Thursday, June 19, 2025
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काफल पाको मिल नि चाखो….! आखिर क्यों चैत्र-बैशाख में चिल्लाती रहती है चिड़िया?

 काफल पाको मिल नि चाखो….! आखिर क्यों चैत्र-बैशाख में चिल्लाती रहती है चिड़िया?

(मनोज इष्टवाल)

देवभूमि उत्तराखंड की धरा को आदिदेव महादेव ने जहाँ वन औषधियों से सरसब्ज रखा वहीँ वन्य जीव जंतुओं के जीविकोपार्जन हेतु अकल्पनीय पुष्प व वन्य फल वृक्ष भी इस धरा को दिए हैं। काफल फ्रूट बेल्ट तमसा नदी से लेकर नेपाल के पश्चिमी क्षेत्र तक फैली हुई है लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि हिमाचल के सिर्फ उत्तराखंड क्षेत्र से लगे क्षेत्र में ही कहीं कहीं काफल दिखाई देते हैं! नेपाल के भझांग जिले का लोकगीत “बेडू पाक्यो बडमासा, नारेणा काफल पाक्यो चैता” उत्तराखंड के अल्मोड़ा आते ही उत्तराखंड का सबसे चर्चित गीत बन गया व इसके गीतकार दो लोग कहलाने लगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि सिर्फ इस लोकगीत की इंट्रो लाइन व एक अंतरा पंक्ति “अफ्फु खान्यो पान सुपारी, नारेणी मुई पिलांदी बीड़ी” ही नेपाल क्षेत्र की रह गयी है बाकी इसमें कुमाऊं मंडल व गढ़वाल मंडल में कई बदलाव आये हैं।

हाल के दिनों में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भेंट कर उन्हें काफल भेंट किये। काफल का स्वाद प्रधानमंत्री मोदी को इतना पसंद आया कि उन्होंने इस संबंध में मुख्यमंत्री धामी को पत्र लिख उसकी प्रशंसा की। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की काफल पार्टी की टैग लाइन थी “बेडू पाको बारामासा, नारेणी काफल पाको चैता” जरुर यह प्रेरणा देती है कि कुछ तो अलग है इस वन्य औषधीय फल में…! पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने उत्तराखंडी उत्पादों की जो स्वयं में मार्केटिंग की है, वह यकीनन लाजवाब है। वर्तमान में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की पोटली “हाउस ऑफ़ हिमालया” में भी वही ऑर्गनिक उत्पाद हैं जो उत्तराखंड से अन्तर्राष्ट्रीय बाजार तक फ़ैल चुके हैं।

काफल से जुडी गढ़वाल और कुमाऊं में दो अलग-अलग कहानियाँ हैं. दोनों ही बेहद मार्मिक हैं. कुमाऊं में भी अकाल के दौर से जुडी कहानी है और गढ़वाल में भी!

कुमाऊं मंडल की कहानी भी अकाल के समय की है और गढ़वाल की भी काफल से जुड़ी है, लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जो यह बता सके कि यह किस दौर के अकाल की है।

कुमाऊं मंडल में काफल से जुड़ी लोककथा

लोककथा कहें या लोकगाथा….! किंवदन्ती या फिर कहानी ? सबका एक ही मूल है कि जब अकाल पड़ा तब वह घटना घटी। कुमाऊं मंडल के रिकार्डेड अकाल में निम्नवत अकाल आते हैं:-

1794-95 का अकाल:

गढ़वाल के साथ-साथ कुमाऊँ क्षेत्र भी इस दौरान अकाल से प्रभावित था। खराब मानसून और प्राकृतिक आपदाओं ने फसलों को नुकसान पहुँचाया, जिससे खाद्य संकट पैदा हुआ। इस अकाल ने कुमाऊँ मेंचंद वंश के शासन को कमजोर किया और गोरखा आक्रमण (1790 के बाद) के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल बनाईं।

1896-97 का अकाल:

