Saturday, July 27, 2024
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319 साल पूर्व रूस में प्रदर्शित हो चुका है शकुन्तला-दुष्यंत प्रेम प्रसंग पर आधारित कालिदास का नाटक “अभिज्ञान शाकुंतलम”। फिर भी उपेक्षित है मालन नदी घाटी।

319 साल पूर्व रूस में प्रदर्शित हो चुका है शकुन्तला-दुष्यंत प्रेम प्रसंग पर आधारित कालिदास का नाटक “अभिज्ञान शाकुंतलम”। फिर भी उपेक्षित है मालन नदी घाटी।

(मनोज इष्टवाल)

यूरोपीय इतिहासकार और साहित्यकार ही नहीं बल्कि भारत बर्ष के सेक्युलर साहित्यकार भी नाटकों की उत्पत्ति का केंद्र यूनानी मूल ही मानता है लेकिन यह अचम्भित कर देने वाली बातें सामने आती हैं कि दूसरी शताब्दी से लेकर चौथी-पांचवीं शताब्दी तक दुर्लभ नाट्य मंचनों का जिक्र भारतीय नाट्यशास्त्र कृतियों में ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक परिदृश्य में भी दिखने को मिलता है, जो साबित करता है कि यूनानी नाट्यकला भारतीय नाट्य शास्त्र व नाटकों के बुढिया जाने के बाद भी जन्म नहीं ले पाई थी। ऐसे में यूनानी मूल के नाटकों को विश्व भर में नाट्यशास्त्र ला जन्मदाता मानने वाले ऐसे साहित्यकार, इतिहासकार व नाट्यकारों को भूतकाल के आईने में अपनी तस्वीर ढूंढनी चाहिए।

यह पीडादायक व असहनीय जरुर है कि भारत की सुप्रसिद्ध संग्राहलयों में अभाग्यवश कुषाण काल के बहुत कम साहित्यिक ग्रन्थ ही अब संग्रहित बचे हैं। ईस्वी संवत की प्रारम्भिक शताब्दियों में संस्कृत साहित्य के बारे में हमारी ज्यादात्तर जानकारियाँ गुप्तकालीन ही हैं जो अश्वघोष से शुरू होकर कनिष्क के राज्यकाल से जोड़कर देखा जाता है। अश्वघोष के नाटक बुद्धचरित के बारे में सातवीं सदी में भारत आये चीनी यात्री इत्सिंग ने लिखा है कि “उसका लिखा काव्य पाठक के हृदय को इतना उल्लसित कर देता है कि वह बार-बार पढ़कर भी अघाता नहीं है।”

अश्वघोष को प्राचीन नाटकों की नींव रखने वाला फाउंडेशन स्टोन भी कहा जाता है क्योंकि उनके बाद भास, कालिदास व शूद्रक सुप्रसिद्ध नाटककारों का जन्म दूसरी से लेकर पांचवीं शताब्दी तक माना गया है जिन्होंने राजा-रजवाड़ों पर अपनी साहित्यिक रचनाएं या संस्कृत काव्य नाट्य ही नहीं लिखे बल्कि उस काल में इनका भरपूर प्रदर्शन नाट्य मंचनों के माध्यम से भी हुआ है। यह अलग बात है कि सभी नाट्य ग्रन्थों के इन रचनाकारों ने कालिदास की बिशिष्टता को सबसे अलग मानते हुए कहा है कि इन्होने राजा-महाराजों और रानियों के यशोगान को ही नहीं बल्कि उनके कुकृत्यों को भी अपने नाटकों में प्रमुखता से छापा है। मुझे लगता है कि कालिदास चौथी-पांचवीं शताब्दी के ऐसे नारद-पत्रकार साहित्यकार, नाटककार रहे हैं जिन्होंने न सिर्फ अपने साहित्य में रजवाड़ों के महत्व को दर्शाया है बल्कि जनता जनार्दन का भी भरपूर पक्ष रखा है और यही कारण भी रहा है कि राजा दुष्यंत को अंतत: ऋषिपुत्री शकुन्तला व उनके पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत को स्वीकार करना पड़ा।

“अ हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया” में को.अ. अन्तोनोवा, ग्रि.म. बोंगर्द-लेविन, ग्रि.ग्रि. कोतोव्स्की (रूसी लेखक) महाकवि कालिदास के बारे में जानकारी देते हुए लिखते हैं कि “कालिदास की सभी कृत्यों का केंद्र बिंदु मनुष्य और उसके भावोद्वेश, उसका सांसारिक कार्यकलाप, उसके सुख-दुःख हैं। उसका कृतित्व अश्वघोष की तुलना में, जिसने बुद्ध और बुद्ध के शिष्यों का आदर्शीकृत चित्र प्रस्तुत किया था, एक उल्लेखनीय अग्रचरण का परिचायक है! कालिदास के बहुतेरे चरित्र नायक राजा-महाराजा है। कवि न केवल उनके कारनामों का प्रशस्तिगान करता है, वरन अपयशकारी कार्यों की भी निंदा करता है। कालिदास की कुछ कृतियाँ महाकाव्यलेखन की प्रगति की सूचक है।” (हिंदी अनुवाद नरेश वेदी, दद्दन उपाध्याय भारत का इतिहास पृष्ठ २२१)

