किन्नोरी लड़की…..!
(सुभाष त्राण की कलम से)
एक जमाने में मेरे घर के ठीक नीचे से गुजरने वाली टौंस नदी अपने उद्गम क्षेत्र से पानी ही नही लाती थी, वो सर्दियों के दौरान अपने साथ ऐसे लोगों को भी लेकर आती थी जो बोली-भाषा, नाक नक़्श और वेश भूषा में हमसे बिलकुल भिन्न थे। सुदूर किन्नौर से उतर कर आने वाले ये लोग पेशे से चरवाहे और बुनकर होते थे। वक्त की किसी बेनाम तारीख से टौंस नदी के किनारे पड़ने वाले हमारे खेड़े मंजरे उनकी ऐसी अस्थाई बसासतें थी जहाँ वे अपनी भेड़ बकरियों और परिवारों के साथ अपने डेरे जमाते और सर्दियों के खत्म होने के बाद अपने मुल्क लौट जाते।
ऐसा ही एक परिवार सर्दियों के दौरान मेरे गाँव में, जो उस वक्त एक अस्थाई बसासत हुआ करता था, मेरे घर से थोडी ही दूरी पर अस्थाई डेरा बनाकर रहता था। ये लोग बुनकर भी थे। ऊन के कपडे बुनने के शिल्प में माहिर इस परिवार की आस पास के ईलाके मे बडी इज्जत थी। भेड़ बकरियों की खरीद फरोख्त के अलावा यह परिवार स्थानीय लोगों के लिए ऊन का कपड़ा तैयार करता और बदले मे उनसे अनाज और खाने पीने की अन्य चीजें हासिल करता।
सर्दियों के दौरान सुदूर उत्तर से आने वाले और बोली, पहनावे और चेहरे मोहरे से हट कर दिखने वाले ये लोग, मुझे जब से याद पड़ता है, मेरे लिए कौतूहल और गजब के आकर्षण का केन्द्र बने रहे। इनके अस्थाई डेरों से उठता धुआं, और ताने बाने की खटपट, उस बीच अचानक गाया जाने वाला कोई गीत, जिसका मतलब मुझे कभी समझ मे नही आया, मुझे बार बार अपनी ओर आकृषित करता।
जिस साल का यह वाकया है तब शायद मै आठ या दस बरस का रहा होउंगा। तकरीबन एक से डेढ़ मील में फैले हुए मेरे गाँव भर के लोग उस जमाने मे पानी के लिए जिस प्राकृतिक स्रोत पर निर्भर थे, वहाँ तक पहुंचने का रास्ता मेरे घर से होकर ही गुजरता था। पानी का यह स्रोत मेरे परिवार की ऐसी पुश्तैनी मिलकियत है जो एक जमाने तक सारे गाँव और यहाँ से गुजरने वालों के लिए एक जरूरी और जीवनोपयोगी संसाधन के रूप हमेशा उपलब्ध रहा। गाँव भर के पुरूष महिलाएं और बच्चे पानी के उस सोते पर कपडे धोने, नहाने के लिए जाते और पीने के लिए पानी लेकर अपने घर लौट आते। पानी ढोने की इस फेरहिस्त में किन्नौरों का वह परिवार भी शामिल था। किन्नौरों के उस परिवार के महिलाए पुरूष तो कभी कभार ही उधर जाते हुए दिखाई देते लेकिन उनके बच्चे, जो कि मेरे हम उम्र रहे होंगे, दिन मे कितनी ही दफा घर के बाहर से दौड़ते हुए पानी की तरफ जाते और आते हुए दिखाई पड़ते।
कुल मिलाकर वे तीन थे। बड़ी लडकी, जिसके सर पर किन्नौरी टोपी और जिसके बाल गुलाबी रंग की रिबन से दो चोटियों की शक्ल मे बंधे रहते थे। उसके साथ उसके दो छोटे भाई जो देखने मे जुड़वा लगते थे। क्योंकि मेरा घर गाँव से हट कर एक दम एकांत में था इसलिए मेरा बडा मन होता कि सर्दियों के दौरान अजनबी ईलाके से आने वाले ये मेरे हम उम्र मुझसे दोस्ती कर लें और मेरे साथ खेलें। घर के बरामदे मे खडा मै रोज उनका इंतजार करता, उनकी तरफ दोस्ताना मुस्कान उछालता लेकिन वे मेरी कोई परवाह किए बिना धूल उडाते हुए सामने से निकल जाते।
खुद को यूं नजर अंदाज होता महसूस कर एक रोज मैने उनका रास्ता रोकने की ठान ली। यह तो हद है, मेरे घर के रास्ते से होकर जाते है। मेरे मालिकाना हक मे पड़ने वाले चश्मे का पानी इस्तेमाल करते है और मेरी कोई परवाह ही नही करते। इनको जो है कि अब सबक सिखाना ही पड़ेगा। यह सब सोचते हुए एक दिन मैं उन्हे सबक सिखाने की नीयत से अपने घर के ठीक नीचे पानी के धारे की तरफ जाती संकरी बटिया पर रास्ता रोककर खडा हो गया। वे तीनो खिलखिलाते हुए पानी की तरफ दौड़े जा रहे थे कि अचानक रास्ते में मुझे खड़ा देखकर चुप हो गये।
मैंने पहल की
-क्यों भई, तुम जिस रास्ते से पानी लेने जाते हो वो किसका है, मालूम है?