यह अकाल पूरे उत्तर-पश्चिमी भारत, जिसमें कुमाऊँ और गढ़वाल शामिल थे, मानसून की विफलता और खाद्य आपूर्ति की कमी ने कुमाऊँ के पहाड़ी क्षेत्रों में भुखमरी और कठिनाइयाँ बढ़ाईं। अल्मोड़ा और नैनीताल जैसे जिलों में फसल उत्पादन में भारी कमी दर्ज की गई। इस दौरान ब्रिटिश प्रशासन की नीतियों, जैसे खाद्य निर्यात और कर वसूली, ने स्थिति को और गंभीर किया।

1899-1900 का अकाल (छप्पनिया अकाल):

यह अकाल उत्तर भारत में विशेष रूप से राजस्थान, उत्तर प्रदेश, और उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में गंभीर था। कुमाऊँ के कुछ हिस्सों, खासकर नैनीताल और ऊधमसिंह नगर के तराई क्षेत्रों में, इस अकाल का प्रभाव देखा गया। वर्षा की पूर्ण कमी ने खेती पर निर्भर कुमाऊँ की जनता को प्रभावित किया। स्थानीय स्तर पर, इस अकाल को “छप्पनिया अकाल” के नाम से जाना गया, क्योंकि यह विक्रम संवत 1956 (1899-1900) में पड़ा।

उपरोक्त संदर्भों के आधार पर यह कह पाना जरा कठिन सा प्रतीत होता है कि काफल से जुडी लोक प्रचलित कथा किस काल की है। कहानी सन्दर्भों में कहानी कुछ आगे यूँ बढती है कि एक अकालग्रस्त परिवार में एक पति-पत्नी की एक बेटी थी, जिसकी भूख शांत करने के लिए पिता सुदूर जंगल में काफल लेने चला जाता है लेकिन वह शाम को घर नहीं लौटता। बेटी और पत्नी इन्तजार करती भूख से कुम्हला जाती हैं। सुबह जंगल से जब सभी काफल लाने वाले लौटते हैं और बताते हैं कि उसके पिता को जंगल में काफल चुनते समय मार दिया है तो भूखी प्यासी माँ बेटियाँ दम तोड़ देती हैं।

गढ़वाल में काफल से जुडी लोककथा:-

गढ़वाल में भी कुमाऊं की तरह ही तीन सदियों के बड़े अकाल सामने आते हैं जिनमें 1794-95,1860-61,1896-97,1899-1900 प्रमुख हैं।

1794-95 का अकाल:

गढ़वाल क्षेत्र में 1794-95 के दौरान एक गंभीर अकाल पड़ा था। इस समय क्षेत्र प्राकृतिक आपदाओं और खराब मानसून के कारण भयंकर त्रस्त व प्रभावित रहा। यह अकाल इतना गंभीर था कि इसने स्थानीय आबादी अकाल के कारण इतने प्रभावित हुए कि धडाधड की अकाल मृत्यु होनी शुरू हो गयी और एक बड़ी आबादी इस अकाल के कारण गढ़वाल ने गंवाई इसी दौर में गोरखा आक्रमणकारियों के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल हुई, लोग पहले से ही कमजोर स्थिति में थे ऊपर से गोरखाओं ने आक्रमण कर रही सही कमी कसर भी पूरी कर दी, जनमानस अपने गाँव छोड़ जंगलों के कंद-मूल फल पर निर्भर रहने लगे।

19वीं सदी में अन्य अकाल:

