(मनोज इष्टवाल 13 अक्टूबर 1995-96)
कानों में आवाज पड़ी- हे बुबा..उठ लेदी ! एक दांवें चा ठंडी व्हेग्या! मिल ज़रा पन्द्यर भी जाण..! बिजां काम छन…! ली चा पी (हे बेटे..उठ जा! एक बार की चाय ठंडी हो गयी! मैंने पनघट भी जाना है! बहुत काम पड़े हैं! ले चाय पी)! मैं हडबडाकर उठ बैठा तो देखा- माता जी चाय का गिलास लेकर खड़ी हैं! मेरे पूरे शरीर पर पसीना देख कर बोली- तबियत तो ठीक है न ! कहीं बुखार तो नहीं..! इतना पसीना क्यों आया है! मैंने मुस्कराकर चाय का गिलास थामा और बोला- नहीं, मुझे सोये में अक्सर ऐसा ही होता है! माता जी चली गयी तो चाय पीते पीते ईश्वर का धन्यवाद दिया कि शुक्र है वैसा कुछ नहीं हुआ जो मैं देख रहा था! अब मुझे विश्वास हो गया था कि वह सब एक सपना व मन का वहम था!
गतांग से आगे….
दिन शुक्रवार समय 9:48 बजे प्रातकाल ! मेरा अगला लक्ष्य ईड़ा गाँव में बिल्कुल सामने नयार पार बयेली गाँव था! जहाँ गढ़वाल के वीर भड भौं रिखोला व उनका पुत्र लोधी रिखोला पैदा हुआ था! वही लोधी रिखोला जो दिल्ली दरबार उखाड़कर श्रीनगर ले आया था! वही लोधी रिखोला जिसने गढवाल राज्य विस्तार की सीमाएं कुमाऊं से लेकर द्वापा तिब्बत तक व हिमाचल प्रदेश के फ़तेपर्वत से लेकर हाटकोटी व नजीबाबाद से सहारनपुर तक फैला दी थी! जिसके नाम से ही दुश्मन की पेशाब निकल जाती थी! जिसने सिरमौर राजा की पुत्री से विवाह कर उसे जौनसार स्थित विराट गढ़ के किले में रखा और जिसे जलन व द्वेष भावना से गढ़वाल के राजा के सेनापतियों सलाहाकारों ने बहुत ही चालाकी से गड्डे में धकेलकर बिषधर बर्छियों से गुदवाकर मरवा दिया ! जिसकी माँ के दूध की धार ने तव्वे पर छेद कर दिया व जिस माँ के श्राप से फिर कोई भड गढ़ धरा पर जन्म नहीं ले पाया!
मैं असमंजस में था क्योंकि मुझे रास्ता चुनना था कि कैसे नयार पार जाऊं! जेब टटोली तो कंगाली जेब से ही हंस पड़ी! मात्र चंद कागजी नोट थे, जो सतपुली होकर सडक मार्ग से बयेली पहुँचता तो जाने का किराया ही होता! अब मेरे पास विकल्प के तीन रास्ते सामने थे! पहला ईड़ा पीपलडाली (डांग्यूँधार) से सोरणी कु बबल्या, दूसरा सीला-कबरा गाँव से रियोठा होकर बयेलीघाट व तीसरा रीठाखाल से होकर कुलासू, कांडे, घेरुआ, दुधारखाल, (कंडया, बबीन) क्वाटा होकर बयेली! (नोट – पहला व दूसरा मार्ग ठेठ घसियारी मार्ग हुआ इससे जाना बेहद रिस्की था साथ ही भालू व जंगली जानवरों का डर भी! इसके बारे में भूल गया था अत: समाजसेवी संजय नौडियाल (कबरा) व ईड़ा के वाईएस नेगी जी से दूरभाष पर जानकारी प्राप्त की, नाट्यकर्मी वसुंधरा नेगी ने भी सोरणीकु बबल्या का फोटो खींचकर मुझे भेजी उनका भी धन्यवाद)
