Wednesday, March 12, 2025
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केदारनाथ यात्रा…..! पर्यटन में तब्दील होती तीर्थ-यात्रा।

केदारनाथ यात्रा……..पर्यटन में तब्दील होती तीर्थ-यात्रा।

(डॉ.अरुण कुकसाल 20 जुलाई, 2019)


मैं जब भी केदारनाथ आया हूं, रातभर नींद उचकी रहती है। शिवगण, भक्तों को जगाते रहते होंगे। सन् 1980 में जब केदारनाथ पहली बार आया था तो सारी रात बंद कमरे के बाहर गैलरी में ठक-ठक होती रही। तब पूरी रात डर के साथ जागते हुए बिताई थी। सुबह पता चला वो कोई घोडा था, जो गेट खुला होने की वजह से अन्दर गैलरी में रात भर टहलता रहा।

इस समय भी रात के तीन बजे हैं, और बाहर आसमानी बादलों में मानों गृह युद्ध छिड़ गया है। उनकी आपसी भंयकर भिंडत से लग रहा है कि वे ‘मारो या मरो’ की नीति पर आपसी रंजिश इसी रात्रि को हमेशा के लिए निपटाना चाहते हैं।

परन्तु अभी-अभी हुए धमाके ने तो होटल के इस कमरे की दीवार पर भी कंपन ला दी है। लगा बादलों की गड़गड़ाहट नहीं, ये कोई बड़ा बारूदी विस्फोट है।

साथी लोग भी नींद का साथ छोड़ उचक कर बैठ गये हैं। सबको 16 जून, 2013 की याद सताने लगी है। ऐसा ही तो हुआ होगा उस रात को। मैं कहता हूं कि क्या पता केदारनाथ पुर्ननिर्माण काम के चलते कहीं विस्फोट किया गया हो।

‘इतनी रात इस तेज बारिश में काम हो रहा हो, ऐसा संभव नहीं है’, ये कहकर भूपेन्द्र मेरी इस शंका को पूरी तरह नकार देता है।

मैं कमरे से बाहर जायज़ा लेने आता हूं। आसमान की बिजलियां मानो कई चमचमाती तलवारें बनकर अपना जलव़ा बिखेर रही हों। बारिश है, पर तेज नहीं। बादलों की गड़गडा़हट ही बंबडर मचाये हुए है। वापस कमरे में आया हूं तो साथी लोग अपने-अपने मोबाइल पर व्यस्त हैं। सबको उत्सुकता है कि बाहर कैसा माहौल है।

‘कुछ नहीं, ऊंचे पहाड़ों पर ऐसा होता रहता है, सामान्य बात है, सब सो जाओ’ मैं कहता हूं।

फिर कौन-कब सोया, पता नहीं चला। हां, सुबह दरवाजे पर पंडित जी की ठक-ठक से सभी एक साथ जाग गए हैं।

केदारनाथ 30ं-44‘-15” उत्तरी अक्षांश और 79ं-6‘–33” पूर्वी देशान्तर में समुद्रतल से 3580 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर के दांये मेरु, बांये सुमेरु और पीछे महापंथ हिमालयी शिखर हैं। महापंथ शिखर की तलहटी में चौराबाड़ी ताल (3800 मी.) है।

चौराबाड़ी ताल मंदाकिनी और सरस्वती नदी का उदगम स्थल है। मंदाकिनी केदारनाथ मंदिर के दांये और सरस्वती बांये ओर से प्रवाहित होती है। मंदाकिनी के निकट से ही मधु गंगा और दुग्ध गंगा के उदगम श्रोत्र हैं।

केदारनाथ से बासुकी ताल (समुद्रतल से ऊंचाई 4135 मी) 8 किमी. की दूरी पर है। बासुकी ताल को ‘लैंड ऑफ ब्रहृमकमल’ भी कहा जाता है।

