रणजोर रौत व मोरु रौत की गाथाओं में कोटी-बनाल की मकरसंक्रांति व पंचपुरा भवन।
(मनोज इष्टवाल)
कोइके सूणी जंगू ले, कोइके सूणी गीतां ले,
मामा मोर सिंगा ले, कोइके सूणी गीतां ले।
बीत गो फागुण ले, आई गोई चैता ऋतु ले,
मामा मोर सिंगा ले, आई गोई चैता ऋतु ले।।
ये गीत अक्सर जमुना-तमसा घाटी हो या फिर रूपिन-सूपिन घाटी..! दोनों ही क्षेत्रों अर्थात जौनसार बावर, रवाई-जौनपुर व पर्वत क्षेत्र अर्थात चाईशिल से भराडसर- देवक्यार- हर की दून- केदारकांठा-नीलकंठ-काला पीक-राड़ी- नागटिब्बा- बैराठगढ़-ठाणा डांडा- देवबन-बुधेर से लेकर हिमाचल के फते पर्वत से लेकर रोहड़ू क्षेत्र की उतुंग शिखरों तक गुंजायमान होता है। आखिर ये मामा मोर सिंह था कौन..! क्या यह मौरु रौत था जिसका यह चौपुरा भवन उत्तराखण्ड से लेकर हिमाचल क्षेत्र तक प्रसिद्ध था?
यह ज्यादा पुराना काल तो नहीं लेकिन गोरखा काल यानि लगभग 217 बर्ष पहले की बात है जब रणजोर सिंह रावत का नाम तेजी से उबरा था। गोरखा काल के बाद 1815 में श्रीनगर से गढ़वाल नरेश द्वारा टिहरी राजधानी स्थापित करने के बाद लगान, चुगान व टैक्सों की भरमार कर दी। सबसे ज्यादा लगान वसूली में यमुना घाटी का रवाईं क्षेत्र भी रहा। इसी दौरान खबरियों की सूचना से राजा टिहरी को जानकारी मिली कि कोटि-बनाल के रणजोर ने अपने पुराने आवासीय आवास को छपुरा या पंचपुरा शैली में बनाने का बीड़ा उठाया है। यह खबर राजा के राजगढ़ी प्रवास के दौरान किसी चाटुकार द्वारा दी गई। फिर क्या था रहज दरबार से फरमान जारी हुआ व रणजोर रौत पर मुकदमा दर्ज हो गया।
रणजोर रौत के वंशज अपने को कुरु कश्मीर से आया बताते हैं व ये लोग साठी-पांशाई दो खूंदों में से एक के सिरमौर कहलाने लगे। इनकी ऐंठ ऐसी रही कि ये ऐरे-गैरे राजपूतों से सम्बन्ध जोड़ने में अपना अपमान समझते थे।
यमुना घाटी का चौखट शैली का यह पंचपुरा भवन आज भी कोटी के राजपूतों के इतिहास में चार चांद लगाता है क्योंकि यह मुकदमा अकेले रणजोर सिंह ने नहीं लड़ा बल्कि उनके वंशज मोर सिंह तक यह मुकदमा जारी रहा।
उत्तरकाशी जिले की पट्टी बनाल के कोटी गांव निवासी दिनेश रावत का ही यह पंचपुरा चौखट शैली का भवन है। वे अपने को कुरु कश्मीर से आया बताते हैं व कहते हैं कि उनके पूर्वज सपरिवार यमनोत्री दर्शन को आये थे तब प्रसूता महिला का गंगनानी में प्रसव होने के कारण हम गंगाण रावत कहलाये लेकिन वह इस बात से संतुष्ट नहीं हैं क्योंकि उनका मानना है कि वे उच्च कोटि के राजपूतों में अपने को शुमार पाते हैं व कुरु कश्मीर से आया बताते हैं। यहां मेरा मानना है कि वे गंग़ा घाटी के उच्च कुलीन राजपूत हो सकते हैं जो पौड़ी गढ़वाल के गंगा घाटी क्षेत्र या टिहरी गढ़वाल के गंगा घाटी में से किसी एक से आकर यहां बसे हैं।
दिनेश रावत बताते हैं कि राजशाही के दौर में रवाँई क्षेत्र के बनाल पट्टी अन्तर्गत अवस्थित कोटी ग्राम निवासी रावतों को थोकदारी के अधिकार प्राप्त थे। कोटी ने ही राजशाही को रणजोर सिंह व मोर सिंह जैसे थोकदार दिये, जिनकी गाथाएं लोक में आज भी जीवंत बनी हुई हैं जैसे-
“आगाई देवा की देलटुढी़, पाछाई ब्रह्मा की मढी़।
तेरऽ पगड्या रणजोर सिंहंगा, डख्याट बांधों तीर।।”
दिनेश रावत कहते हैं कि गाँव को बसाने के लिए भूमि चयन भी लाजवाब! गाँव के चारों ओर जयेडी़, बस्टाडी़, गटेडी़ तथा पिऊनियाँ में स्वच्छ पेयजल के प्राकृतिक स्रोत, बादल बरसे या जमीन धंसे, किसी को भी कोई भी खतरा नहीं।