कालिदास प्राचीन साहित्य रत्नों में प्रमुख गिने जाते हैं, उनका संस्कृत नाटक “अभिज्ञान शाकुंतलम” मालन नदी घाटी सभ्यता का तो धोतक है ही, साथ ही इस घाटी में स्थित कण्वाश्रम हेमकूट पर्वत शिखर क्षेत्र में वैदिक काल के ऋषियों जिनमें ऋषि कण्व, विश्वमित्र, दुर्वासा, कश्यप इत्यादि की तपोस्थली का भी बखूबी वर्णन कर अपने नाटक के माध्यम से उसका खूबसूरत वर्णन व चित्रण करते हैं। “अ हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया” में को.अ. अन्तोनोवा, ग्रि.म. बोंगर्द-लेविन, ग्रि.ग्रि. कोतोव्स्की (रूसी लेखक) कालिदास के सम्बन्ध में लिखते हैं कि “उनकी कृतियाँ विश्व संस्कृति के इतिहास में शानदार पृष्ठ है! कालिदास की कृतियों के अनुवाद अट्ठारहवीं शताब्दी के अंत में पश्चिम पहुंचे और उनका आरम्भ से ही परमोल्लास-पूर्वक स्वागत किया गया! रूस में कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम के कुछ अंश १७९२-९३ में निकोलाई करामजीन ने किया था। अपनी भूमिका में करामजीन ने लिखा था कि इस नाटक में अनुपम सौन्दर्य की कविता है और वह श्रेष्ठतम कला का एक उदाहरण है। कालिदास की लेखनी से बहुत सी रचनाएँ प्रसूत हुई प्रतीत होती हैं, किन्तु अभी तक विद्वान् उसके तीन नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम, मालविकाग्निमित्र तथा विक्रमोर्वशीय और एक काव्य मेघदूत तथा दो महाकाव्य कुमारसम्भव और रघुवंश– की ही खोज कर पाये हैं।” (हिंदी अनुवाद नरेश वेदी, दद्दन उपाध्याय भारत का इतिहास पृष्ठ २२०-२२१)

महाकवि कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम के अनुसार मालिनी नदी के तट पर स्थित कण्वाश्रम का वर्णन के प्रमाण “अभिज्ञान शाकुंतलम” के अलावा भी तमाम पौराणिक ग्रंथों में मिलता है। ‘स्कंद पुराण’ के 57वें अध्याय में उल्लेख है कि मालिनी नदी के तट पर जो कण्वाश्रम नंदगिरि तक विस्तृत है, वहां संपूर्ण लोकों में विख्यात महातेजस्वी कण्व ऋषि का आश्रम है।

महर्षि कण्व की तपस्थली, मेनका-विश्वामित्र, शकुंतला व राजा दुष्यंत की प्रणय स्थली व उनके तेजस्वी पुत्र भरत की जन्म स्थली रहा है। महाभारत के संभव पर्व-72 में भी इसका उल्लेख है।

ज्ञात हो कि प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू 1955 में रूस यात्रा पर गए थे। उस दौरान उनके स्वागत में रूसी कलाकारों ने महाकवि कालिदास रचित “अभिज्ञान शाकुंतलम” की नृत्य नाटिका प्रस्तुत की। एक रूसी व्यक्ति ने पं. नेहरू से कण्वाश्रम के बारे में जानना चाहा, लेकिन पंडित नेहरू को इस बारे में जानकारी न थी। वापस लौटते ही पं. नेहरू ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद को कण्वाश्रम की खोज का दायित्व सौंपा। 1956 में प्रधानमंत्री पं. नेहरू और उ.प्र. के मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद के निर्देश पर तत्कालीन वन मंत्री जगमोहन सिंह नेगी कोटद्वार पहुंचे और चौकिघाट कण्वाश्रम में चक्रवर्ती सम्राट भरत का स्मारक  बनाया, जो आज भी मौजूद है। अविभाजित उत्तर प्रदेश के दौर से और उत्तराखंड अलग राज्य बनने के बाद से आज तक भाजपा और कांग्रेस सरकारों की ओर से कई बड़ी घोषणाएं की गई। लेकिन कण्वाश्रम को आज तक कोई खास पहचान नहीं मिली।

गढ़वाल विवि के प्राचीन इतिहास, संस्कृति व पुरातत्व विभाग की टीम ने भी तीन मूर्तियों व दो स्तंभों को अपने संग्रहालय में रखा है। ये मूर्तियां व स्तंभ दसवीं व 12वीं शताब्दी के हैं। इस कालखंड में उत्तराखंड में कत्यूरी वंश का एकछत्र राज था।

अब जब हम “अभिज्ञान शाकुंतलम” के आधार पर मालन घाटी के इतिहास को लगभग 2000 बर्ष बाद तलाश रहे हैं तब स्वाभाविक सी बात है कि कत्युरी राजवंश के स्वर्णिम काल में भी इस पर वृहद कार्य हुआ होगा। कालान्तर में मालन नदी घाटी में कई आपदाओं ने दस्तक दी और उसी का हश्र ये रहा कि यहाँ जितने भी 12वीं सदी या उससे पूर्व के पाषाण भवन/मन्दिर/महल निर्मित रहे वे सब जमींदोज हो गए और अब हर बरसात के साथ यहाँ से मूर्तियाँ मालन नदी के छोरों पर नदी मार्ग से उबलकर बाहर आकर अपनी वजूद का प्रमाण देती नजर आती हैं। अब इन्तजार है तो सिर्फ इतना कि कब इस घाटी के सपूत इसकी खुशहाली की आवाज उठाएंगे और कब यह घाटी सरसब्ज होगी!

 

 

 

 

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