Tuesday, September 17, 2024
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बस यूं ही- “टिहरी”….. टिहरी : कुछ खोया-कुछ पाया ओज”

बस यूं ही-” टिहरी “….टिहरी : कुछ खोया-कुछ पाया ओज”।

(कुसुम रावत की कलम से)

तीन साल पहले हुए टिहरी झील महोत्सव 25 मई से 27 मई तक टिहरी झील में चला. इस मौके पर पुराना दरबार ट्रस्ट ने एक स्मारिका ‘’प्राचीन एवम वर्तमान टिहरी’’ प्रकाशित की. यह एक बेहतरीन और उम्दा जानकारीपरक संग्रह है- ठाकुर भवानी प्रताप द्वारा प्रकाशित। पुस्तक में प्रकाशित मेरा लेख “टिहरीः कुछ खोया-कुछ पाया ओज”….।

मैं हेंवलघाटी से 70 के दशक में 3-4 साल की उम्र में मां, पिताजी और बहन विमल के साथ टिहरी आई। उस वक्त की धुंधली यादों से टिहरी डूबने की गहरी पीड़ा को डा. बर्त्वाल के फोन ने कुरेदा- लिखो टिहरीः क्या खोया-क्या पाया, वो भी तीन पेजों में। मैं जोर से हंसी। अरे डा.साहब एक लाईन में कहूं- तो टिहरी हमारी मां थी। अपनी मां को खोकर कोई पूछे कि तुमने क्या खोया-क्या पाया? अरे मां को खोकर तो कोई सवाल-जवाब ही जिंदगी में नहीं बचता. मां बच्चे की अंतिम शरण होती है- जिंदगी के हर झंझावत से बच चुपचाप बिना शर्त उसके आंचल में छिप जाने को। सो मां सरीखी टिहरी खोकर तो हमने अपनी अनोखी ‘टिरियाल संस्कृति-सभ्यता-विरासत’ खोई है। हमने अपनी अनूठी सभ्यता की गहरी जड़ों को खोया है। भावनात्मक सुरक्षा का वो अहसास खोया है जिसमें हम टिहरी के वाशिंदे साथ-साथ पले बढ़े। भागीरथी-भिलंगना के किनारे पली बसी वो अनोखी साझी गंगा-जमुनी तहजीब और संवेदनाएं खोई है जिसे पनपने में सालों गुजरे। ना जाने क्या-क्या खोया है? इसलिए तीन पेजों में टिहरी की कथा-व्यथा का ईमानदार विश्लेष्ण थोड़ा मुश्किल है। इस जीवंत सभ्यता के खोया-पाया का इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र या पूरे राग-रंत का हिसाब-किताब निकालने में मेरी पीढ़ियां गुजर जाऐंगी। सो यह दुश्कर काम मुझसे नहीं होगा. हां टिहरी झील की गहराईयों से मैंने अपने हिस्से का ‘’पाथेय’’ चुराने की कोशिश ज़रूर की है….। शायद आपको पंसद आये।