मान्यता है कि ब्रहृम और वशं हत्या के दोष से मुक्ति पाने के लिए पांडव गढ़वाल हिमालय में आये थे। इसी केदार भूमि पर शिव ने पांडवों को दर्शन न देने की मंशा से भैंसे का रूप ले लिया था। परन्तु सहदेव ने उन्हें पहचान लिया और अपने भाईयों को संकेत किया। यह जानकर भैंसे रूपी शिवजी भूमि में धंसने लगे, लेकिन उसका पृष्ठ भाग पांडवों के हाथ में आ गया, जो बाद में शिला में बदल गया था। वही शिला प्रथम केदार भगवान केदारनाथ हैं, जिन्हें 12वें ज्योर्तिलिंग के रूप में जाना जाता है।

शिव के अन्य 4 भाग गढ़वाल क्षेत्र में ही प्रकट हुए, जो कि मद्महेश्वर (नाभि-द्वितीय केदार), तुंगनाथ (भुजा-तृतीय केदार), रुद्रनाथ (मुख-चतुर्थ केदार) और कल्पेश्वर (जटा-पंचम केदार) के नाम से मशहूर हुए हैं।

केदारनाथ मंदिर के निमार्ण काल के बारे में कोई स्पष्ट मत नहीं है। प्रचलन में मूल मंदिर द्वापर काल में पांडव वंश के राजा जनमेजय का बनाया माना जाता है। आदि शंकराचार्य द्वारा 8वीं शताब्दी में इसे विस्तार दिया गया (उल्लेखनीय है कि शंकराचार्य जी की मृत्यु केदारनाथ में हुई थी।) ग्वालियर के राजा भोज (1076-99) की स्तुति में केदारनाथ मंदिर उनके द्वारा बनाये जाने का उल्लेख है। यह भी मत है कि गुजरात के चालुक्य वंशीय कुमार पाल (सन् 1143-73) ने केदारनाथ मंदिर का पुर्ननिर्माण कराया था।

यायावर लेखक राहुल सांकृतत्यायन ने केदारनाथ मंदिर का निर्माण काल 12वीं-13वीं शताब्दी घोषित किया है।

सुबह के 6 बजे हैं। मंदिर परिसर में भक्तों की लाइन लम्बी होती जा रही है। मौसम एकदम चटक और खिला है। मंदिर के पीछे हिमालय पर सूर्य की पहली किरण जो पड़ी, लगा सूर्य भगवान ने आदर की मुद्रा में खड़े शिखरों के माथों पर एक साथ स्वर्णिम टीका लगाया है।

रातभर उत्पात मचाने वाले बादल अब आसमान से गायब हैं। निचली घाटियों और अन्य दिशाओं से तेजी से आते कोहरे के झुण्ड भगवान केदारनाथ को रोज की प्रातःकालीन सेवा लगाने आ रहे हैं। आपस में टकराते हुए सबसे पहले मंदिर पहुंचने की उन्हें बहुत जल्दी है, मानों, उन्हें काम-धन्धे पर जाने की देर हो रही है। हमारे बांयी ओर दुग्ध गंगा का स्वींसाट (एकसार शोर) है। दूध की तरह सफेद दुग्ध गंगा का उद्गम स्थल बासुकी ताल है। दुग्ध गंगा के बगल में मधु गंगा भी है। लेकिन शर्मीली मधु गंगा पहाड़ी धार की ओट का पर्दा लिए हुए चुपचाप बड़ी बहिन मंदाकिनी से मिलने जा रही है।

मैं साथियों से कहता हूं कि मंदिर के पीछे के हिमालय को गौर से देखोगे तो शिव का साक्षात रूप उन शिखरों में आपको दिखाई देगा। परन्तु ये उन्हीं को दिखता है जो तन-मन से सच्चे आदमी होते हैं।

‘हां भाई सहाब, सच में इन शिखरों में शिव रूप दिखाई दे रहा है’, एक-एक कर सभी कहते हैं। मैं मुस्कराया तो जबाबी मुस्कराहट उनके चेहरों पर आनी स्वाभाविक है।

पंडित जी लाइन के आस-पास ही हैं। हमारे अलावा उनके कई और यजमान लाइन में खड़े हैं। वे केदारनाथ में हुए नव-निर्माण कार्य के बारे बता रहे हैं कि स्थानीय पत्थरों के साथ देश के अन्य स्थानों के बढ़िया पत्थरों का यहां प्रयोग हो रहा है।

केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे आदि गुरु शंकराचार्य की क्षतिग्रस्त समाधि स्थल को फिर से बनाया जा रहा है। स्थानीय लोगों के नष्ट हो गए भवनों को सरकार स्वयं बना रही है। ताकि कम जगह, एकरूपता और आर्कषक पहाड़ी शैली में उन्हें बनाया जा सके।

केदारनाथ मंदिर भूरे रंग के विशाल शिलाखण्डों से 6 फिट ऊंचे चबूतरे पर बना है। मंदिर के तीन भाग क्रमशः सभा मंडप, आरती कक्ष और गर्भ गृह हैं। मंदिर के 3 द्वार, पूर्व, पश्चिम और दक्षिण की ओर हैं। मुख्य प्रवेश द्वार दक्षिणाभिमुखी है, और उस पर राम, बलराम, भैरव, हनुमान आदि की मूर्तियां उकेरी गई हैं। प्रवेश द्वार के बांये ओर चतुर्भुज गणेश जी की पाषाण मूर्ति है। मंदिर के मुख्य द्वार के सामने भूरे बलवे पत्थर में नंदी मुंह उठाकर मंदिर को निहारते हुए विराजमान हैं।

केदारनाथ मंदिर दर्शन के बाद बांये ओर की पहाडी धार पर 2 किमी. दूर स्थित भैरव नाथ मंदिर हम जा रहे हैं। उस ओर का रास्ता केदारनाथ मंदिर के पीछे से घूमकर जाता है।

केदारनाथ मंदिर के पीछे पत्थर की विशाल एक शिला है, जिसे आपदा के बाद दिव्यशिला नाम दिया गया है। ये माना गया कि इस शिला के बीच रास्ते में आने से मंदिर क्षतिग्रस्त होने से रुक गया था। आने वाले समय में किसी भी बड़ी आपदा से बचाव के लिए केदारनाथ के चारों ओर एक मजबूत और ऊंची सुरक्षा दीवार बनाई जा रही है। दीवार पर आपदा से सम्बधित यादों को भी चित्रों और शब्दों से सार्वजनिक किया गया है।

इसी दीवार में एक जगह पर 16 जून, 2013 की आपदा को ‘हिमालयी सुनामी’ कहा गया है। इसमें उल्लेखित है कि उस समय इस इलाके में 375 प्रतिशत से भी अधिक बारिश हुई थी। चौराबाड़ी ताल (3800 मी.) में अत्यधिक पानी जमा होने के कारण वहां से लम्बे समय तक पानी का भंयकर जलजल़ा आया। अचानक आये इस जलप्रवाह में 197 लोगों की मृत्यु, 236 लोग घायल और 4029 लोग लापता हुए, जिन्हें बाद में मृत्यु मान लिया गया था। इस स्थल के पास ही एक ध्वस्त हालीकॉप्टर का कंकाल पड़ा है, जो कि उस समय की भयावहता की निशानी है।

चौराबाड़ी ताल से आने वाली सरस्वती नदी पर बना कच्चा पुल पानी के तेज प्रवाह से थरथरा रहा है।

‘भाई, पुल तो पार करना ही है, चाहे डर कर करो या मेरे जैसे बेधड़ होकर’, मैं पार पहुंच कर कहता हूं।

‘हम डरे नहीं जरा संभल कर आ रहे हैं’, मित्रों की खिसियाहट यूं बयां हुई है।

भैरव मंदिर एकदम ऊंचे और निर्जन स्थल पर है। यहां से केदारनाथ और नजदीकी क्षेत्र हवाई यात्रा के दौरान दिखाई देने वाले स्थलों जैसा लग रहे हैं।