वे चुप रहे
मैने अगला जुमला छोड़ा
-क्या तुम्हे पता है, तुम जहाँ से पानी लाते हो वो पानी किसका है।
अगुआई कर रहे लडके ने ना में सिर हिला दिया
उनकी चुप्पी ने मेरी हिम्मत बढा दी थी, उन्हे बाहरी और खुद को इलाके के मालिक की हैसियत महसूसते हुए मैने उन्हे आदेशात्मक लहजे में कहना शुरू किया
-जाओ वापिस घर, पानी नही मिलेगा
मेरी बात सुनकर सबसे पीछे खडी लडकी जिसके बाल गुलाबी रंग की रिबन से बंधे हुए थे, ने अपने दोनो भाईयों को पीछे किया और खुद आगे खड़ी होकर सपाट लहजे मे बोल पडी
‘हमे पानी के लिए जाने दो’
उसकी इस हिमाकत पर मै अपने हाथ पांव फैलाते हुए और ज्यादा रास्ता घेर कर खडा हो गया।
अचानक वह झुकी और उसने जमीन से एक ठीक ठाक सा पत्थर हाथ मे उठा लिया।
उसकी इस औचक हरकत से मेरा सारा आत्म विश्वास ढह गया और मै बुरी तरह डर गया।
एक हाथ मे पानी की डोलची और दूसरे हाथ को अपने भाईयों की ढाल बनाते हुए वह मेरी तरफ आगे बढ़ने लगी। मेरे हौसले पस्त हो चुके थे। मुझे उन्हे रास्ता देने के अलावा और कोई रास्ता नही सूझ रहा था। मुझे इस बात का आज भी मलाल है कि मैंने उन अजनबियों से संवाद का जो तरीका चुना था वह बहुत गलत था लेकिन मेरी मंशा गलत हो, ऐसा भी नही था। उस लड़की द्वारा उठाए गये पत्थर ने मेरे भीतर ऐसा बहुत कुछ तोड दिया था जो अभी ठीक से बन भी नही पाया था।
बात आई गयी हो गयी। अब जब कभी भी वे पानी के लिए मेरे घर से होकर गुजरते मैं उन्हे नजर अंदाज करता। कुछ दिनो का अर्सा गुजरा होगा कि एक दिन वे मुझे रास्ते में पानी भर कर तब आते हुए मिल गये जब मै अपनी गायों को पानी पिलाने के लिए चश्मे की तरफ लेकर जा रहा था। उस संकरे रास्ते में बहुत करीब से गुजरते हुए मुझे नहीं पता कि उन्होंने मेरी तरफ देखा या नहीं लेकिन मैने उनकी तरफ नही देखा। पशुओं के वास्ते पानी पीने के लिए बनाए गये तालाब में गायों को पानी पिलाने के बाद नीचे जंगल की तरफ हाँक कर मैं जब वापसी मे घर की तरफ लौटने लगा तो अचानक नजर पानी की बगल में उग आई झाड़ियों पर गयी जहाँ हरी पत्तियों पर गुलाबी रंग की रिबन दूर से ही दिखाई पड रही थी। इस रिबन को पहचानने में मुझे जरा भी देर नही लगी। मैने रिबन को अपनी दायीं हथेली पर लपेटा और सीधा घर की तरफ चल पड़ा।
घर आते आते मुझे कितने ही किस्म के ख्यालों ने घेर डाला। मुझे मेरे अंदर की एक आवाज ने सुझाव दिया कि इस रिबन को गायब कर दिया जाय और जब इसकी ढूँढ मचे तो इसका पूरा मजा लिया जाय। तब तक मुझे यह बात समझ में आ चुकी थी कि दुनिया में इसानो की बोली, वेशभूषा, रहन सहन और बनावट भले ही अलग अलग होती हो लेकिन बच्चों द्वारा अपनी किसी चीज को खोने या खराब करने पर पड़ने वाली फटकार और मार समूचे विश्व मे एक जैसी ही होती है। लेकिन भीतर से ही उठने वाली एक दूसरी आवाज ने इसका प्रतिकार कर दिया। उस आवाज का तर्क यह था कि जिस जलालत और मार से तुम खुद आहत होते हो, किसी और के साथ तुम्हारी वजह से ऐसा होने के बाद तुम कैसे खुश हो सकते हो, उससे तुम कैसे मजा ले सकते हो। बहरहाल, अंदर से आने वाली पहली आवाज पर दूसरी आवाज भारी पड़ी और यह तय हुआ कि किन्नौर की उस लडकी के घर जाकर उसे रिबन लौटा दिया जाय।
