Friday, November 22, 2024
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कोटद्वार दुगड्डा-बांघाट ढाकरी राजमार्ग..! कुछ यों बयाँ करता है आज भी दास्ताँ!

(मनोज इष्टवाल)

ढाकरी गीतों की गायन विधा और उसमें समाया अतीत का सारा हास-परिहास, दुःख -दर्द तत्कालीन जीवन शैली को उदृत करने का बड़ा माध्यम था, लेकिन वह अतीत के काले अक्षरों को साथ जाने कहाँ गुम हो गया या यों कहें फिर उन गीतों की पुनरावृत्ति लोक समाज में जाने क्यों नहीं हुई । आखिर क्यों नहीं किसी लोक कलाकार ने उन गीतों के माध्यम से जन्में कई मूल्यों के चित्रण को नकर दिया। यह हमें समझना होगा जैसे मुंडनेश्वर महादेव (खैरालिंग) की उत्पत्ति से जुड़ा एक ढाकरी गीत है :- “ढाकर पैटी रे माडू थैरवाल! अस्सी बरस कु बुढया रे माडू थैरवाल! या फिर “स्याळआ झमको ओडू नेडू ऐ जावा..स्याळआ झमकों सात भाई थैर्वाळआ!’ ..! ऐसे जाने कितने गीत व बाजूबन्द उस काल में ढाकर व ढाकरियों पर गाये जाते रहे होंगे!

बांघाट बाजार!

यहाँ मेरा मकसद ढाकर मंडी दुगड्डा से लेकर तिब्बत तक माल पहुंचाने वाले उन खडीनों की जिन्दगी से जुड़े अहम पहलुओं पर इसे केन्द्रित करने का है। सन 1905 तक यह मंडी कोटद्वार के सिद्धबलि मंदिर से आगे दुगड्डा की ओर लगभग आधा से एक किमी. दुगड्डा की ओर लगती थी, जहाँ आज भी नदी पार मंडी के भग्नावेश दिखाई देते हैं। सन 1905 या उसके आस-पास दुर्गादेवी तक मोटर मार्ग बन जाने के बाद यह मंडी दुगड्डा शिफ्ट हुई। यों तो यह मंडी दुगड्डा में पूर्व से भी मानी जाती रही है लेकिन मुख्यतः कोटद्वार से ही बड़े धन्नासेठ खडीनों में लम्बे सफर का लगभग एक साल के लिए माल भरते थे।

दुगड्डा मंडी ज्यों ही विकसित हुई ढान्गु-उदयपुर की छोटी मंडी डाडामंडी के नाम से जानी जाने लगी जबकि तल्ला-पल्ला उदयपुर जिन्हें डांडामंडल क्षेत्र या छोटी विलायत के नाम से जाना जाता था वे हरिद्वार-ऋषिकेश व देहरादून के डोईवाला क्षेत्र से अपनी जरूरतों के सामान की ढाकर लाने जाते थे। वर्तमान युग के नए कर्णधार पहले तो ढाकर शब्द पर उलझ रहे होंगे कि आखिर यह बला क्या है व दूसरे “खडीन” नामक शब्द पर..! मेरा दावा है कि मेरी उम्र के भी ज्यादात्तर लोग खडीन शब्द से प्रचलित नहीं होंगे। आइये इन शब्दों की व्याख्या कर दें।ढाकर= ढा-ढो (उठा), कर- कर अर्थात जिस वस्तु को आप उठा कर ला रहे हैं उसका सूक्ष्म शब्द हुआ ढाकर! और अगर इसी में हम “ह” लगा दें तो शब्द का अर्थ उजाड़कर हो जाता है।

यह शब्द मूलतः गढवाली बोली में प्रचलित माने जाने वाला शुद्ध देवनागरी लिपि का शब्द कहा जा सकता है। वहीँ खडीन का शाब्दिक अर्थ खाडू (मेंडा/भेड़) इत्यादि से जोड़कर देखा जाता रहा है लेकिन इस शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई यह कहना सम्भव नहीं है फिर भी इस शब्द को ज्यादात्तर लोग भोटिया, राम्पा या फिर तिब्बती समाज की देन मानते हैं। ये खडीन भी वही काम करते थे जो ढाकरी किया करते थे। ढाकरी भी दैनिक दिनचर्या का सामान तब पीठ का बोझा बनाकर ढोया करते थे और खडीन यानि भेड़ बकरियां भी दैनिक दिनचर्या का समान पीठ पर ही ढोया करती थी। जाने माने साहित्यकार भीष्म कुकरेती के कुछ शब्द मेरे उस लेख को मजबूती देते दीखते हैं जो उन्होंने अपने पिछले दिनों के एक लेख में लिखे हैं कि दुगड्डा में मंडी विकसित होते ही वहां वैश्यालय भी ब्रिटिशकाल में शुरू हो गए थे। उन्होंने आगे लिखा कि दुगड्डा जाने वालों की दिनचर्या में उस काल में भोजन के लिए ढुंगले, सत्तू-आलू व गागली, मनोरंजन के लिए लोकगीत, स्वांग, कहावतें, लोककथाएँ, गायक, गपोड़ी, हास-परिहास, बादी-बदीण, हुडक्या, मिरासी, चरखी, जादू-टोना, नर्तक-नर्तकियां, कथा-वाचन इत्यादि सभी संसाधन अपने आप जुट जाते थे। ये तो जिंदगी की सचाई है कि हम सब एक दूसरे के पूरक रहे हैं और इन पूर्तियों को पूरा करने के लिए ही अपने-अपने स्तर पर अपनी जिन्दगी काट लेते हैं।

