा हुआ लग रहा था कि दर्द भी परेशां होकर कह रहा था कि कहाँ से उठुं! अभी हमने गंगद्वार नदी पार ही की थी कि गाय बछियों की टोल हांकती कई हमजोली लडकियां रास्ते को घेरे चल रही थी! मैंने किसी पर गौर नहीं किया तब तक पीछे से एक गीत सुनाई दिया “धड़कने साँसे जवानी जिंदगानी आपकी.” मैं पलटा तो कोई नहीं दिखा मुझे क्यूँ लगा कि यह आवाज उसी की है! फिर गुस्सा भी आया कि आखिर मेरा यह फेवरेट गाना गा कौन रहा है!  मैंने लज्जू के साथ तेजी से कदम आगे बढाने शुरू कर दिए! काफी दूरी के बाद किसी लड़की ने लज्जू को पुकार कर कहा- जरा जग्वाल जा ..हम भी तथैंs ही आणा छवाँ…(जरा इन्तजार करो हम भी उधर ही आ रहे हैं) लज्जू ने पलटकर मुझे प्रश्नवाचक निगाह से देखा क्योंकि सेहत में वह मुझसे मोटा जरुर था लेकिन उसके कदम हमेशा रास्ते भर मुझसे आगे रहते थे! हम गंगद्वार नदी पार एक बड़े से चट्टाननुमा पत्थर पर बैठ गए पीपल के पेड़ के नीचे से न कोई गॉव ही दीखता था न बाट बटोही! सभी लड़कियों के हाथ में जूडी पैलुड़ी (रस्सी) और दरांती थी किसी-किसी के पास चदरी भी! मैंने वह चदरी पहचान ली जिससे फटा कोना मेरे कटे हाथ की हिफाजत को आगे बढा था अब मुझे पूरा विश्वास हो गया था कि वह भी यहीं कहीं है जिसने आवाज दी वही लड़की आकर लज्जू से बोली- तिन भी सूणी ही ऐ होलु कि ब्याली ? (लकड़ी का नाम) का मंगदरा अन्य्याँ छय ..क्य कन नौनी जनि जवान हुंदा ..वीं थैं ब्वे बाब झणी क्यो पराया समझण लगदंन ,,(तुमने भी सुना कल उसकी मंगनी के लिए लड़के वाले आये थे ..क्या करें लड़की जैसे ही जवान होती है..उसके माँ बाप उसे जाने क्यूँ पराया समझने लगते हैं.) वह बोल जरुर लज्जू से रही थी लेकिन उसकी निगाह सिर्फ मुझ पर ही गढ़ी हुई थी उसकी निगाह मुझ पर ऐसे चुभ रही थी जैसे कोई सबल से वार कर रहा हो और उसके मुंह से निकले एक एक शब्द मेरे कान में गर्म लोहे की तरह लग रहे थे! बस फिर क्या था मुझे लगा मेरी दुनिया लुट गयी! दो साल ऐसे गुजरे थे जैसे कल की बात हो! ऐसा प्यार कि हम बात तक नहीं कर पाए और वह किसी और का होने जा रही है!