मैंने पहली बार टिहरी आते वक्त दोबाटा से अठूर तक खेतों में लहलहाती फसल और पठाल के घर देखे। यह मेरे गांव तमियार-बेरनी और रौंत्याली हेंवलघाटी का सा नजारा था। सो मेरी यादों में- अठूर-कंडल-सिमलासू-सिराईं-मालदेवल-चमियाला तक के खेतों और गांवों की हरियाली ने ऐसी कुंडली मारी कि टिहरी मेरा गांव और टिहरी वाले मेरे गांववाले बन गये। बाद में समझी कि वो लहलहाती फसलें अनोखी ‘’टिरियाली सभ्यता-संस्कृति’’, समर्द्ध खेती-किसानी और उल्लार की जींवत गाथाएँ हैं। टिहरी पुल पर जब गाड़ी चलती तो पुल हिलता था। मैंने पहली बार जब टिहरी पुल पार किया होगा तो वो पहला कंपन मैंने सालों-साल टिहरी डूबने तक महसूसा। क्योंकि वो लोहे के गार्डरों का भौतिक कंपन नहीं था। टिहरी की हवाओं और फिजाओं में तैरता वो एक स्पंदन था- ‘’जीवंत टिरियाल संस्कृति’’ का। वो चुम्बकीय ओज था- भागीरथी की ममतामयी करूणा का। हवाओं में तैरती उस दैविक ऊर्जा ने ही गंगा को ‘’गंगा मां’’ बनाया। शायद भागीरथी-भिलंगना के उस ‘’ओज’’ और तीन धारे के ऊपर बसे माईबाड़ा और टिहरी शहर में कोने कोने में रची-बसी उस दिव्य ऊर्जा के छल्लारों और हिल्लोरों ने ही मुझे अनजाने में अपनी गोद में ठौर दिया होगा- जिसने 1815 में कभी धुनारखोला में महाराजा सुदर्शनशाह के घोड़े के कदमों को ठहराकर हुक्म दिया था कि- राजा अपनी राजधानी यहां बनाओ! सो मेरा मन जिंदगी में आए बड़े-बड़े मौकों को किनारे कर पता नहीं क्यूं आज भी खामोशी से पुरानी टिहरी के आस पास ही मंडराता रहता है- किसी अनजानी खोज में।

इस ऊर्जा का अहसास मैंने बार-बार किया। मुझे याद है अक्टूबर 1998 में मुझे ‘’क्रीड इंडिया’’ ने ‘लीड इंडिया’ कार्यक्रम के तहत दुनिया के भावी पर्यावरण लीडर हेतु हजारों की भीड़ में चुना। जस्टिस पी.एन. भगवती और प्रोफेसर मेनन उस पैनल में थे। वह बोले बताओ टिहरी बांध बनना चाहिए या नहीं? मैंने दो टूक जवाब दिया- सर जिंदगी तर्को से नहीं नीर-क्षीर विवेक से चलती है। टिहरी हमारे लिए माटी पत्थर का शहर नहीं बल्कि एक जीवंत सभ्यता है। सो टिहरी का भविष्य वैज्ञानिक तर्को के साथ मानवीय संवेदनाओं के धरातल पर मानवता के दूरगामी फायदों को देख तय होना चाहिए। मेरा दो साल हेतु चयन हुआ। पर मेरी मां सालों से बीमार थी। मैं एअरपोर्ट से वापस आ गई। यह सोच कि मां जिंदा रहेगी तो बड़े मौके मिलेंगे। यह मेरे कैरियर का बड़ा मोड़ था। मैंने बार बार बड़े मौके छोड़े। वजह- मेरा मन टिहरी छोड़ने को तैयार ना था। वह कहीं उसी पहले ‘स्पंदन’ के आस पास किसी अनजानी खोज में चुपचाप मंडराता रहा। मुझे आज भी सब कोसते हैं, जिसका मुझे अफसोस नहीं। मेरी मां अक्टूबर 2004 में मेरे हाथ से पानी के तीन घूंट पी चली गई। वो इतने साल जिंदा रही। यह मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी कमाई है। यही बात मैं टिहरी के लिए भी महसूस करती हूं। आज चाहे हम कितनी भी बिजली बना लें, कितना भी राजस्व कमा लें, पर इसके एवज में हमने जो गंवाया है- उसकी भरपाई नामुकिन है। क्योंकि पुनर्वास एवं विस्थापन भौतिक प्रक्रिया ना होकर सूक्ष्म संवेदनाएं हैं, तंरगे हैं, कोमल मानवीय भावनाएँ हैं. ब्रहमांड की हरेक वस्तु जिस ऊर्जा से किसी खास मकसद से जहां टिकी है, उसे भला कैसे कोई विस्थापित कर सकता है? मैंने बार-बार टिहरी के कोने-कोने और लोगों में वो जीवंत ऊर्जा महसूस की है- अपनी गुरू 108 माई हरिपुरी जी की कृपा से। मेरा मानना है कि टिहरी की ही उस जीवंत ऊर्जा ने देश-विदेश के बजाय मेरे लिए कोई और ही राह तय की थी। यह बात मुझे देर में समझ आई। पहली बार टिहरी पुल पर मिली वो प्राण ऊर्जा मुझे किसी अनजानी खोज में सालों बाद ‘माईबाड़ा’ की बड़ी माई जी से लेकर अनेकों यति, तपस्वी, वीतरागी, फकीरों और वैरागियों के दर पर तक ना जाने कहां-कहां ले गई- जीवन के असली सवाल-जवाबों की खोज में. जन्म जन्मांतर से चली मेरी यह मंथर यात्रा कब पूरी होगी- कोई नहीं जानता? कब टिहरी पुल पर हुआ वो ‘अबोध साक्षात्कार’ जिंदगी के ‘असल बोध’ में बदलेगा?