यह दिसंबर का कोई सर्द सा दिन था। दोपहर होने को थी लेकिन गाँव के घाटी मे होने के चलते धुंधली सी धूप किसी आलसी, लापरवाह और लेट लतीफ़ नौकरशाह की तरह मौसम को और सर्द बना रही थी। अपने दांएं हाथ मे रिबन लपेटे हुए चढाई में भाप उगलता हुआ मैं किन्नौरों के डेरे की तरफ बढ़ता चला जा रहा था। खड़ी पगडंडी चढने के बाद ज्यों ही मै उस समतल स्थान पर पहुंचा जहाँ सामने किन्नौरों के डेरे थे, त्यों ही एक भोटिया कुत्ता बहुत तेजी के साथ मेरी तरफ झपट पड़ा। मै इस औचक आफत के लिए बिलकुल भी तैयार नही था। मुझे कुछ भी समझ नही आ रहा था। उस भोटिया नस्ल के भीमकाय कुत्ते के इरादे यह थे कि वह मेरी टांग पर झपटा मारना चाहता था लेकिन एन वक्त पर मेरा बांया हाथ उसकी गर्दन पर कसे पट्टे पर पड़ा और मैने खुद को बचाने की आखिरी कोशिश के तौर पर अपने शरीर को हवा में उछाल दिया।
मेरे पास मनुष्य और पशुओं की सीधी मुठभेड़ के आंकड़े तो नही है लेकिन मेरी आत्मा कहती है कि ऐसा दुर्लभ संयोग पहली और आखिरी बार हुआ होगा जब एक निहत्था किशोर अपने से दूने वजन के एक व्यस्क भोटिया कुत्ते की चपलता और चालाकी को चकमा देकर उसकी गर्दन दबा कर उसकी पीठ पर सवार हो गया हो।
कुत्ते के यूं दौड पडने पर घर में दोपहर का भोजन कर रहे परिवार के लोग बाहर भागे। उन मे से दो प्रौढ़ पुरूष तेजी के साथ घटना स्थल की तरफ भागे जबकि बच्चो सहित बाकी परिवार के लोग हाथ मे थालियां लिए तमाशबीनों की तरह दरवाजे के बाहर ही खडे हो गये। वे बहुत डर गये थे, क्योंकि उनका यह कुत्ता उनके बहुत से आगंतुकों की पिंडलियों पर अपनी छाप छोड़ चुका था। नजदीक आकर उन्होंने मुआयना किया और पाया कि इतना भारी भरकम कुत्ता कैसे इस कमजोर से नजर आने वाले बच्चे के लपेटे मे आ गया। उन मे से एक ने नजदीक आकर मुझसे बडे अपनत्व के साथ पूछा, “इसने दांत तो नी लगाए”,
मैने ना मे सिर हिला दिया। वे नजदीक आए और उन्होंने कुत्ते को पट्टे से पकड कर सामने जहाँ बुनने के लिए खड्डी (हथकरघा) लगी थी, उसे लोहे की चैन से बाँध दिया। दूसरे वाले प्रौढ़ ने आकर मेरा मुयायना किया और पाया कि मुझे कहीं किसी प्रकार की कोई खरोंच तक नही आई है। आतंक के इस माहौल में प्रौढ़ मुस्कराए तो मै भी बिना मुस्काए नही रह सका। वे कहने लगे,
“डर गये थे क्या”,
मैने ईमानदारी से जवाब दिया
-डरने के लिए तो समय ही नही मिला,
“हिम्मत वाले हो”,
उन्होने अपनी छोटी छोटी आखों को और छोटा करते हुए जवाब दिया।
दरवाजे पर खड़ी एक महिला ने जब मेरे वहाँ आने का कारण पूछा तो मैने अपना वह हाथ, जिसमे रिबन लिपटी हुई थी, हवा में उठा दिया।
बगल में खड़ी अपनी लड़की को मेरी तरफ मुस्कुराते हुए देख रही उस महिला के चेहरे पर एक ऐसी मुस्कुराहट तैर गयी जो मुझे आज भी रोमांचित करती है।
रिपोस्ट (तस्वीर गूगल से साभार)