डॉ. सुभाष थलेडी ने ढाकरी रूट की जानकारी अपने गाँव बिलखेत तक जोड़ते हुए बताया कि दुगड्डा से ढाकर लाने वाले ढाकरी प्रतिदिन 25 से 30 किमी. की यात्रा करते थे। वे दुगड्डा से डाडामंडी, देवीखेत होकर पहले दिन द्वारीखाल में विश्राम करते थे। जहाँ तरह-तरह की संस्कृतियों का मिलान होता था, और अगले दिन ग्वीन, बकरोटगाँव होकर बांघाट पहुँचते थे। यहाँ से सतपुली या उसके आस-पास के लोग अपने-अपने घरों पहुँचते थे लेकिन पौड़ी या उस से आगे जाने वाले लोग यहीं बिश्राम करते थे। सच भी है सतपुली का विकास सन 1942 के आस-पास हुआ जब वहां सड़क पहुंची और वह गाड़ियों/ड्राइवर के ठहरने का स्थान बना। उस से पहले बांघाट ही गढ़वाल से लेकर तिब्बत व्यापार का बड़ा बाजार था व इसका विकास भी ठेठ उसी तरह हुआ करता था जैसे दुगड्डा की मंडी का था। तब तक नयार एक औसत नदी भर थी और बांघाट का बाजार बिस्तार काफी बड़ा था, जिसमें डाडामंडी जैसी सभी गतिविधियाँ हुआ करती थी लेकिन यहाँ वैश्यालय नहीं हुआ करते थे। होटलों का तब चलन कम था क्योंकि तब चाय प्रचलन में नहीं थी या रही भी होगी तो उसे ब्यसनी ब्यक्ति माना जाता रहा है।

द्वारीखाल के लिए सीला बांघाट से निकलता ढाकरी रास्ता घाटी।

बांघाट में रसोई बनाने वाले चुफ्फा बामण (ब्राह्मण), राजपूत एक दूसरे के हाथ का भात नहीं खाया करते थे, इसलिए यहाँ ढुंगले व मालू के पत्तों के बीच मच्छी रखकर नमक के साथ उन्हें आग के अंदर रखे गर्म गोल पत्थर जिन्हें ल्वाडा/गंगल्वाडा कहा जाता है उनके उपर रखा जाता था। यह मेरा नसीब है कि बचपन में मैंने भी यह सब खाया है। वहीँ जो मांसाहारी नहीं हुआ करते थे वे आलू/गागली को आग के गर्म कोयलों के नीचे रखकर उन्हें पकाते उसमें नमक मिर्च तिल का तेल मिलाकर उसका लुणचुर बनाकर खाया करते थे। तब कई बार आपसी जोर आजमाइश के लिए दंगल भी जुटते थे और हार जीत के बाद एक दूसरे के गले मिलते थे।

ऊपर द्वारीखाल बाजार व नीचे ढाकर के जमाने की दुकान!

यह बेहद आश्चर्यजनक है कि ढाकरियों के जहाँ-जहाँ भी बिश्राम स्थल होते थे वहां-वहां उनके मनोरंजन के साधन स्वरुप गाने बजाने वाला समाज भी अपना मजमा जुटाया करते थे। अब चाहे दुगड्डा रहा हो या फिर देवीखेत-राजगढ़, या फिर द्वारीखाल…..! हर स्थान पर बादी समाज के लोग अपने गीतों और नृत्यों से ढाकरियों का मन प्रसन्न करते थे जिसकी एवज में उन्हें अक्सर नमक, तेल, गुड या इक्कानी-दुआनी मिल जाया करती थी। आज भी इन स्थलों के समीप गंदर्भ जाति के लोगों के निवास स्थल या गाँव हैं भले ही धीरे-धीरे वे अपने पौराणिक पेशे से हट गए हों लेकिन कालान्तर में ये सब इसी पेशे के बूते अपनी दिनचर्या चलाया करते थे।

