Saturday, July 27, 2024
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कालसी शिलालेख..! तो क्या जौनसार बावर के यमुना तमसा नदी क्षेत्र में ईसा से 250 वर्ष पूर्व यवनों का राज था?

कालसी शिलालेख..! तो क्या जौनसार बावर के यमुना तमसा नदी क्षेत्र में ईसा से 250 वर्ष पूर्व यवनों का राज था?

(मनोज इष्टवाल)

बड़ा प्रश्न है  व शोध  का बिषय भी….! क्या जौनसार बावर के यमुना तमसा नदी क्षेत्र में ईसा से 250 वर्ष पूर्व यवनों का राज था? है ना सिर घुमा देने जैसा बिषय! क्योंकि हम सब जानते हैं कि ईसा से 250 वर्ष पूर्व तो चक्रवर्ती सम्राट अशोक गद्दी पर विराजमान थे जिन्होंने लगभग सम्पूर्ण भारत बर्ष ही नहीं बल्कि वर्तमान में विश्व के कई देशों तक अपना राज्य विस्तार किया। मौर्य सम्राट अशोक ने अपने राज्य, जिसकी सीमाएं आधुनिक भारत, पाकिस्तान, चीन, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल तक फैली थी, कलिंग युद्ध के बाद सम्पूर्ण राज्य में चतुदर्श शिलालेख (14 शिलालेख चट्टानें), लघु शिलालेख, बड़े स्तम्भ लेख / सप्त स्तम्भ लेख, लघु स्तम्भ लेख, व गुफा लेख लिखे  गए.

अशोक के विभिन्न अभिलेख में ब्राम्ही ,खरोष्ठी ,ग्रीक और अरामाइक लिपि का प्रयोग हुआ है। ग्रीक और अरामाइक लिपि के अभिलेख अफगानिस्तान से खरोष्ठी लिपि के अभिलेख उत्तर पश्चिम पाकिस्तान से और अन्य उसके अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं जो भारत के अन्य भागों से प्राप्त हुए हैं।

उसके शिलालेख की खोज सर्वप्रथम पाद्रेटी फैंथलार ने सन् 1750 ईस्वी में की थी । इस पढ़ने में सबसे पहले सफलता जेम्स प्रिंसेप को 1837 में हुई थी। ये ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि को अनुवाद करने में सफल हुए थे।अशोक के विभिन्न अभिलेख में उसे देवानाम प्रिय प्रियदर्शी कहा गया है।

मौर्य सम्राट अशोक के अब तक कुल प्राप्त हुए चौदह शिलालेखों में से एक विशाल शिलालेख प्राप्त हुआ था देहरादून से सत्तावन किलोमीटर दूर कालसी नामक स्थान के समीप प्राप्त हुआ । तब कालसी जौनसार बावर क्षेत्र की एक मंडी के रूप में प्रचलित थी  व छोटी बड़ी जरूरतों का सामान यहीं से यमुना व तमसा वैली में पहुँचता था। ब्रिटिश शासन काल में अर्थात सन 1860 ई.में (1820 ए.डी.) में फॉरेस्ट के कर्मचारियों को सर्व प्रथम इसका पता चला, तब यह चारों ओर से मिटटी से दबी हुई चटटान मात्र दिखाई पड़ रही थी।  अशोक के 14 शिलालेख हिमालय से लेकर काठियावाड, मैसूर, उड़ीसा, तक प्राप्त हुए हैं। अशोक के राजतिलक के चौदहवें वर्ष और ईसा से 250 वर्ष पूर्व कालसी के शिलालेख में अंकित है।