भारत में 19वीं सदी के अंत में कई बड़े अकाल पड़े, जैसे 1860 के बाद के अकाल और 1896-97 का अकाल ने गढवाल पर ज्यादा प्रभाव नहीं दिखाया लेकिन इस अकाल ने मुख्य रूप से बुंदेलखंड, बिहार, बंगाल, और राजस्थान जैसे क्षेत्रों में प्रभावित किया। गढ़वाल जैसे पहाड़ी क्षेत्र भी मानसून की विफलता और खाद्य आपूर्ति की कमी से आंशिक रूप से प्रभावित हुए। 1896-97 के अकाल ने उत्तर-पश्चिमी प्रांतों (जिसमें गढ़वाल का कुछ हिस्सा शामिल था) को प्रभावित किया। इस दौरान खाद्य की कमी और मवेशियों की हानि ने स्थानीय लोगों के भी मारे जाने की खबर रही लेकिन यह अकाल 1794-95 जैसा कोहराम मचाने वाला नहीं रहा।

1899-1900 का अकाल:

यह अकाल पश्चिमी और मध्य भारत में प्रमुख था, लेकिन उत्तर-पश्चिमी प्रांतों (जिसमें गढ़वाल का हिस्सा शामिल था) के कुछ क्षेत्र भी प्रभावित हुए। गढ़वाल में खाद्य उत्पादन में कमी और मवेशियों की हानि इस दौरान दर्ज की गई। यह अकाल 1896-97 के अकाल से उबरने से पहले ही आ गया था, जिसने स्थिति को और गंभीर बनाया और इस स्थिति ने पुन: खेतों से प्राप्त अन्न की कमी, सरकारी खाद आपूर्ति के कारण ग्रामीण को कंद मूल फल पर निर्भर रहने को मजबूर कर दिया। यह ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीन गढवाल का वह दौर था जिसने अकाल की बड़ी आपदा का समाना किया।

लोककथा:

काफल सम्बन्धी लोक कथा अप्रैल, मई माह (चैत्र- बैशाख) में तब सामने आती है जब दो चिड़ियायें जंगलों में, गाड़-गदेरों में और गाँव के आस-पास पेड़ों में बैठकर करुण क्रुन्दन करती सुनाई देती हैं – “काफल पाको, मिन नि चाखो”

इस संदर्भ में जो अनुश्रुति लोककथाओं के माध्यम से सामने आती है कि एक विधवा की एक मात्र बेटी थी। विधवा का पति इसी अकाल का भागी बन स्वर्ग सिधार जाता है। जैसे-तैसे उसकी पत्नी व बेटी बाख जाते हैं। पत्नी के लिए समस्या यह थी कि वह इस अकाल से कैसे करके अपने व अपनी बेटी के प्राणों की रक्षा करे। सर्दियां गुजर चुकी थी। बसंत आ गया लेकिन फसल के अंकुर अभी तक खेतों में बोये बीजों से बाहर नहीं आये थे। अब चैत्र आगमन हो गया था। माँ भूख से व्याकुल कंडी उठाकर जंगल चली जाती है ताकि काफल लाकर अपना व अपनी बेटी के प्राणों की रक्षा कर सके। सुबह से जंगल गई माँ का इन्तजार कर रही बेटी पानी पी-पी कर पापी पेट को सांत्वना देती रही कि बस अब माँ आती ही होगी। आखिरकार दिन दोपहरी माँ जंगल से लौटती है। उसका चेहरा खिला देख बेटी की आँखों में आस की किरण और पैदा होती है । वह समझ गयी थी कि माँ टोकरी भर काफल लाई है। माँ पीने के लिए पानी मांगती है लेकिन पानी तो बेटी पी चुकी थी। माँ को गुस्सा आता है और गागर उठाकर गाँव से दूर पनघट की तुर्र-तुर्र धार में पानी भरने चली जाती है व बेटी के आगे काफल की टोकरी रख कहती है कि जब तक मैं नहीं आती तब तक काफल का एक भी दाना मत खाना।