अब स्थिति परिस्थिति का अनुमान लगाया अपना झोला लटकाया और तल्ला ईडा की थोकदाराइन माता जी से हाथ जोडकर विदा ली! दुःख भी था कि मैं कितना लाचार हूँ माता जी के हाथ में कुछ रूपये पैंसे भी नहीं रख सका! खेतों को लांघता हुआ में सीला गाँव के गदेरे के पास सड़क में उतरा व वहां से सड़क-सडक कबरा होते हुए रीठाखाल! जहाँ पाली गाँव के अध्यापक (प्रधानाचार्य) नैथानी जी मिले जिन्होंने चाय पिलाई व उनसे विदा लेकर मैं कुर्ख्याल गाँव होता हुआ पैदल मार्ग से जंगल के रास्ते नीचे नयार में कुलासू गाँव के पास उतरा! बिलकुल नदी किनारे कुलासू गाँव में केलों के बागीचे देख मन प्रसन्न हुआ! यहाँ एक सज्जन सेलु से रस्सी बना रहे थे! उनसे जय राम जी की हुई तो उन्होंने मुझे आने का मनतब्य पूछा! इस दौरान लोटे में छाछ आ गयी थी जिसे मैं एक ही सांस में गटक गया! थोड़ा आराम किया और उन्हें बताया कि मुझे लोधी रिखोला के गाँव जाना है! वो बोले- लोधी तो नहीं जानता लेकिन रिखोला तो क्वाठा व बयेली, मोलखंडी रहते हैं! वहां कसके घर जाना है! मैं बोला- बयेली जाना है लेकिन मुझे नहीं पता वहां कौन मुझे मिलेगा! क्योंकि मैं किसी का नाम नहीं जानता! अब तक पीतल के गिलास में शानदार गाड़े दूध की चाय आ गयी थी जो हल्का पीला रंग लिए थी! उन्होंने कहा- अब आप यहाँ से भोजन करके ही जाना! पहले तो यहीं रुको कल आराम से चले जाना! आप पंडित जी हुए तो आपको भात तो हम खिला नहीं सकते आपको रोटी नमक जो बन पायेगा खिलाकर ही यहाँ से भेजेंगे!
भले ही सर्दियां अब शुरू हो चुकी थी और धूप भी खुशनुमा लगने लगी थी लेकिन दो बजे दोपहर इतनी तेज धूप थी कि नयार किनारे कुलासू गाँव में मैं पसीने से तर्र-बत्तर हो गया! अब सज्जन हुक्का गुडगुडा रहे थे! कुछ ही देर में उनकी पुत्री या बहु ने खाना खाने के लिए आवाज दी और मेरी थाली सज गयी! जिसमें गोल मूले की सब्जी, रायता, नौण (ताजा मक्खन), तौर की दाल, व शानदार गुदगुदी दो मोटी रोटियाँ! अहा..रंगत आ गयी! मैंने मन से गृह लक्ष्मी का धन्यवाद किया! मैं दुखी हूँ कि उन सज्जन का नाम याद नहीं आ रहा है! उन्होंने कहा- अभी तेज धूप है एक घंटा आराम कीजिये क्योंकि अभी कीड़पिट्गा (सांप वगैरह) का डर बना रहता है! मैंने भी यही उचित समझा व लगभग सवा घंटा फसरकर सो गया!
लगभग पौने चार बजे मैं यहाँ से चल पड़ा! हृदय में यह प्रसन्नता थी कि ईश्वर ने कुछ भले कर्म मेरे खाते में लिखे हैं क्योंकि जहाँ भी जाता हूँ बड़े आदर के साथ भोजन व रात्रि बिश्राम की जगह मिल जाती है! ऐसे में माँ याद हो आई! वह भी तो राह चलते किसी भी अनजान व्यक्ति को बोल दिया करती थी- बैठो, पानी पियो! चाय पीकर जाना! खाने का समय हो तो बिना खाए न जाने देना..! तब लगता था माँ जो करती है वह बदले में औलादों को अवश्य मिलता है!