मैंने उस ‘रूहानी ऊर्जा’ को नई टिहरी या फिर कहीं और नहीं पाया? मैं उसकी तलाश में अक्सर आज भी सपने में टिहरी के माईबाड़ा और गंगा किनारे होती हूं। यह मेरे टिहरी के अपने खोया-पाया का सत्य है।
टिहरी में मेरा घर बस स्टैंड के ऊपर गंगा किनारे था। वहां से टिहरी पुल और गंगा की अथाह लहरों की छल्लारों का शोर मुझे आज भी जिंदा रखता है। गंगा का किनारा मेरा पहला और आखरी आकर्षण है। मैं और मेरी मां घंटों मुंडेर पर बैठ गंगा जी, टिहरी बाजार,अठूर, घंटाघर की चखल-पखल देख बतियाते। वहीं बैठ मेरी मां ने जिंदगी के गूढ़ सवालों का सरलता से बोघ कराया। मां की ‘मुंडेर पाठशाला’ में कब टिहरी का इतिहास-भूगोल-गणित-संस्कृति-सभ्यता-अर्थशास्त्र और ना जाने क्या-क्या यूं ही बातचीत में सीखा- मुझे पता ही नहीं चला? मां के साथ मैंने टिहरी की हर वो खास जगह देखी जिसकी ऊर्जा ने टिहरी को यूं ‘खास’ बनाया। आज भी टिहरी के वाशिन्दे सोशल मीडिया में लफ्जों और चित्रों में उस ऊर्जा को खोजते-फिरते हैं। वो खास अध्यात्मिक ओज और जीवंतता मैंने बचपन में गंगा किनारे रोज पल-पल महसूसी- टिहरी के शिवालय-देवालय-गुरूद्वारा- मस्जिद-चर्च और यहां तक कि कब्रिस्तान और श्मशान में भी वह ओज पसरा पड़ा था। मैंने उसे शिद्दत से मुद्दतों महसूसा। देवालय ही क्यों मैंने तो टिहरी के अनोखे वाशिन्दों में उस परम मौन का पसारा महसूस किया। अपनी गुरू माई हरिपुरी के दर्शनों के बाद तो वो परम मौन पद मुझे चीख-चीख कर टिहरी में अपने होने की गवाही देता रहा। टिहरी का हर छोटा बड़ा बंदा और वाशिन्दा मुझे इस जगत की सुंदराई और उस पालनहार की अजब-गजब चतुराई का बोध कराते रहे। मेरा बस चले तो टिहरी के उन खास वाशिन्दों की अमर कथा लिख डालूं। जी हां! मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं कि टिहरी की उस खास शाश्वत जीवतंता को बचाने का प्रयास पुनर्वास की आपाधापी में किसी ने नहीं किया? और आज यह बात सब लोगों को टीस देती है.