बांघाट ढाकरियों का सबसे बड़ा ठहरने का पहला पड़ाव होता था यहीं से रास्ते अलग- अलग दिशाओं के लिए सम्पूर्ण गढ़वाल से तिब्बत तक जाया करते थे। सीला गाँव के दांयी ओर तब अंग्रेजों के ठहरने के लिए एक बँगला हुआ करता था जो आज से 30 बर्ष पूर्व तक भी अपनी कहानी सुनाता नजर आता था लेकिन अब वहां कुछ सरकारी संस्थान खुल गए हैं। यह बंगला सतपुली से बांघाट जाते समय बांघाट पुल से लगभग डेढ़ सौ दो सौ मीटर पहले सडक के उपरी ओर गिरते पानी के स्रोत के ऊपर हुआ करता था। वर्तमान जहाँ बांघाट पुल का निर्माण हुआ है वहीँ पूर्व में झूला पुल हुआ करता था जिसके उपरी ओर बिल्खेत जाने वाले पैदल मार्ग पर बादी समाज के लोगों के कच्चे आवास हुआ करते थे जबकि सडक की निचली ओर नदी तट पर आठ से 10 दुकानें संचालित थी जिन्हें सीला गाँव के लोग संचालित किया करते थे।

यहाँ के पुराने लोग बताते हैं कि जहाँ चौक में आज पीपल के पेड़ की चौंरी है वहीँ रात्रि बिश्राम करने वाले ढाकरियों के लिए मजमा लगता था व गीतों नृत्यों व घुन्घुरुओं की खूब खनक हुआ करती थी। दूसरे दिन अल सुबह लोग अपने अपने गाँव के रास्ते लग जाया करते थे। वहीँ पौड़ी जाने के लिए लोग बांघाट, बूंगा, कलेथ होकर पौड़ी राजमार्ग के लिए निकलते थे! नैथाना गाँव के पास भी तब अंग्रेजों के ठहरने के लिए बँगला हुआ करता था और मनोरंजन के लिए यहाँ भी बादी समाज के लोग। लेकिन यहाँ रात्री बिश्राम के लिए कोई पड़ाव नहीं था अपितु यहाँ से अगला पड़ाव अदवाणी हुआ करता था  लेकिन यहाँ भी कम ही लोग रुका करते थे। अक्सर अदवाणी में तिब्बती खडीनों का पड़ाव हुआ करता था जबकि गंगोट्यूँ में ढाकरियों का दूसरा रात्री बिश्राम। यहाँ भी बादी समाज के लोग मनोरंजन हेतु गगवाड़स्यूं के गाँवों से आया करते थे जिनमें कुछ परिवार कालान्तर में टेका में आ बसे! अगला पड़ाव पौड़ी का झंडीधार हुआ करता था, जहाँ लम्बी दूरी के लोग व तिब्बती लोग अपनी भेड़ों के साथ रुका करते थे! यहाँ भी मनोरंजन के लिए मजमा लगता था जहाँ गड़ोली नाद्लस्यूं व केबर्स (पैदुलस्यूं) से बादी समाज के लोग मनोरंजन के लिए अपने गीत नृत्य की घमक बिखेरते थे व अपनी दिनचर्या चलाया करते थे। बहरहाल बांघाट जोकि इस यात्रा का कोटद्वार या दुगड्डा से दूसरा पड़ाव होता था तब सबसे चर्चित ढाकरी पड़ाव होता था। वर्तमान में इसका बाजार फैलने लगा यह लेकिन यह बड़े आश्चर्य का बिषय है कि सीला व बिल्खेत गाँव की मीलों लम्बी उपजाऊं जमीन वर्तमान में बंजर हो गयी है व यहाँ के लोगों ने खेती करनी छोड़ दी है।

डाडामंडी से द्वारीखाल पहुँचने वाला पैदल ढाकरी राजमार्ग!

कोटद्वार से पौड़ी तक का ढाकर मार्ग कुछ इस तरह था! कोटद्वार से 5 मील दुगड्डा, दुगड्डा से 10 मील डाडामंडी, डाडामंडी से 6 मील पर द्वारीखाल व द्वारीखाल से बांघाट 7 मील दूरी पर अवस्थित था।  दुगड्डा तब गढ़वाल का एक छोटा सा शहरी कस्बा व प्रमुख ब्यापार केंद्र कहा जाता था, जहाँ पर्वतीय माल के बदले देशी माल खरीद बिक्री हुआ करती थी। यहाँ तत्कालीन समय में डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का बंगला, धर्मशाला, डाकखाना कुली एजेंसी की चौकी हुआ करती थी! जबकि डाडामंडी में दो तीन दुकानें, कुली एजेंसी चौकी, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड बँगला व धर्मशाला हुआ करती थी। द्वारीखाल में डाकखाना, एक डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का बंगला, एक कुली एजेंसी चौकी व एक दुकान व धर्मशाला हुआ करती था। बांघाट पहाड़ के हिसाब से कस्बा बाजार माना जाता था क्योंकि यहाँ भी दुगड्डा मंडी की भांति चार पांच दुकानें, एक साफाखाना, डाकघर, डाकबँगला, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का बंगला इत्यादि हुआ करता था।

बांघाट से आगे अदवानी 12 मील दूरी पर, व वहां से पौड़ी 10 मील की दूरी पर अवस्थित रहा! यह ढाकरी मार्ग तब राष्ट्रीय राजमार्ग के रूप में जाना जाता था जिसमें घोड़े, टट्टू, खडीन व आदमी चला करते थे।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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