(मनोज इष्टवाल)
शायद अब सैद शब्द न हिंदुओं की डिक्शनरी में है न मुसलमानों में प्रचलित है। लेकिन इतना जरूर है कि मुख्यतः गढवाल समाज में सैद को हिन्दू मुस्लिम समाज का जिन्न या भूत मानते हैं। क्योंकि गढवाल की तंत्र-मंत्र क्रिया में सैदवाली का अक्सर जिक्र होता है व मुसलमान को नचाने वाले जागरी/धामी डौंर में रामढोल (बैंड) की तरह की धुन बजाते हुए अक्सर आपको गांवों में किसी औरत या मर्द पर उतरे उनके पश्वा को नचाते हुए दिखाई देते होंगे और साथ में कुछ इस तरह गायन भी-तेरी चिल्लादार टोपी ये से ज्यादा जी, या कुछ ऐसा- नजियाबाद मंडी कौन खड़ा है, बर्छी वाल्ता ज्वान कौन खड़ा है? जिसकी तीन टांग घोड़ी कौन खड़ा है? सुल्तान खड़ा है। सुल्तान खड़ा है। वो सैद बड़ा है सुल्तान खड़ा है।
इस प्रसंग से इसलिये शुरुआत करनी पड़ रही है क्योंकि राजा फतेशाह के दरबार में बतौर सैन्य सलाहकार या सेनापति पुरिया नैथानी को राजा फतेशाह शाह द्वारा कोटद्वार भावर क्षेत्र की माल जमीन खाने कमाने के लिए दान नामा दे रखी थी लेकिन भला सेनापति के वंशज जो नैथानी, पाली व अन्य क्षेत्रों में ठंडे पहाड़ों में रहने के आदी हो गए थे वे कैसे भावर के मच्छरों व डेंगू का मुकाबला करने वहां जाते। अब जिसे मिले यूँ तो वो करे क्यों? बताया तो यह भी जाता है कि जसोधरपुर से किशनपुर हल्दुखाता खाता तक हजारों हजार एकड़ जमीन राजा द्वारा पुरिया नैथानी को खाने कमाने के लिए दी हुई थी जिससे उत्पन्न हंसराज बासमति का भोग बदरिकेदार नाथ धाम इसलिए जाया जाता था क्योंकि इन चावलों की सिंचाई में वैदिक कालीन मालन नदी का जल इस्तेमाल में लाया जाता था। और कुछ अंश श्रीनगर दरबार व बाकी पुरिया नैथानी के गांव नैथाणा पहुँचता था। जिस नैथाणा की खेती में झंगोरा तक नहीं उगता था वहां के खेतों में भला चावल कहाँ उगता। इसे देवयोग ही देखिये जहां कभी यही झंगोरिया ग्वाले (कालांतर में नैथानी) गाय भैंस चुगाने आया करते थे वहीं के धान व गेंहू के कई एकड़ सेरे माँ भुनेश्वरी की कृपा से राजाज्ञा से इनके हुए।
नैथानी जाति की जमीनों में यह दैवयोग देखिये हर बार मुकदमें बाजी ही हुई। चाहे वह श्रीनगर स्थित जमीन रही हो या फिर कुमाऊँ स्थित नैथाणा गढ़ी के पास की जमीन। या माल के भावर व ईड़ा की जमीन…!
यहां भी कुछ ऐसा ही खेला हुआ कि जिस हजारों एकड़ जमीन को राजा फतेशाह ने पुरिया नैथानी को बक्शीस के रूप में दिया था, और जिस पर उनके रखे ‘खैकर’ काम करते थे। राजा फतेशाह की मृत्यु के पश्चात उनके अवयस्क पुत्र पृथ्वीपतिसाह के गद्दी में बैठते ही मतलब परस्तों ने जमीनें कब्जानी शुरू कर दी। लेकिन रानी कर्णावती ने बड़ी जल्दी ही इस सब पर अपनी दूरदर्शिता व समझ के साथ बागडोर सम्भाल ली।
इसी क्रम में पुरिया नैथानी की एक बड़ी जमीन के हिस्से पर नजियाबाद बाद क्षेत्र के उस काल के धनाढ्य सैद साहब ने कब्जा जमा लिया। कब्जा जमाने के लिए उन्होंने कानूनी प्रपंच रचते हुए यह कहलाना शुरू कर दिया कि इस जमीन पर उनके वंशज तीन पीढ़ियों से खैकरी करते आ रहे हैं। बात जब कानूनी हुई तब पुरिया नैथानी जी ने श्रीनगर दरबार कागली (आवेदन) लिख कर भेजा व पातसाही *पृथ्वीपति साह* द्वारा “रौत की जमीन” का एक हिस्सा 2000 बीघा जमीन पुरिया नैथानी को बक्श दी व ताम्रपत्र में अपने पिता महाराजा फतेशाह के काल के संदर्भ का जिक्र करते हुए लिखते हुए उसकी भाषा को गूढ़ बना दिया। लोग फतेशाह को ही पातसाही समझने लगे। जबकि कई सन्दर्भों में पृथ्वीपति को पातसाही कहा गया है क्योंकि भाषाई अपभ्रंशता के चलते व जुबान पर पृथ्वीपति न चढ़ पाने के कारण लोग उन्हें पातसाही पुकारा करते थे।