आज नई टिहरी में चारों ओर मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारे और आश्रमों की रेलमपेल है। हर ओर धार्मिक अनुष्ठानों का उद्घोष है। नई टिहरी धार्मिक सत्संगों और समागमों की भूमि बन गई है, पर नई टिहरी में टिहरी की वह खास जीवंत अध्यात्मिक ऊर्जा मैंने तो कहीं महसूस नहीं की। मुझे ऐसा कहने को माफ करिएगा पर यह मेरा अपना सच और अनुभूति है। मैं अपने सच को बड़ी विनम्रता और पूरी जिम्मेदारी के साथ रख रही हूं।

हां मैंने नई टिहरी में एक जगह उस परम प्रभु का पसारा पूरे शबाब में महसूसा- वह है नई टिहरी ‘जेल’ के आहते में बना छुटका सा मंदिर। उसके आस पास वह प्राण ऊर्जा बिखरी पड़ी है- जिसने तमिलनाडू की कबाड़ा बीनने वाली भाषा से लाचार बेगुनाह कैदी 65 साल की बूढ़ी किरदेई को नारकोटिक्स एक्ट से मुक्त कराया। उस बेगुनाह स्मगलर किरदेई को मैंने महीनों अपने आंसुओं की मौन प्रार्थना से अपनी बेगुनाही का सबूत महादेव तक पहुंचाते देखा। जहां वह एक टांग पर खड़े हो खुले आकाश में ना जाने किससे बातें करती? यह किरदेई के आंसुओं और महादेव की प्रेरणा थी कि मैं वहां पहुंची और एक लंबी चौड़ी महिला ब्रिगेड की मदद से किरदेई बेगुनाह साबित हुई। जिसमें तब की कलक्टर राधा रतूड़ी भी शामिल थीं। मैंने जेल परिसर में उस खास ऊर्जा का पसारा वहां बार-बार महसूसा। जब मैं अपने दोस्तों की मदद से दो अन्य महिला कैदियों बलमदेई और कमला को बाहर निकाल सकी। बार-बार सोच मुझे समझ आया कि- यह खास ऊर्जा जेल परिसर में बने छुटके मंदिर और अमर शहीद श्रीदेव सुमन की भारी भरकम बेड़ियों में पसरी उनकी अमर आत्मा की ही होगी। जो मुझे बार-बार किसी न किसी बहाने सैकड़ों बार जेल ले गई किसी ना किसी निर्दोष कैदी से मुलाकात के बहाने।

