(मनोज इष्टवाल)
ज्यादा पुरानी बात भी नहीं है। मुझे लगता है मुश्किल दो या तीन दशक पूर्व तक बोळख्या पाटी सम्पूर्ण भारत बर्ष के सरकारी सिस्टम के प्रारम्भिक विद्यालयों में विद्या अर्जन के आखर व बराखड़ी/बाराखड़ी के साथ सभी को अक्षर ज्ञान करवाने का सबसे बड़ा माध्यम है। ब्वळख्या- पाटी / बोळख्या-पाटी के साथ बांस कलम दरअसल त्रिनेत्र के रूप को बर्णित करते हैं। ब्रह्म स्वरुप कलम, महेश स्वरूप पाटी व बिष्णु स्वरुप बोळख्या का अवतरण करते हुए माँ सरस्वती ने ब्रह्मा, बिष्णु व महेश के स्वरुपों को उदृत्त किया है। इन तीनों स्वरूपों के एकाकार के बाद ही माँ सरस्वती की संरचना मानी जाती है जिसने तीनों लोकों में विद्याज्ञान से अविष्कारों को जन्म दिया।
बिषय को ठेठ देवभूमि के परिवेश में लिए चलते हैं जो ब्रह्मा, बिष्णु और महेश की भूमि मानी जाती है। जहाँ जलाकार में कमल व कमल पुष्प से ब्रह्मा जी उपत्ति, स्याह अंधकार से ओंकार यानि महेश की उत्पत्ति व सेमंद अर्थात दल-दली मिट्टी में जहाँ पानी व मिट्टी का समान मिश्रण हो से बिष्णु की उत्पत्ति आज भी मानी जाती हो, ऐसी देवभूमि के विद्या अर्जन की तकनीक भी इन्ही तीनों बिषय वस्तुओं में समाई हुई बोळख्या, पाटी व कलम के रूप में प्रकट हुई समझी जा सकती है।
इन तीनों के जन्म की अगर यही कहानी है तो यह सारस्वत सत्य है कि सनातन धर्म करोड़ों बर्षों से शिक्षित रहा है और लाखों बर्षों पूर्व की हमारे वेद पुराणो का उत्पत्ति काल है।
बहरहाल बोळख्या-पाटी-कलम को अक्षर ज्ञान का माध्यम मानकर हम वर्तमान से 20-30 बर्ष पूर्व लौटते हैं। तो परिदृश्य में तवे पर जमीं कालिख, रेडिओ टॉर्च पर इस्तेमाल किये गए सेल, व लकड़ी जलकर बने कोयले याद आ जाते हैं। जो आयताकार शष्ठकोण या अष्ठकोण धारी पाटी पर कालिख पोतती है, और उसे स्याह काला करने में भागीदारी निभाती है। हमें करना यह होता था कि तवे पर जमी कालिख खुरेचकर उसमें हल्का सा सरसों का तेल व पानी मिलाकर पाटी को रंगना पड़ता था या फिर बैटरी सेल व कोयले बारीख कूटकर इनमें भी औसत मात्रा में तेल व पानी मिलाकर पाटी को रंगना पड़ता था। जिसे सुखाने के लिए हम अक्सर पाटी के शीर्ष भाग में बँधी रस्सी को पकड़ कर पाटी के एक छोर को बलपूर्वक तकली की तरह घुमाकर कहा करते थे – ‘सुख-सुख पाटी, सुख-सुख पाटी।’
पाटी सूखने के बाद हम कांच की छोटी-छोटी शीशियों जो अक्सर ग्राइफवाटर की हुआ करती थी, उस से पाटी पर घोटा लगाते थे और फिर कहते थे – घिस-घिस पाटी चंदन चाटी..
फिर प्लास्टिक की बोतलों से तैयार बोळख्या के लिए कमेडा अर्थात सफ़ेद चुपड़ी मिट्टी को लेने जाया करते थे। बोळख्या पहाड़ों में या तो प्लास्टिक की बोतल से या फिर दूध के छोटे छोटे लिक्विड टिन के डिब्बो से बनाते थे। हो सकता है मैदानों में इनका निर्माण कुम्हार के घड़े वाली मिट्टी से होता रहा हो। हमारे दौर व उससे पूर्व में प्लास्टिक व टिन कम प्रयोग में होता था इसलिए आज से लगभग 50 बर्ष पूर्व तक बांस ले तने को खोखल भाग को दो हिस्सों में बाँटकर राजमिस्त्री या स्वयं घर के बड़े बुजुर्ग बोळख्या बनाया करते थे। जिसके ऊपरी हिस्से पर समांतर स्थानों में छेद कर उसे पकड़ने के लिए एक डोरी या तार बाँध से बाँध दिया जाता था। पाटी पर बँधी डोरी को सिर में लटकाकर व बोळख्या को हाथ में पकड़कर स्कूल जाया करते थे। डोमट सफ़ेद मिट्टी जिसे हम स्थानीय भाषा में कमेडा कहा करते थे, में कमेडा के माप में पानी मिलाते थे। बांस/रिंगाल की टहनियों से बनी कलम के पिछले भाग से हम स्कूल में कमेडा मिट्टी व पानी को घोलकर व कलम के अग्रभाग जो कलम के रूप में छिलकर बनाई जाती थी से पाटी में लिखते थे – अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ…! इन आख़रों को सुखाने का भी एक मंत्र होता था – सुख-सुख माटी चंदन चाटी…।
एक तरफ अ आ तो दूसरी तरफ बाराखड़ी जैसे 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10…! और छुट्टी होने से पूर्व मास्साब यानि गुरूजी 20 तक के पहाडे रटवाते थे। पहली कक्षा से पाँचवीं कक्षा के छात्र-छात्राएं एक साथ स्कूल मैदान में बिठाये जाते और शुरुआत होती दो एकम दो दो दूनी.. फिर सामूहिक स्वर उभरता दो दूनी चार दो तियाँ, दो तियाँ छ: दो चौका…। यकीन मानिये ये ज्ञान शिक्षा का अकूत भण्डार के रूप में शिक्षा की आधार शिला कहलाती थी।
पाटी में लिखे अच्छे सुलेख को गुरूजी की शाबाशी मिलती। यह भी अजब गजब की बात है कि मकड़ी को भी हम शिक्षा में शामिल करते थे। आप कहोगे कैसे? दरअसल गर्मियों में अक्सर बोळख्या का पानी सूख जाया करता था जिसे जब हम बांस/रिंगाल कलम के पिछले छोर से घुमाते थे तो बोळख्या के रसातल में गए पानी के कारण कमेडा मिट्टी को घुमाने में ताकत लगानी पडती थी। बाल हाथों से ज्यादा जोर लगता था तो हम कमेडा मिट्टी को घुमाते समय फिर बोळख्या के बाहर हिस्से पर कलम का प्रहार करते व कहते – मकड़ा दिदा मूत मूत (मकड़ी भाई मूत मूत ) ऐसे में होता यह था कि रसातल में इकठ्ठा पानी धीरे धीरे मिट्टी को घोलना प्रारम्भ करता था व बोळख्या की मिट्टी गीली होने लगती। बाल बुद्धि ख़ुश हो जाती व सोचने लगती कि सचमुच मकड़ी ने बोळख्या में पेशाब कर दी है।
क्या मेरे अलावा आप में से किसी और ने भी बोळख्या पाटी का ऐसा इतिहास लिखा है? नहीं ना….। क्योंकि यह इतिहास मूलत: जानते तो आप भी हैं लेकिन आपने संजोने का प्रयत्न नहीं किया.