(डॉ अरुण कुकसाल की कलम से)
‘बेटा अपणि जल्ड़ियों थैं नि बिसरि। अगनै बढ़िल्यो त जलड़ि याद रैख्यी, ऊं थैं खूब पंगेरै। (बेटा, अपनी सांस्कृतिक जड़ों को कभी न भूलना। जीवन में सफलता मिलने के साथ-साथ उन्हें याद रखते हुए खूब परिष्कृत करना।)’
जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण ने पिता (स्वर्गीय हेम भरतवाण) की उक्त सीख को जीवन का मूल मंत्र माना है। तभी तो देश-दुनिया में अपनी गौरवशाली विरासत को सजाते-संवारते हुए बेहद सादगी से जीवन में नित्य नई ऊंचाइयों को वे हासिल करते जा रहे हैं।
हमारी पीढ़ी इस मायने में सौभाग्यशाली है कि नरेन्द्र सिंह नेगी जी और प्रीतम भरतवाण जी का सानिध्य हमें मिला है। उत्तराखंड हिमालय की लोक संस्कृति एवं साहित्य के क्षेत्र में ये नाम हर एक के दिलों में राज करते हैं। नेगीजी ने जहां उत्तराखंडी जनजीवन के जीवन संघर्षो को अपने गीतों की धार बनाया वहीं भरतवाण जी ने हमारे गौरवशाली अतीत को अपने पवाड़ों और जागरों के माध्यम से जीवंत किया है।
वास्तव में गढ़वाली सांस्कृतिक पहचान के ‘राम’ नरेन्द्र सिंह नेगी हैं तो ‘लक्ष्मण’ प्रीतम भरतवाण हैं।
बचपन से ही गढ़वाली लोकगीत, पवाड़ा और जागर के दीवाने प्रीतम भरतवाण सामाजिक विषमता और आर्थिक अभावों पर विजय पाते हुए जीवन-पथ पर आगे बढ़े हैं। बचपन में शाबासी में मिली हारमोनियम और हुड़के ने उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को निखारने में मदद की थी। उनकी गाने के प्रति ललक तो देखिए, मात्र 12 साल की उमर में स्वरचित गीतों की कैसेट निकालने की जिद्द पिताजी से कर बैठे। पिताजी ने भी बेटे का मन नहीं तोड़ा और चल दिए दिल्ली कैसेट बनवाने। प्रीतम की बाली उमर थी, समझा-बुझा के वापस तो आये पर लोकसंगीत के प्रति अपने लगाव को कम नहीं होने दिया। प्रीतम ने सन् 1988 से आकाशवाणी से गाना शुरू किया था। पहली कैसेट ‘रंगीली बौजि’ सन् 1993 में बाजार में आई उसके बाद ‘तौसा बौ’ से एक उभरते गायक की उनकी पहचान बनने लगी थी। तब तक उनकी पारिवारिक गरीबी का यह आलम था कि अपनी तीसरी कैसेट ‘टक्क’ के आने के बाद ही वे अपना टेपरिकार्डर खरीद पाये थे।
प्रीतम भरतवाण आज सफलता की बुलंदियों पर हैं। उनका सरल और सहज व्यक्तिव उनके कृतित्व को और भी आर्कषक बना देता है।
उनकी माता जी (श्रीमती पूर्णा देवी) का यह कथन ‘क्वी उच्छाद नि करि म्यरांऽन (मेरे बच्चे ने कभी कोई शैतानी नहीं की)’ प्रीतम भरतवाणजी की सौम्यता की मनभावक अभिव्यक्ति है। प्रीतमजी की धर्मपत्नी श्रीमती रसना भरतवाण उनकी सौम्यता और लगन को जीवन की अमूल्य पूंजी मानती हैं।
प्रीतम भरतवाण के परम मित्र और मार्गदर्शी गजेन्द्र नौटियाल उनकी लगन और मेहनत के कायल हैं। मेरे लिए ‘हिमालय की लोकदेवी झालीमाली’ पुस्तक के लेखन में उनका मार्गदर्शी और आत्मीय सहयोग मिलना परम खुशी बात है।