हां उस ‘खास ओज’ को मैंने शिद्दत से महसूसा अपने स्कूल के प्रांगण में। मैं कक्षा एक में थी। हम आचार्य जी के साथ सिमलासू की गोल कोठी गये पिकनिक मनाने- वहां जहां वेदांती राम तीर्थ का पसारा था। हमें ऊंगली पकड़ गोल कोठी और सिमलासू का चप्पा- चप्पा घुमाया गया. हम वहां खाते-पीते-सोते और खुले आकाश में घास पर बैठ हमारी व्यवहारिक ज्ञान की पाठशाला चलती। हम वेदांती राम की सड़क किनारे बनी पुण्य स्थली में फूल चढ़ाते। भिलंगना किनारे उस जगह जाते जहां वेदांती राम ने दीवाली के दिन समाधि ली। सिमलासू की हवाओं और फिजाओं में रचा-बसा वेदांती राम का ‘ब्रहम’ और खुद उनकी ‘राममयी ऊर्जा’ कभी वहां से गई नहीं। हम साल में एक दिन जरूर वहां जाते। मुझे वह जगह बहुत पसंद थी। सो मैं आगे पीछे किसी ना किसी तरह सिमलासू जाने का मौका खोजती। उनकी स्थली में बैठना मुझे अच्छा लगता। गोल कोठी, सिमलासू और नदी किनारे मैं बार-बार गई हूं। पता नहीं उसी आने-जाने में क्या हुआ कि वेदांती राम कब और कैसे मेरे मानस गुरू बने- मुझे पता ही नहीं चला? स्वामी राम स्मारक समिति वेदांती राम की पुण्य तिथी 16 अक्टूबर को हर साल भाषण और निबंध प्रतियोगिता कराती। छटी कक्षा से एम.एस.सी. तक मैं हमेशा उसका हिस्सा बनी। मैं हमेशा प्रथम आती। वेदांती राम के भाषण रटते और लिखते वेदांती राम मेरे मानस में इतने गहरे उतर गये कि वो जिंदगी का सबसे सुंदर सबक व पाथेय बन गये। मैं आज भी वेदांती राम की ऊर्जा की सिहरन से रोमांचित होती हूं। मैंने कभी-कभी उस ऊर्जा को अपने गुरू जूना पीठाधीश्वर स्वामी अवधेशानंद के आस पास मंडराते महसूसा। राम बादशाह का एक-एक शब्द ब्रहम वाक्य सा जीवन के असली पथ का बोध कराता है। उनका व्यवहारिक वेदांत का यह सबक मुझे कहीं और नहीं मिला? सो अनजाने में दैवयोग से मैंने सिमलासू की हवाओं में पसरी व्यवहारिक वेदांत की पाठशाला और सामाजिक प्रयोगशाला से अपने हिस्से का सत् चुराकर छिपा लिया। यह उसका ही प्रसाद था कि मुझ अनजान लड़की को 12-13 साल की उम्र में अचानक माईबाड़ा की गुरूमहाराज माई हरिपुरी ने अपनाया। यह उसी ओज का प्रतिफल था कि कालान्तर में अनेकों दिव्य पुरुषों का दर्शन मेरे हिस्से आया।
मैंने टिहरी में भी बड़े अद्भुत लोगों को नजदीक से देखा। उनकी प्राण ऊर्जा को महसूसा। वो बड़े खास-म-खास थे।

यह टिहरी की अधिष्ठात्री मां राजराजेश्वरी व सत्येश्वर महादेव का क्या प्रताप था कि मुझे उस ‘खास ओज’ का अहसास बार-बार हुआ- टिहरी राजा के पुजारी देबू पंडित जी और कमलानन्द घिल्डियाल जी के पुरानादरबार मंदिर में, जहाँ सालों भगवती के मंदिर की सीढ़ियों में बैठे हम तीनों बहनों की शाम निकलती। वही अद्भुत ऊर्जा पुंज मैंने बार-बार पुराना दरबार महल के खंडहरों में महसूसा। कैप्टेन शूरवीर सिंह पंवार मेरे मुंहबोले नाना जी थे। वह अक्सर हमारे घर आते। हम बहनें और कामरेड विद्यासागर नौटियाल के बच्चे पुराना दरबार महल के खंडहरों में खेल कर ही बड़े हुए। मुझे वहां की एक-एक गली, कमरा और पेड़ याद हैं। वहीं के अमरूद,आम, लोकाट,पपीता खाकर हम बड़े हुए। नाना जी का सख्त आदेश था- अपने चौकीदार डोभाल बुडढ़े जी को कि हमारे लिए रोज खोली का गेट खोल दें। हम एक-एक कमरे में घूमते। पुराना दरबार की विख्यात लाइब्रेरी की किताबों का मोल तो हमको तब पता नहीं था पर वहां की एक-एक किताब और नक्काशी हमारी देखी भाली हैं। हम नाना जी को किताबों से चिपके देखते। कई बार मैंने वंहा सांपों को दीवारों से लटके देखा. पर न हम डरते और नाना जी तो उनके साथ जीने के आदि थे. एक बार एक मोटा अजगर मस्त डोल रहा था. वंहा चमेली की लक-दक सफेद फूलों की बेलें, रंग-बिरंगे फूलों की बेतरतीब क्यारियां उन खंडहरों की शान थीं. न जाने क्या आकर्षण था वहां कि मुझे आंधी-तूफान भी न रोक पाते थे? क्या यह उस काल भैरव की ऊर्जा थी, जिसके सामने नाना जी माथा टेक कर ही महल से बाहर जाते थे? बाद में पता चला वह इतने बड़े साहित्यकार और इतिहासकार हैं। आज भी उन खंडहरों में मौजूद कुलदेवी का कमरा मेरे सपने में आता है। मेरे 101 साल के बूढ़े गुरूजी स्वामी कैलाशानंद सरस्वती उस कमरे में बैठे होते हैं- दिए की रौशनी में कई प्रार्थनारत महिलाओं के साथ? पता नहीं क्यों आज भी टिहरी के मंदिर और गंगा जी मेरे सपनों का हिस्सा हैं? क्या वह खास ऊर्जा अभी भी डूबे खंडहरों में जीवंत है? और किस और इंगित कर रही है? यह तो वक्त ही बताएगा? वही ऊर्जा पुंज मैंने महसूसा-मालीदेवल के उन बंजर डोखरों में जहाँ कभी कफ्फू चौहान का डंका बजता था. हमारे बिजेंद्र गुलियाल आचार्य जी हमको ले गए थे पिकनिक पर और उस वीर भड की कहानी सुनाए थे. बड़ी अनोखी यादें हैं टिहरी की….