कुछ का मानना है कि यह जमीन राजा फतेशाह ने तब पुरिया नैथानी को दी थी जब वे रानी कर्णावती व कुंवर पातसाही को बैरियों की नजरों से बचाकर अदवाणी के घनघोर जंगल लेकर आ गये थे।
नैथाणा के नैथानियों के पास भावर क्षेत्र में इस ताम्रपत्र के अनुसार 2000 बीघा जमीन का जिक्र है जबकि अन्य कागजों में उनके पास जसोधरपुर व किशनपुर में हजारों एकड़ जमीन है।
किशन दत्त नैथानी व जसोधर नैथानी।
इन्हें बेहद दुस्साहसी व्यक्तित्व ही कहा जा सकता है क्योंकि ये दो भाई गोरखा काल से ठीक ऐन पहले आकर कोटद्वार-भावर आ बसे थे। और इन्होंने अपने पूर्वजों की जमीन पर कब्जा कर यहां के थारू-बोक्सा जनजाति के लोगों को खेती करने के तौर तरीके सिखाने शुरू कर दिये। और तो और जंगलों में बसासत करने वाले इन जनजाति के लोगों को पैंसे की जगह जमीन का कुछ हिस्सा उनकी बसासत के लिए देकर इन्हें भी जसोधरपुर व किशपुर क्षेत्र में बसा लिया। ब्रिटिश काल में डाकू सुल्ताना के कहर से बचने के लिए इन भाइयों ने ईड़ा नामक पहाड़ खरीदा व वहीं अपने घर भी बना दिये। ये अक्सर गर्मियां यहीं आकर काटा करते थे। यों तो ऋषिकेश विन्ध्वासिनी से लेकर कोटद्वार के जंगलों में सुल्ताना का एकछत्र राज था फिर शायद ईड़ा गांव सुरक्षित स्थान कहा जा सकता था व डाकू सुल्ताना की नजर में पहाड़ वासी गरीब हुआ करते थे। सुल्ताना कभी गरीबों पर जुल्म नहीं करता था इसलिए किशनदत्त नैथानी व जसोधरदत्त नैथानी अपने नौकरों के माध्यम से सुल्ताना को नजराने के रूप में कोई न कोई बख्शीश दे दिया करते थे।
यह कहना सही रहेगा कि जसोधर पुर व किशनपुर में नैथानियों कई बसासत पहले रही व उसके बाद ईडा गांव बसा। इन लोगों ने ब्रिटिश काल में टिम्बर की क्लास वन ठेकेदारी की व उस से बहुत पैंसा कमाया। ब्रिटिश अधिकारियों से अच्छी उठ बैठ इनके फायदेमंद रही व इन्होंने या इनके वंशजों द्वारा कोटद्वार रेलवे ट्रेक बिछाने के लिए इन्हीं जंगलों के ठेके लेकर लकड़ियां उपलब्ध करवाई। बदले में खूब पैंसा कमाया। यह भी अजब इत्तेफाक है कि ब्रिटिश शासन में इनके वंशज वन विभाग में रेंजर रहे जिन्हें लोग बड़ी इज्जत से रेंजर हरिदत्त नैथानी के नाम से जाना जाता था। यह भी अजब गजब इत्तेफाक की बात है कि जसोधरपुर वाले जोसधर दत्त नैथानी के पुत्र पद्मादत्त नैथानी व बिशम्बर दत्त नैथानी हुए। जिस बर्ष 1903 में कोटद्वार में रेल आई उसी बर्ष जसोधरदत्त नैथानी की हवेली बनकर तैयार हुई। वह इस हवेली में रह भी पाए कि नहीं लेकिन उनके पुत्र व पौत्र प्रमोद चन्द नैथानी व प्रपौत्र मयंक नैथानी ने गांव आना जाना नहीं छोड़ा। रेंजर हरिदत्त नैथानी के पिता का क्या नाम रहा होगा लेकिन यह तय है कि उनके दादा जी किशनदत्त नैथानी थे जिनके नाम से किशनपुरी या किशनपुर बसा।
(अगली क़िस्त ईड़ा क्यों हुआ वीरान…. और कहां गए इन आलीशान मकानों के बाशिंदे)