अब मैं कांडे गाँव पहुँच गया था! बहुत बड़ा गाँव..! यहाँ किसी घिल्डियाल जाति के व्यक्ति से मैंने पानी माँगा उन्होंने पानी पिलाया और मेरे आने का मकसद पूछा- उन्हे भी वही सब बताया थोड़ा आगे बड़ा तो एक दूकान में कुछ लोग खड़े थे! उन्होंने भी मुझे आदर भाव दिया व पूछा कि क्या फलां व्यक्ति ने आपसे कुछ पूछा या आप से कोई शिकायत की! आप किस विभाग के हैं! मेरे जबाब से संतुष्ट हुए तो मैं आगे बड़ा यही बात आगे भी दोहराई गयी! मतलब गाँव पार करते करते मुझे लगभग आठ लोगों के सवाल जबाब के उत्तर देने पड़े आखिर मैंने तंग आकर एक सज्जन से पूछा- कि यह सब क्यों पूछा जा रहा है? वह बोले- आप नाराज न होओ! यहाँ आपसी कलह के चलते यह सब चलता ही रहता है! मैं सतुष्ट भाव से आगे बढ़ा और दुधारखाल जा पहुंचा! जहाँ सडक के आखिरी छोर पर एक बस खड़ी थी व उसके उपर एक होटलनुमा दूकान थी! वहां से पता किया तो पता चला सामने घेरुआ गाँव है! मैंने देखा शाम ढलने वाली है और बयेली अभी दूर है क्यों न यहीं ग्राम प्रधान के घर आराम फरमाया जाय!
यह भी अजब संयोग हुआ कि जिस नवविवाहिता से मैंने प्रधान जी का घर पूछा वह उन्हीं की बहु थी! वह घर के नीचे पनघट से पानी लेने आई थी! बाद में जानकारी मिली कि वह भुली हमारे रिंगवाड़स्यूं के चमाली गाँव के पदान ध्यान सिंह रावत जी की बेटी थी! इस भुली का नाम बीना है व इसकी छोटी बहन संगीता हुई! यह भी अजब गजब संयोग हुआ! मैं मन ही मन प्रसन्न भी था और खिन्न भी..! प्रसन्न इसलिए कि मैं अपने इलाके की बहन के घर रात रुकुंगा! खिन्न इसलिए कि बदले में जाते समय उसके हाथ में कुछ रखने के लिए नहीं है मेरे पास! इसी उधेड़बुन में मैं आखिर प्रधान जी के घर जा पहुंचा! शायद वह बिष्ट लोग थे! एक बात तो है उस समय राजपूतों के घर में पंडित की अच्छी इज्जत होती थी! सुंदर खाना मिला व शाम को बड़ा पीतल का गिलास भरकर उस भुली की सासू जी ने भैंस के गर्म गर्म दूध का मलाईदार गिलास थमा दिया! अहा शानदार नींद और सुबह विदाई पर एक पिंपरिया कखड़ी मिली! भुली के चेहरे से लग रहा था कि उसे भी अपने मायके की खुद लगी हुई है उसकी पलकों में आंसू डबडबा रहे थे! मैं कुछ बोलता भी तो क्या..! क्योंकि उस भुली से उसी दिन परिचय हुआ था और इतनी दूर लगा जैसे अपनी ही भुली से मिल रहा हूँ!
14 अक्टूबर 1995 (शनिवार)
आज की यात्रा की शुरुआत भी पैदल ही थी मैं घेरुआ, दुधारखाल होकर तोली गाँव पहुंचा! सड़क के ऊपर मैं सेठ जी के उस मकान में जा पहुंचा जहाँ सुंदर तिबारी आज भी विराजमान थी! सेठ धस्माना जी के बारे में कहावत थी कि उस जमाने में उनकी लाटरी लगी थी और वे अपने मंद्रे में सिक्के सुखाया करते थे! उन्होंने चौन्दकोट जनशक्ति मार्ग के लिए भी चन्दा दिया था ऐसा बताया जाता है! सेठ जी के घर में भी चाय पी और इजाजत लेकर क्वाठा जा पहुंचा! यहाँ अक्सर बसें खड़ी होती थी! सडक के नीचे छोर पर मल्ला क्वाटा हुआ जहाँ रिखोला नेगी व कुछ पंडित परिवार रहते हैं! तल्ला क्वाटा सौंटियाल नेगियों का हुआ! हम जब अपने खरगढ़ मछली पकड़ने के लिए विभिन्न औषधि पादपों की जड़ों का घोल नदी के पानी में मिलाते थे तो अक्सर कहते थे- “सौंटयालों कु मैणु माछु…गणा ब्वाड़ा कु भदलू ताछु!” इसका सीधा सा अर्थ था कि सौंटियाल जाति के मच्छी मारने में एक्सपर्ट हुआ करते थे जो हमारे गाँव के सामने थैर गाँव में भी रहते हैं!