भूख से आकुल व्याकुल बिटिया माँ के जाने के बाद काफल की टोकरी का उपरी ढक्कन उठाकर रक्तिम काफलों को देखती भर है। सोचती है दो चार दाने खा लेती हूँ ताकि पेट की आग थोड़ा कम हो। लेकिन फिर सोचती है पहले ही माँ गुस्सा होकर पानी लेने गयी है, काफल कम देखेगी तो मुझ पर फिर गुस्सा निकालेगी। वैसे ही गर्मी का मौसम था। बिटिया एक तक काफल देखती रहती है। रसीले काफल देख सूखे होंठों पर जीब फेरती है फिर दूर पनघट पर गई माँ की राह देखती है। यह उपक्रम वह कई बार करती है। बूँद-बूँद पानी से भर्ती गागर भी माँ बेटी के सब्र का शायद इम्तहान ले रही थी। थकी मांदी बेटी काफलों की चौकीदारी करते करते वहीँ सो जाती है। माँ जब पानी लेकर लौटती है तो देखती है बेटी सोई हुई है व काफल की टोकरी का ढक्कन खुला है। अब तक टोकरी में रखे काफल गर्मी के कारण रिसकर कम हूँ गए थे। माँ को गुस्सा आया और उन्होंने बेटी को गुस्से में झकझोर कर उठाया और कहा – मैंने तुझे मना किया था काफल मत खाना और तू खाकर सो भी गयी ! बड़ी ढीट हो गई है। भूख से व्याकुल बेटी कहती है न माँ मैंने काफल नहीं चखे। माँ को लगता है कि बेटी झूठ बोलना सीख गयी है, वह गुस्से में उसे एक थप्पड़ रसीद देती है। बेटी वहीँ प्राण त्याग देती है। माँ जब उसे हिलाकर देखती है और उसे झकझोरती है तो बेटी कोई जबाब नहीं देती। माँ सोचती है यह फिर सो गयी है। माँ कहती है देख ‘काफल पख गए हैं’ लेकिन बेटी का कोई जबाब न पाकर माँ समझ जाती है कि बेटी ने प्राण त्याग दिए हैं। इसी शोक में डूबी माँ भी मर जाती है। दो चिड़ियाएँ आती हैं और काफल खाने लगती हैं। एक में बेटी के प्राण पद जाते हैं और दूसरी में माँ के। अब ये माँ बेटियाँ चिड़िया बन फुर्र उड़ जाती हैं और हर चैत्र माह में फिर पेड़ों में, जंगलों में खेत की मुंडेरों में, गाड़ – गदेरों में बैठकर मेल्वडी बन करुण क्रंदन करती हैं। माँ रुपी पक्षी कहती है – काफल पाको (काफल पक गया)  तो बेटी रुपी पक्षी जबाब देती है – मिन नि चाखो (मैंने नहीं चखा) । फिर दोनों एक सुर में कहती हैं काफल पाको मिल नि चाखो

पहाड़ का जनमानस जैसे ही इनकी आवाज सुनता है वह समझ जाता है कि जंगलों में काफल पक चुके हैं। गाँव से डार की डार युवाओं की टोली फिर टोकरी उठाकर काफल तोड़ने जंगल चले जाते हैं। इस मर्मात लोक कथा का श्रवण माँ व दादी जब सुनात्ति थी तब उनकी आँखें गीली हो जाया करती थी। मैंने माँ से एक दिन पूछा- माँ हमारे जंगल में काफल क्यों नहीं होते? माँ ने कहा- आज नहीं तो कभी जरुर होंगे, जब ये मेल्वडी खरगड़ नदी लांघेंगी और यहाँ के जंगल में “काफल पाको मिल नि चाखो” बोलकर बीट करेंगी तो उनके खाए काफल के दाने जब धरती पर गिरेंगें तो उनसे काफल के पेड़ उगेंगे नहीं तो काफल के दाने तुम कितने भी बोओगे वे कभी अंकुरित नहीं होते।

विज्ञान का भी यही मानना है कि पक्षियों के पेट में अम्ल की मात्रा कम होने से ही उनकी बीट से निकले काफल के ठोस दाने फूटकर अंकुरित होते हैं और वही वृक्ष का रूप धारण करते हैं। आज माँ नहीं है लेकिन मेल्वडी वाले वो पक्षी जरुर खरगड़ नदी पार कर हमारी सरहद में आये होंगे क्योंकि अब हमारी सरहद में आयें होंगे क्योंकि आज हमारी सरहद में भी काफल के पेड़ हैं।