बस ऐसे ही टिहरी पुल से शुरू हुआ मेरा सफर एक दिन टिहरी डूबने के साथ खत्म हो गया। मैं जब टिहरी आई थी तो मैंने पुल के नीचे एक बड़े काले पत्थर को देखा। कहते थे यह पत्थर साक्षात भगवान शिव और पार्वती हैं। यह चलता है और जिस दिन यह गायब हो जाऐगा उस दिन टिहरी डूब जाऐगी। मैंने ही नहीं सबने उस पत्थर को देखा है। एक दिन वो गायब भी हो गया। कहां और कैसे-यह कोई नहीं जानता? काले पत्थर का गायब होना था कि 70 के दशक में टिहरी में बांध का काम शुरू हुआ। तमाम अवरोधों के बाद बांध बना और टिहरी डूबी। खूब जायज और नाजायज पैसे की बारिश टिहरी के वाशिदों पर पुनर्वास के दौर में हुई। 2001 में कलक्टर राधा रतूड़ी के ईमानदार प्रयासों से जे.पी. की टनल बंद हुई। यह टिहरी के ताबूत में पहली दमदार कील थी- मेरी टिहरी की उस ‘खास ऊर्जा’ को ‘विद्युतीय ऊर्जा’ में बदलने की दिशा में। यहीं पर राधा रतूड़ी ने एक नया इतिहास लिखा- विकास का! मां गंगा को बांधने का श्रेय एक सरल और संवेदनशील महिला कलक्टर राधा रतूड़ी के हिस्से आया। क्या यह नियति का चुनाव था? टिहरी झील भरने लगी और 29 अक्टूबर 2005 को टिहरी हमेशा-हमेशा के लिए डूब गई।

हमें जीवंत टिहरी की जगह मिला- पुस्तों पर बसा बेजान कंकरीट का जंगल नई टिहरी। टिहरी के नियंता और अभियंता सबकुछ बटोर नई टिहरी लाये। लेकिन वो कुछ ना ला सके तो वो थी- पुरानी टिहरी के कण-कण में बसी ‘’अध्यात्मिक ऊर्जा और ओज’’। टिहरी के प्यार-प्रेम और भाईचारे की रंगीली-पींगली साझी सभ्यता का पुनर्वास कोई शूरवीर अभियंता ना कर सका। पुरानी टिहरी नई टिहरी में आकर पैसों की चमक-धमक-खनक के बीच बिखर सी गई। पुरानी टिहरी के ओजस्वी लोग बदले-बदले सरकार हो गये। शायद वो पुरानी टिहरी का सत था जिसने लोगों को इतना जीवंत बनाया था। लोग पुनर्वास की आपाधापी में शायद अपनी आत्मा का पुनर्वास नहीं कर सके। यह बात मुझे बहुत दुख देती है। कहते हैं कि अध्यात्मिक ऊर्जा सामूहिकता में ही अपने पूरे शवाब में प्रकट होती है। पर यहां आकर तो लोग एक जगह से हजारों जगह बंट गये। शायद शहर की ऊर्जा भी उसके साथ ही बिखर गई है। पुनर्वास की यह पीड़ा और दर्द विस्थापितों से मिलकर महसूस किया जा सकता है।