इस स्थल को भैरव झांप भी कहा जाता है। यह जनश्रृति है कि पूर्व में इस मंदिर के निकट की भृगुतुंग शिला से कूद कर कई यात्री स्वेच्छा से अपनी जान देते थे। सीधे स्वर्ग जाने की इस प्रथा में मृत्यु का वरण करने वाले यात्रिगण पहले नवदुर्गा मंदिर में स्थित शिलाओं पर अपना नाम और तिथि को दर्ज कराते थे। अंग्रेज कमिश्नर जार्ज विलियम ट्रेल ने सन् 1833 में इस प्रथा को समाप्त कराया था।

भैरवनाथ मंदिर से वापस आकर हम फिर केदारनाथ मंदिर परिसर में हैं। मेरा मन बासुकीताल (8 किमी.) और चौराबाड़ी ताल (4 किमी) जाने का है। परन्तु साथियों का मन तो छोड़ो तन भी वहां जाने की कल्पना से ही धक-धक और थर-थर करने लगेगा। मौके की नजाकत़ को देखते हुए मेरा सुझाव है कि हम चौराबाड़ी ताल देखकर घर वापसी करें।

परन्तु खतरनाक हो गए रास्ते का बहाना सबके पास है। मेरी नजऱ में वहां का रास्ता टूटा जरूर है, पर खतरनाक अवस्था में नहीं है।

चलो, सामने वाली उस गुफा तक तो चलते हैं, जहां मोदी जी ने वहां रात्रि योग साधना की थी। कुछ तो हासिल हो जाय वाले बच्चे की मुद्रा में मैं सबसे विनीत करता हूं।

‘अजी कहां जाना वहां, वो तो बंद ही रहती है। जीएमवीएन के माध्यम से वहां की बुकिंग होती है। पर प्रबंधन के अभाव में ये सब प्रचार की शोशेबाजी तक ही सीमित है।’ पंडित जी ने ये कहकर मेरी सारी आशाओं पर विराम लगा दिया है।

परन्तु मेरी चौराबाड़ी नहीं जाने की खुन्दक कम नहीं हुई है।

मैं जोर से कहता हूं कि ‘घर से कहीं भी घूमने निकलो तो सबके लम्बे-लम्बे प्लान होते हैं, ये भी देखेंगे और वहां भी जायेंगे। पर जब वहां पहुंचों तो घर वापसी की बैचेनी आप जैसे नादान घुम्मकड़ों को होने लगती है। आप लोग घुम्मकड़ नहीं, घरघुस्सी जरूर हैं’।

मित्रों के पास हंसने के अलावा और कोई बहाना तो है नहीं, अपनी लाचारी को छुपाने के लिए।

हम केदारनाथ से वापसी के रास्ते पर हैं। केदारनाथ पुर्ननिर्माण कार्य में लगे कर्मवीर चारों तरफ दिखाई दे रहे हैं। द्वापर से लेकर इस कलियुग तक ऐसे ही जनूनी महारथियों के प्रताप से यह देवलोक सजाया-संवारा जाता रहा है।

निःसंदेह, जून, 2013 की विभीषिका के बाद केदारनाथ में जो कार्य हुए हैं, वे अदभुत और प्रशंसनीय हैं। वास्तव में, केदारनाथ का कायाकल्प हुआ है। ये साबित करता है कि सरकार, योजनाकार, सामाजिक कार्यकर्ता और आमजन यदि दृड-संकल्प और मिशन के साथ अपनी दायित्वशीलता को निभाते हैं, तो अजांम अवश्य सफल होते हैं।

केदारनाथ की नई मानव निर्मित खूबसूरती उत्तराखंड की धार्मिक एवं नैसर्गिक पहचान को विश्व पटल पर और लोकप्रियता प्रदान करेगी। परन्तु बढ़ती सुविधाओं के साथ बढ़ते यात्रियों के बदलते रंग-ढंग के प्रति भी सचेत रहने की आवश्यकता है। केदारनाथ जाना जितना आसान होता जा रहा है उतना ही यात्रा की पुरातन पवित्रता को बनाये रखना मुश्किल होता जा रहा है। उच्च धार्मिक आस्था का यह स्थल जब पर्यटक केन्द्र के रूप में उभरने लगेगा तो लोगों की चिन्ता और चिन्तन में गम्भीरता होनी स्वाभाविक है।

 

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