काफल से जुडी यह लोक गाथा कितनी सत्य है यह कह पाना जरा कठिन होगा क्योंकि यह माँ बेटी कौन थी? कौन से अकाल की यह लोक कथा या अनुश्रुति है! कोई नहीं जानता लेकिन प्रकृति से जुड़ाव में नारी का अभिन्न योगदान हमेशा ही रहा है। इसलिए इस दन्तकथा को भी नकारा जाना सम्भव नहीं है।

वर्तमान परिवेश में भले ही अन्वेक्षण करके काफल अब उगाये जाने लगे हैं लेकिन उनकी यह गारंटी देना सम्भव नहीं है कि वे फल देंगे भी या नहीं।आइये जानते हैं काफल के वैज्ञानिक तरीके व उसके गुणों के बारे में :-

काफल (Myrica esculenta), जिसे बे बेरी या कटफल भी कहते हैं, हिमालयी क्षेत्रों में पाया जाने वाला एक फलदार पेड़ है। इसे उगाने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:

  1. उपयुक्त जलवायु और मिट्टी

जलवायु: काफल ठंडी और समशीतोष्ण जलवायु में अच्छे से उगता है। यह 1000-2000 मीटर की ऊँचाई वाले क्षेत्रों में सबसे अच्छा होता है। तापमान 10-25 डिग्री सेल्सियस उपयुक्त है।

मिट्टी: अच्छी जल निकासी वाली, अम्लीय (pH 5.5-6.5) और जैविक पदार्थों से भरपूर मिट्टी काफल के लिए आदर्श है। बलुई दोमट मिट्टी सबसे अच्छी होती है।

  1. प्रजनन विधि:-

बीज द्वारा:

पके फलों से बीज निकालें और उन्हें साफ करें।

बीज को 24 घंटे पानी में भिगोएं ताकि अंकुरण बेहतर हो।

बीज को नर्सरी में बोएं, जिसमें रेत, मिट्टी और खाद का मिश्रण (1:1:1) हो। अंकुरण में 20-30 दिन लग सकते हैं।

कलम (Cuttings): 

स्वस्थ पेड़ से 15-20 सेमी लंबी अर्ध-परिपक्व (semi-hardwood) कलम लें। इसे रूटिंग हार्मोन में डुबोकर नम मिट्टी में रोपें। नमी बनाए रखने के लिए छायादार जगह पर रखें।

पौध रोपण: नर्सरी में तैयार पौधों को 6-8 महीने बाद मुख्य खेत में रोपें।

  1. रोपण समय: बरसात का मौसम (जून-जुलाई) रोपण के लिए सबसे अच्छा है।

दूरी: पौधों के बीच 4-5 मीटर की दूरी रखें।

गड्ढा: 60x60x60 सेमी का गड्ढा खोदें और उसमें गोबर की खाद, मिट्टी और रेत मिलाकर भरें।

रोपण: पौधे को गड्ढे में सीधा रखकर मिट्टी से ढकें और हल्का पानी दें।

  1. देखभाल

सिंचाई: शुरुआती समय में नियमित पानी दें, लेकिन जलभराव से बचें। वयस्क पेड़ों को कम पानी की जरूरत होती है।

खाद: साल में एक बार गोबर की खाद या जैविक खाद डालें।

छंटाई: सूखी या अनावश्यक टहनियों की छंटाई करें ताकि पेड़ का आकार और वायु संचार बना रहे।

कीट और रोग:

काफल आमतौर पर कीट-प्रतिरोधी होता है, लेकिन फंगस या कीटों के लिए जैविक कीटनाशक जैसे नीम तेल का उपयोग करें।