मल्ला क्वाटा में रिखोला जाति के वंशजो का क्वाठा है! यह किस काल में बना कह नहीं सकता लेकिन इसकी बनावट भी कुछ ईडा गाँव के क्वाठा से मिलती जुलती है! मुझे लगता है कि प्रभुत्व सम्पन्न होने के बाद लोधी रिखोला ने बयेली से यहाँ अपनी बसासत की होगी क्योंकि बयेली में ऐसा कोई क्वाठा दिखने को मुझे नहीं मिला था जिसे हम बेहद पौराणिक कह सकते हैं!
यहाँ से विदा होकर मैं बयेली जा पहुंचा! सडक के नीचे इस गाँव में उपरी हिस्से में धस्माना ब्राह्मणों के परिवार है व निचले हिस्से में लोधी रिखोला के वंशज रिखोला नेगी..! यह भाग्यवश ही हुआ कि पूजा के लिए दिल्ली से गाँव आये एक पढ़े लिखे अच्छे पद पर दिल्ली में सरकारी सेवा में कार्यरत एक व्यक्ति से मुलाक़ात हुई ! यह दुखद है कि मैं उनका नाम याद नहीं रख सका! जब उन्हें लगा कि मैं लेखक व पत्रकार हूँ तो उन्होंने खूब आदर दिया! इस दौरान लोधी रिखोला पर खूब चर्चा हुई व उन्होंने बताया कि गाँव के सामने जो ताम्बे के कलर की चट्टान दिख रही है उसमें आँछरियां निवास करती हैं! वहीँ से उनके ही नहीं बल्कि आस-पास के प्रत्येक गाँव के लोग शादी विवाह के बर्तन मांगकर लाया करते थे व धोकर वापस गुफा के दरवाजे में रख देते थे! इसका एक तरीका होता था कि शादी ब्याह से पहले डल्ली के रूप में नौ बैणी आँछरियों के लिए पकवान बनाए जाते थे! साथ में अरसा-भूडा इत्यादि थाल में सजाकर रखे जाते थे व गुफा के द्वार पर खड़े होकर चिल्लाकर बताना पड़ता था कि कल शुभ कार्य है कृपया हमें अपने बर्तन दीजिएगा! दूसरे दिन बर्तन गुफा के द्वार पर मिलते थे! किंवदंती है कि तब लोधी रिखोला के गाँव में कोई कारिज था व भौं रिखोला घर में नहीं थे! परियों से इस बार एक बड़े पात्र की मांग की गयी थी जिसमें खूब पानी भरा जा सके! क्योंकि गाँव में पानी की बड़ी कमी थी व पंदेरे में पतली धार का पानी आता था! जिससे एक बर्तन भरने में घंटा भर लग जाता था! इस बार पानी पात्र के रूप में परियों ने इतना बड़ा कलश (ग्याडा) गुफा के बाहर रख दिया था जिसे खाली भी चार आदमी लादकर गाँव के नीचे पानी तक लाये थे! थके हारे लोगों ने कहा इसे धारे पर लगा दो इसमें पानी भरता रहेगा और हम इसी से पानी निकालते रहेंगे!
कहते हैं आटा गोंदते वक्त पानी की कमी पड़ी तो लोधी रिखोला की माँ ने कहा वह ग्याड़ा ही उठाकर ले आओ ! सब हंस पड़े! उनमें से एक ने कहा कि हम भौं रिखोला जैसे बलशाली थोड़े हैं! यह बात आठ साल के बालक लोधी रिखोला को नागवार गुजरी और वह पनघट से अकेले ही पानी का भरा ग्याडा लेकर आ पहुंचे! पूरे गाँव में आये मेहमानों के बीच लोधी का यह बल चर्चा का बिषय बन गया और सब जगह खबर पहुँच गयी कि भौं रिखोला का पुत्र भी अपने बाप की तरह वीर भड है!
क्रमशः…….!