हां एक अद्भुत संयोग मैंने महसूसा कि ठीक उस जगह पर सिमलासू में टिहरी बांध का पावर हाउस है- जहां कभी बरसों पहले वेदांती स्वामी राम ने समाधि ली थी। मैंने यह दोनों जगह देखी हैं। मुझे हैरानी होती है कि क्या राम बादशाह को पता था कि इस शहर को डूबना है? क्या राम बादशाह ने सालों पहले 1906 में वहां पर समाधि लेकर टिहरी बांध के पावर हाउस की जगह नियत कर दी थी? ठीक उसी जगह पर राम बादशाह नामक ‘’अध्यात्मिक प्रकाशपुंज’’ दीवाली के दिन डूबा और बरसों बाद सिमलासू की उसी जगह बना पावर हाउस और टिहरी बांध देश को समर्पित होकर देश में ‘’विद्युतीय ऊर्जा’’ का नया प्रकाश पुंज उभरा? क्या यह महज एक संयोग है? नहीं यह संयोग नहीं मेरी निगाहों में नियति का सुंदर षड्यंत्र है किसी खास मकसद हेतु……

क्योंकि टिहरी की वह अध्यात्मिक ऊर्जा देश को प्रकाशित तो करना चाहती थी पर विस्थापित नहीं होना चाहती थी। तभी तो नई टिहरी में पुरानी टिहरी की वो जीवंतता नहीं है। यह तो बस एक आम शहर है- देश के अन्य शहरों की माफिक भौतिक चकाचौंध में डूबा!

आज पुरानी टिहरी के वाशिंदे जगह-जगह पंख कतरे पंछियों या झंड से बिछड़े मेमनों की तरह हैं अकेले मेलों और गलियों में खड़े हैं। टिहरी खोकर हमने वो ‘भावनात्मक सुरक्षा’ खोई जो वहां के पेड़-पत्थर, गलियारे-चैबारे, मकान-दुकान, लोग-बाग, नदियां-धारे, घाटे-बाटे और महल के खंडहरों और मिट्टी ने मुझे दिया। उस टिहरी में हर कोई मेरा अपना था। सबसे एक नाता-रिश्ता था। वहां गरीब-अमीर, जाति-धर्म-वर्ग, ऊंच-नीच का भेद नहीं था। सामूहिक तीज त्यौहारों की स्वस्थ परंपरा में धर्म और मजहब की ऊंची दीवारें ना थीं। वहां के पानी ने सबको बिना भेदभाव के तारोताजा रखा। दो नदियों के संगम पर बसा गणेश प्रयाग और उसकी ‘टिरियाली सभ्यता’ तो झील के गहरे पानी में समा गई- जिसमें मैंने बचपन से टिहरी की हर जाति धर्म की मां-दादी-दीदीओं को तड़के चार बजे नहा-धो, दिया जला गंगा में बहाते और आरती करते सुना। कारण मेरा घर हमेशा नदी किनारे रहा। यह “टिरियाली संस्कृति” का ही रौब दाब था कि- यहां कभी किसी धर्म या जाति के बीच दंगे नहीं हुए- जबकि यहां हर धर्म और जाति के लोग रहते थे। श्रीमती गांधी की मौत और बाबरी मस्जिद टूटने के बाद जब पूरे देश में दंगे हो रहे थे। तो हमारा टिहरी शांत था। सब लोगों ने मिलकर धार्मिक स्थलों और उन समुदायों की सुरक्षा की थी। ना टिहरी का समृद्ध पुरातत्व बचा और ना ही वहां की संस्कृति को संभाला जा सका। मेरा मानना है कि टिहरी की उस जीवंत सभ्यता का समृद्ध इतिहास किसी मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा के इतिहास से कमतर नहीं- वो इससे बहुत आगे की विरासत थी. जरूरत थी उसे बचाकर संवारने और सहेजने की- जो मैं बेझिझक कहूंगी कि हमने वो नहीं किया। इसके लिए इतिहास हमें कभी माफ़ नहीं करेगा?