  1. फलन और कटाई

काफल का पेड़ 3-5 साल में फल देना शुरू करता है। फल मार्च से मई के बीच पकते हैं। पके फल लाल या गहरे बैंगनी रंग के होते हैं। फलों को हाथ से तोड़ें और सावधानी से इकट्ठा करें।

सुझाव:

स्थानीय नर्सरी से स्वस्थ पौधे खरीदें या बीज इकट्ठा करें। हिमालयी क्षेत्रों में काफल की खेती के लिए स्थानीय किसानों या वन विभाग से सलाह लें। जैविक खेती को प्राथमिकता दें, क्योंकि काफल प्राकृतिक रूप से उगने वाला पेड़ है। यदि आपको किसी विशेष क्षेत्र के लिए अतिरिक्त जानकारी चाहिए, तो बताएं!

काफल (Myrica esculenta), जिसे बे बेरी या कटफल भी कहते हैं, एक पौष्टिक और औषधीय फल है। इसके फायदे निम्नलिखित हैं:

  1. पौष्टिक गुण

विटामिन और खनिज: काफल में विटामिन C, विटामिन A, और एंटीऑक्सीडेंट्स प्रचुर मात्रा में होते हैं, जो इम्यूनिटी बढ़ाते हैं।

फाइबर: इसमें मौजूद फाइबर पाचन तंत्र को स्वस्थ रखता है और कब्ज की समस्या को कम करता है।

खनिज: पोटैशियम, कैल्शियम और आयरन जैसे खनिज हड्डियों और रक्त स्वास्थ्य के लिए लाभकारी हैं।

  1. औषधीय गुण

एंटीऑक्सीडेंट प्रभाव: काफल में मौजूद फ्लेवोनॉयड्स और पॉलीफेनॉल्स मुक्त कणों से लड़ते हैं, जिससे कैंसर और उम्र बढ़ने की प्रक्रिया धीमी होती है।

पाचन स्वास्थ्य: फल और इसकी छाल का उपयोग पारंपरिक रूप से दस्त, अपच और पेट दर्द के इलाज में किया जाता है।

श्वसन समस्याएं: काफल की छाल का काढ़ा खांसी, अस्थमा और ब्रोंकाइटिस में राहत देता है।

मधुमेह नियंत्रण: इसके कुछ यौगिक रक्त शर्करा को नियंत्रित करने में मदद करते हैं।

त्वचा स्वास्थ्य: काफल का तेल या अर्क त्वचा के घाव, जलन और सूजन को ठीक करने में उपयोगी है।

  1. आयुर्वेदिक उपयोग

आयुर्वेद में काफल की छाल और फल का उपयोग “कटफल” के रूप में विभिन्न रोगों जैसे बुखार, जुकाम और जोड़ों के दर्द के लिए किया जाता है। इसका काढ़ा गले की खराश और मसूड़ों की सूजन में लाभकारी है।

  1. पर्यावरणीय और आर्थिक लाभ

मिट्टी संरक्षण: काफल के पेड़ मिट्टी के कटाव को रोकते हैं और पहाड़ी क्षेत्रों में मिट्टी की उर्वरता बढ़ाते हैं।

आर्थिक लाभ: फल, छाल और तेल का उपयोग स्थानीय बाजारों में बिक्री के लिए किया जाता है, जिससे किसानों को आय होती है।

  1. अन्य उपयोग

खाद्य उपयोग: काफल के फल खट्टे-मीठे होते हैं और इन्हें कच्चा, जूस, जैम या अचार के रूप में खाया जाता है।

औद्योगिक उपयोग: काफल की छाल और बीज से तेल निकाला जाता है, जिसका उपयोग मोमबत्ती, साबुन और औषधीय उत्पादों में होता है

सावधानी:

अधिक मात्रा में काफल खाने से पेट में जलन हो सकती है, इसलिए संतुलित मात्रा में सेवन करें। गर्भवती महिलाओं या किसी विशेष स्वास्थ्य स्थिति वाले लोगों को डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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