कालसी का शिलालेख सम्राट अशोक के राज्यभिषेक के 12 वें बार लिखा गया है जो 14 चट्टानी  शिलालेखों में तेहरवां शिलालेख माना जाता है। इसकी प्राकृत भाषा का ही रूप है, जो संस्कृत, पाली साहित्यिक ग्रंथों की भाषा से सामंजस्य रखती है। अधिकांश शब्द जो कहीं नहीं दिखाई पड़ते हैं इस और इन जैसे शिलालेखों में देखने को मिलते हैं। ब्राम्हिलिपि बाएं से दाएं चलती है जो दूसरी अन्य लिपियों की जन्मदात्री है।
छत्रशिला नामक स्थान  कालसी में 263 ई. पूर्व से 257 ई. पूर्व के मध्य प्राप्त इस बिशाल चट्टानी  गोलाई लिए शिला पर ब्राह्मी लिपि में प्राकृत/ संस्कृत भाषा में लिखा यह लेख अद्भुत है। छत्रशिला को अपभ्रन्श भाषा में स्थानीय लोग चित्रशिला भी पुकारते हैं। इस शिला का पता सी. ई. फारेस्ट नामक ब्रिटिश ने 1860 में लगाया जिसको ई सेनार्ट नामक लिपि बिशेषज्ञ ने 1881 में “ले. इंसर्कियशंस दे पियदसि” में कनिंघम लिप्यांतर (1874 ई.) के रूप में किया।
भूतल पर लगभग 08 सवा आठ फिट मोटा, 10 फिट ऊँचा व 10 फिट गोलाई लिए लम्बे इस शिलालेख पर अधिकांश 39 पंक्तियाँ पूर्ब मुख  (5’x 51/4′ परिष्कृत भाग) व अल्पांश 23 पंक्तियाँ दक्षिण मुख में उत्कीर्ण की गई हैं जो निम्नवत इस तरह पढ़ी गई हैं :-
प्रथम शिलालेख – ” इयम धम्मलिपि (कुछ शब्द मिटे हुए) देवानमपियम पियदसिना लनैपिहिद नौ किच्च – जीव आतात्मिक पजा हितव्य नो पिच  समाजे कत्तव्य बहुकम ही दोषा समेजषा देवतमपिस पियदसि लाजा दरवति अथि पीचा एकतिया समाजा साधूगत देवानम पिपासा पियदसिसा लाजिने पले महानसांसि देवनस पियसा दियदसिस लाजिने अनुदिवसस बहुनिसत सहसानि आलमाभिड़स सुपथाय से इमानि यदा इयम धम्मलिपि लेखित तदातनेय विपनानि आलाभियानी देवमजललि एके मिगे से पिये मिगेनो धये ऐसानि पि।
तिनी पानानि………………. ना अलभि इसन्ति”
द्वितीय शिलालेख – “सवत पिजितम्सि देवानम पियसा पियदसिस लाजिनै पैचअत्ता यथ चौड़पंडिया साहित्य पुत्तो-केरल पुत्तो -तम्वएन्दि अंतियोगे नमा षोंन लाज्ञाने च अलते तस अंतियोगे सामाना लाजाने संवत देवनाम पियसा पियदसिसा लाजिने दुवे चिकिसाया कत मनुस चिकिसा च पशु चिकिसा ना ओसधानि-मनुसोपगानि च परगोपगानि च आत ता नाथि सवता हालपिता च लोयपिता च सवमेव गुलानि च फलानि च कपता -नाथ संवत होलोपित चा लोयपिता च मतैधु-लुखा च माहिथानि उदयानानि -“
खाना पिता नि पति भोगाय वसुं मुनिसानम् –
तृतीय अभिलेख – “देवानम पिये पियदसि लाजा देवम मगध धुवादसा वसा भिसिते नमे इयम आनपयिते सवता पिजितासी ममयुता-लजकि-पाये-सिके-पंचसु वसेसु अनुसायानम निखमातु यता यवा अधामें….”
इमाय धम्मुसाथिया यथा औनय पिकम्माने साधुमात-पितासु-सुसुसा-मित-संधुत नाटिक्यनम् च बम्मन समणानम च साधुदाने पनान आवलम्भौ साधु-उपवियाति अथभिन्दन साधु पालिसापि पुता मनानसा अनपेडसन्ति हेतु वता चा व्यंजन ते च।
हिंदी अनुवाद – यह अभिलेख देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने लिखवाया है। यहाँ (मेरे राज्य में ) कोई जीव मारकर होम न किया जाए, और समाज (मेला, उत्सव, गोष्ठी जिसमें हिंसा आदि  होती है ) न किया जाए। क्योंकि देवताओं के प्रियदर्शी राजा (ऐसे) समाज में बहुत दोष देखते हैं, परन्तु एक प्रकार के (ऐसे) समाज (मेले उत्सव) जिन्हे देवताओं के प्रियदर्शी राजा अच्छा समझते हैं। पहले देवताओं के प्रियदर्शी  राजा की पाकशाला में प्रतिदिन कई हजार जीव सूप (शोरबा) बनवाने  में मारे जाते थे। यह सबसे जबसे यह धर्म लिखा जा रहा हैं। केवल तीन जीव ही (प्रतिदिन) मारे जाते हैं (भविष्य में) यह तीनों प्राणी भी नहीं मारे जाएंगे।