समाजिक सद्भावना ऐसी कि गाँव में रावतों के अतिरिक्त कुम्हार के “चाक” लोहार की “अनसाल” बढा़ई का निवास और गाँव से कुछ दूरी पर बसे गैर में पुरोहित पडि़तों का निवास जो आज भी प्रति माह संक्राति की भोर में ग्राम वासियों के घरों में धुपियाना लेकर पहुँच जाते हैं और अपने दायित्वों का सफलता पूर्वक निर्वाहन करते हुए “जजमानी प्रथा” को यथावत जी रहे हैं।
कोटी गांव के ग्रामवासी हर बर्ष सक्रांति को अपने कुल पुरोहितों को परम्परानुसार चावल व दक्षिणा भेंट करते हैं। ठीक ऐसा ही झुमराडा़ में निवास करने वाले बाजगी लोग भी, अपने वाद्य यंत्रों को उठाकर जिम्मेदारी के साथ प्रति त्यौहार बढा़ई बजाने पहुँच जाते हैं। इष्ट देव के पुजारी भी ससमय इष्ट की नियमित पूजा, अर्चना करते रहते हैं और वर्ष भर में फसलों के आने पर परम्परानुसार “खलतू” लेने पहुँच जाते हैं। पुजेली में रघुनाथजी के पुजारियों के अतिरिक्त बेढा़ परिवार भी निवास करते हैं, जो वर्षों तक इष्टदेव रघुनाथ जी के साथ देव यात्रा में शामिल होकर नृत्य- अभिनय कर लोगों का मनोरंजन करते थे। शादी-विवाह में भी इनकी उपस्थिति अरग ही रंग खोरती थी और चैत मास में कोटी में ये लोग भी फेरा देने पहुँच जाते थे। चैत के फेरे में चैती गाथा का अलग ही महत्व होता है।
पत्रकार प्रदीप रावत रवांल्टा कहते हैं उनके क्षेत्र में अनेकता में एकता समाहित है। अब चाहे गैर-बनाल में जुटने वाला देवलांग मेला हो जिसमें साठी-पांशाई (कौरव-पांडव) दो खूंदों का मेला जुटता है व देवलांग जलाते समय संघर्ष की कई घटनाएं रही हो लेकिन कभी भी आपसी भाई चारे में अंतर नहीं आया।
दिनेश रावत मानते हैं कि एक ही गाँव में अलग- अलग व्यावसायिक लोगों की मौजूदगी और सुख-दुःख के हर मौके पर एक-दूसरे के पूरक बनकर किसी व्यक्ति या परिवार विशेष के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख बना लेना लोगों की विशिष्टता है। गाँव में कोई साधु, सन्यासी आये तो उन्हें भी रहने में किसी प्रकार की असुविधा या असहजता न हो इसके लिए गाँव के एक छोर पर बनी कुटिया ग्रामवासियों की दूरदर्शिता को उद्घाटित करती दिखती है……गाँव के ही पाँच मंजिल जमीं के ऊपर और एक जमीन के अंदर यानि छः मंजिलें चौकट की देहरी पर बैठ कर कुछ ऐसा ही सोच रहा था।।शैलेन्द्र गोदियाल पत्रकार दैनिक जागरण इन चौखट भवनों के निर्माण के बारे में लिखते हैं- पुरातत्वविदों, भूकंप विज्ञानियों, यांत्रिक इंजीनियरों और इतिहासकारों के सर्वे में इन भवनों का निर्माण काल 350 वर्ष से लेकर 400 वर्ष पूर्व तक आंका गया। वैज्ञानिक भी हैरत में हैं कि आखिर साधनविहीन उस कालखंड में लोगों ने इतने मजबूत निर्माण कैसे किए होंगे।
इन गांवों में हैं अधिक पुराने भवन।
रैथल, झाला, बनगांव, कोटी बनाल, कोटी ठकराल, गौना, गौल, धराली, सुनारगांव, बलाड़ी, पुरोला, खलाड़ी, जखोल, लिवाड़ी, फिताड़ी, ढाटमीर, दोणी, सर, पौंटी, सरनौल, डिंगाड़ी आदि।
हैरत की बात यह है कि उपरोक्त गांवों में इस शैली के भवन तो हैं लेकिन इतना सुंदर तरीके से सजा हुआ भवन कम ही दिखने को मिलता है जितना रणजोर सिंह व मोर सिंह का यह भवन दिखाई देता है।
बहरहाल मकर संक्रांति के पर्व को यहां के पौराणिक पर्वों में से एक गिना जाता है तो स्वाभाविक सी बात है कि कुरु कश्मीर क्षेत्र से यहां बसे रणजोर सिंह व मोरू रौत यह पर्व अपने साथ लेकर आये होंगे। इसका तात्पर्य यह हुआ कि मकर संक्रांति कुरु कश्मीर क्या पूरे हिमालयी क्षेत्र में लगभग एक जैसी ही मनाई जाती है। परम्पराओं के चलन में आज खिचडिया त्यौहार भी मनाया जाता है। इस रोज राजपूत अपने कुल पुरोहितों को दक्षिणा व कोरी खिचड़ी देते थे जबकि बाजगी समाज पंचायती चौक में नौबत्त बजाकर खिचड़ी मांगने घर घर जाया करते थे। मकरैणी स्नान को पहाड़ों में बड़ा पवित्र माना जाता है।