आज बांध के लुभावने आंकड़े मेरे सामने हैं- वो भी एक सच है, पर विकास के उस एकतरफा सच के बीच मेरा भी अपने खोया-पाया विभाग का एक छोटा अनुभव है जिसे पूरी विनम्रता और बेबाकी से मैंने लिखा। किसी की भावनाओं को आहत करना मेरा मकसद नहीं है। मेरा आग्रह ऐसे ईमानदार प्रयासों हेतु है जिससे पुरानी टिहरी की वह ‘खास जीवंत ऊर्जा’ नई टिहरी में बहे. नई टिहरी की अपनी रौल धौल है, पर वो मुझे कभी नहीं लुभा पाई. पुनर्वास की हजारों कहानियों का अंदरूनी इतिहास कभी किसी ने जानने की कोशिश नहीं की कि वहां के मूल वाशिन्दों ने सही में क्या खोया-क्या पाया? और वह कैसा महसूस करते हैं? उनकी नई जगहों पर उन सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं को पढ़ा जाना और लिखा जाना अभी बाकी है?

आज हम लोग देहरादून में उन पर कटे परिंदों के माफिक हैं जो अपने झुंडों से बिछुड़ अकेले खड़े हैं? कौन पहचानता है मुझको यहाँ? हम उस डाक टिकट लगे बिना पते के लिफाफे की तरह हैं जिसे कभी डिलीवर नहीं होना है? क्योंकि मेरा पता तो टिहरी झील में डूब गया है? पर पता नहीं क्यों मेरा दिल बार-बार कहता है कि एक दिन वही खास ऊर्जा टिहरी के मूल वाशिंदों को पुरानी टिहरी वापस ले जाएगी- और फिर से हम लोग झील के नीचे अपने घर खोजेंगे और अपने-अपने डोखरे-पुंगडे-सग्वाड़े-भूमडो की जमीन नापेंगे?

हां बिजली बना लाभ लागत की बात पर बांध प्रशासन ही टिप्पणी कर सकता है। लेकिन दुनिया किताबी थोथे तर्कों या खोया पाया विश्लेषण से नहीं बल्कि सरल नीर क्षीर विवेक और ईश्वरीय नियमों और विधान से चलती है। यह शाश्वत नियम- विधान ही साक्षात ईष्वर हैं- और श्रृष्टि की नियामक सत्ता हैं, जो किसी जगह को जीवंतता देते हैं। मैं नफे नुकसान की इस गणित से परे उस दैविय ऊर्जा की नई टिहरी में पिपासु हूं। टिहरी नगरी लाखों लोगों की आश्रयदाता थी की, जो नई टिहरी नहीं है- यह ‘’टूरिस्ट नगरी’’ हो सकती है पर हमारी खास ‘टिरियाली संस्कृति’ और सभ्यता और विरासत की वाहक नहीं।

कैसे यह खास ऊर्जा नये शहर की आबो-हवा में पैदा करें इस यक्ष प्रश्न के साथ पुरानी टिहरी के खास दैविय पुंज, पुण्य आत्माओं और सद्पुरुषों, यतियों-मुनियों और वाशिंदों को मेरा बार-बार प्रणाम!

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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