2- देवताओं के प्रियदर्शी राजा के जीते हुए प्रदेश में सब जगह तथा जो सीमावर्ती राज्य हैं, जैसे – पोड, पांडय, सत्यपुत्र, केरलपुत्र, ताम्रपणी वहां  तथा अन्योक नामक यवन-राजा और जो सबके देशों में देवताओं के प्रिय – प्रियदर्शी राजा ने दो प्रकार की चिकित्सा के लिए औषधियां भी मनुष्यों और पशुओं के लिए जहाँ तहाँ नहीं थी, वहां -वहां लाई व रोपे गई हैं। मार्गों में पशुओं और मनुष्यों के आराम के लिए वृक्ष लगाए गये, और कुंवें खुदवाये गये हैं।
3- देवताओं के प्रियदर्शी राजा ऐसा कहते हैं – राजभिषेक के बारह बर्ष बाद मैंने यह आज्ञा दी है  कि मेरे राज्य में सब जगह युक्त, रज्जुक, और प्रादेशिक नामक कर्मचारी पाँ-पाँव-पाँच बर्ष भर इसी काम के लिए तथा और कार्यों के लिए। यह प्रचार करते हुए दौरा करें, कि “माता-पिता की सेवा करना अच्छा है, मित्र, परिचित, स्वजाति, बाँधव तथा ब्राह्मण को दान देना अच्छा है, थोड़ा व्यय और थोड़ा संचय करना अच्छा है, अमात्यों की परिषद भी मुक्त नामक कर्मचारियों को आज्ञा देगी कि वे इस नियमों के वास्तविक भाव और अक्षर के अनुसार इनका पालन करें।
कालसी का यह अभिलेख पूर्णतः ब्राह्मी लिपि में अर्थात संस्कृत भाषा में नहीं बल्कि प्राकृत भाषा में है। ऐसा सभी विद्वानों का मानना है। क्योंकि कालसी कई कालखंडो से धर्मग्रन्थ व इतिहास की पुस्तकों में अपना गौरवमयी इतिहास दर्ज करती नजर आई है। व सम्राट अशोक का यहाँ शिलालेख इस बात की प्रामाणिकता साबित करता है कि आज से लगभग 3000 बर्ष पूर्व भी कालसी एक सुसज्जित शहर के रूप में रहा होगा जिनके एक चट्टानी भू-भाग पर यह शिलालेख लिखकर मौर्य सम्राट अशोक ने अपनी प्रजा को राजाज्ञा निर्देश जारी किये हैं। ऐसे में पोड, पांडय, सत्यपुत्र, केरलपुत्र, ताम्रपणी राज्य या राजाओं जोकि कालसी क्षेत्र के आस पास रहे होंगे उनके लिए भी स्पष्ट राजाज्ञा इस शिलालेख के माध्यम से दिए गये हैं जबकि तत्कालीन यवन राजा अन्योक को
अलग से निर्देशित किया गया है। जिसका सीधा सा अर्थ है कि तब यह क्षेत्र यमुना नदी का तट छोर होने के कारण यवन राजा अन्योक के अधीन  रहा होगा। यवन का भावार्थ यवन =युवा, जौवन, जौवन इत्यादि से लगाया जाता है। यवन से ही यवनसार की उत्पत्ति मानी  गई  है और यही यवनसार अपभ्रंश होकर जौनसार हुआ है। तो क्या जौनसार क्षेत्र के लोग 3000 बर्ष पूर्व से अधिक समय से यहाँ रह रहे हैं व ये लोग राजा अन्योक के वंशज व प्रजा हैं? इस पर अभी भी व्यापक शोध की आवश्यकता है लेकिन मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि जौनसारी जनजाति हमेशा ही हिमालयी भू-भाग की निवासी रही है व ये लोग व इनकी परम्पराएँ यवनों से मिलती जुलती हो सकती हैं।
Himalayan Discover
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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