वह फिर लज्जू से बोली- तू कुछ नि ब्वनी छई क्य बात! (तू कुछ नहीं बोल रहा है क्या बात) लज्जू ने अभी बोलने के लिए मुंह खोला ही था कि वही बोल पड़ी- अब करे भी क्य जा ! नौनी अपणा गिच्चल त कुछ बोली नि सकदी..! व्ह़ा तब वींका ब्वे-बुबा कि जनि मिरजी हो! (अब करें भी तो क्या करें, लडकी अपने मुंह से कुछ बोल तो सकती नहीं है. जैसे उसके माँ बाप की मर्जी) वह अभी और कुछ बोलने ही वाली थी उसके मुन्ह से ये शब्द पूरे भी नहीं हुए थे कि पीछे से तूंगे (लकड़ी) कि पतली सी डंडी उसकी पीठ पर पड़ी जिससे गाय हांकते हैं..और हँसते हुए आवाज आई- “ हे रांडे छोरी कन कमर टूटी तेरु झूठ न बोल हो! बुन्दै भैजी य झूठ बोनी छ..( गाली देकर कैसी कमर टूटी तेरी.झूठ मत बोल ..भाई जी ये झूठ बोल रही है) अब तक उसके पीछे से वह प्रकट हो चुकी थी जिसने सारी रात जगाया सारी रात रुलाया! फिर हमारी नजरें क्या मिली कि लगा दोनों जहां मिल गए!
लेकिन स्थिति पूर्वत थी! दोनों की ही जुबाँ गूंगी..! जबकि उसकी सहेली की चहकती आवाज सुनाई दे रही थी – तू तो कल कह रही थी कि कल मैं ये बोलूंगी वो बोलूंगी! आज क्या हुआ! वह निराश मन से फिर लज्जू से बोली- नहीं भैजी इसका दिमाग खराब हो गया है जाने क्या क्या बक रही है! मैं तो इसे ये बोल रही कि आपके इनके पेपर भी नजदीक हैं आपको पढाई पर ज्यादा ध्यान लगाना चाहिए! हर माँ बाप का अपने बच्चों के बोर्ड इम्तहान पर ही ध्यान रहता है, इसलिए आप लोगों को अब घूमना बंद कर देना चाहिए और पढाई देखनी चाहिए उन्हें बड़ी ख़ुशी होगी! लज्जू जवाब में कुछ बोलता मैंने लज्जू से पूछा- लज्जू उन्हें किन्हें ख़ुशी होगी? और उसके चेहरे पर आँखे गढा दी..! पलकें तेजी से उठी होंठ फडफड़ाये भी लेकिन बोल नहीं फूटा! चेहरा लाल हो गया कान तक उसकी सुर्खी देखी जा सकती थी! थोड़ी देर उपदेश चलते रहे फिर जैसे ही मेरे मुंह से यह निकला- चल यार अब देर हो गयी है! वैसे भी इन दो महीने तक हमें न कहीं जाना है न किसी को याद करना है! बस एकाग्र होकर अपनी पढाई करनी है..ताकि मैं जल्दी से जल्दी नौकरी लग सकूँ और……?
मेरा यह कहना क्या था कि एक सिसकारी सी उभरी! उसकी आँखों से टप-टप आंसू टपक पड़े! तब तक उसकी सहेली बोल पड़ी – अरे त्वे क्य व्हे! यु क्याच यार (अरे…. तुझे क्या हुआ? ये क्या है यार!) अभी उसकी बात पूरी भी नहीं हुई कि वह सुबकाई लेती हुई तेजी से वह उधर दौड़ पड़ी जहाँ और लडकियां गाय-बैल लेकर गयी थी! आह…सचमुच यह बिछोह की वेदना का वह समन्दर था जो गंगद्वार नदी के मुआने से बहता हुआ मानों तेजी से खरगढ़ नदी में मिलने जा रहा हो!

हम किंकर्तव्य बिमूड होकर कुछ देर खामोश रहे! तब तक वह काफी दूर निकल चुकी थी उसकी सहेली को भी कुछ नहीं सूझा और वह भी उसके पीछे लपक पड़ी! सच में मन इतना भारी था कि हम रास्ते भर यूँही चलते रहे जैसे अनजान हों! मैं जाने कहाँ किन ख्यालों में उलझा हुआ था चेहरे की ग्लानि व बिछोह के भाव मुख मुद्रा में झलक रही थी! मैं सोच रहा था आखिर मुझे यह सब कहने की जरुरत ही क्या थी! हम खरगड़ नदी पार पहुंचे तो दूर नजर दौडाई लज्जू ने सीटी बजाई तो उधर से भी सीटी की आवाज आई! उस दिन मुझे पहली बार लगा कि लडकियां भी सीटी बजाने में एक्सपर्ट होती हैं! मैंने अपनी शर्ट उतारकर लहराई! फिर तो उस ओर से जाने कितनी देर तक चुन्नी चदरी हिलती रही और तब तक बदस्तूर हिलती रही जब तक हम ओझल नहीं हो गए….! (contd..5)

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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