अनोखे रंगों में रंगी जौनसार की बूढ़ी दीवाली। आखिर क्या महत्व है इस सफ़ेद पोशाक का?
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 24-25 नवंबर 2014)
अभी तक इस दिवाली में औंस्या रात, भिरूड़ी और जन्दोई में तीन तरह के पकवान चख चुका हूँ लेकिन सच कहूँ तो पेट अभी तक नहीं भरा। जौनसार बावर की इस बूढ़ी दीवाली का स्वाद ही निराला है। औंस्या रात की अगली सुबह जब होलियाच के होले जलते हैं, तो लगता है पूरे क्षेत्र का यह प्रकाश पर्व आधुनिकता के लिवास में सजी मैदानी भू-भागों की सैकंडों बिद्युत लड़ियों और बम्ब पटाकों का माकूल जबाब हैं कि देखिये सभ्य समाज के लोगों हम जो भी पर्व मनाते हैं उसमें जितनी खुशियों का इजहार हम खुद करते हैं उतना ही खुश प्रकृति के दामन को भी रखते हैं, क्योंकि न बम्ब पटाकों का ही धुंवा आसमान को छूता है और न इस महंगाई के दौर में सिर्फ दो दिन के लिए लाखों करोड़ों की बिजली का भार सरकार के काँधे पर डालते हैं। यहाँ तो बस जश्न है…..वह जो ढोल की थाप और गीतों की चाल पर थिरकते पैरों के निशाँ से धरती माँ का अमूल्य श्रृंगार कर तन मन में बस केवल और केवल थिरकन लाता है वह भी ऐसे आलौकिक आनंद के साथ जिसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।
इस बार की दीवाली मैंने जनजातीय क्षेत्र लोहखंडी के नीचे बसे लोहारी गॉव और खत्त भरम के कांडोई गॉव में जाकर न सिर्फ अपनी आँखों से निहारी बल्कि ठेठ वहीँ के रंगों में रंगकर दीवाली का पूरा लुफ्त भी उठाया।
यहाँ की चार खत्तों की बोली कंडवाण..न जौनसारी ही है और न बाउरी (बावर) ही है, क्योंकि यहाँ की बोली मेरे जल्दी से पल्ले नहीं पड रही थी। स्वाभाविक है दीवाली की परम्परा भी बिलकुल हटकर होगी। लेकिन ज्यादा हटकर तो नहीं थी फिर भी होलियाच के होले जलने के बाद सुबह के समय ही जाड़ी से लेकर इस पूरे इलाके में भिरुड़ी के अखरोट सुबह ही फैंके जाते हैं जबकि जौनसार के ठाणा गॉव व आसपास के इलाके में भिरुड़ी के गीत व अखरोट होलियाच की अगली रात होती है। जबकि इस रात यहाँ जूडा नृत्य और खेलूटे का कार्यक्रम होता है और अगली सुबह जन्दोई मनाई जाती है। जन्दोई में इस क्षेत्र के लोग सुबह सबेरे हाथी या हिरन नृत्य करते हैं जिसमें गॉव का सयाना विराजमान होता है और इसी के साथ इस क्षेत्र की दीवाली सम्पन्न हो जाती है। वहीं दूसरी ओर जौनसार के चकराता व आस-पास के क्षेत्र में जन्दोई रात्रि पहर में मनाई जाती है जिसमें हाथी नृत्य या हिरन नृत्य होता है जिसके साथ साथ जूडा नृत्य और खेलूटे का खेल चलता है। हाँ कोरुगाँव में खेलुटे व जूडा नृत्य सुबह होता है। बस इन दो क्षेत्रों में दीवाली में यही अंतर है।
सबसे बड़ा अंतर इस क्षेत्र के लिए एक और है। दुर्भाग्य से इस क्षेत्र की सडकों का जाल भले ही अब फैलने लगा है लेकिन सन १९६२ में निर्मित चकराता-त्यूनी मार्ग की दशा इतनी ख़राब है कि पौड़ी के खच्चर भी इस सड़क पर चलने से कतराने लगे हैं। मुझे बेहद अफ़सोस होता है कि क्या यहाँ की जनता ही सोयी है या फिर सिर्फ दो नामों की ही राजनीति में उलझी इस जनता को यह सब दिखाई नहीं देता।
खैर… इस समय दीवाली की बात हो तो ठीक है। लोहारी गाँव में एक रात गुजारने के बाद सुबह पता लगा कि रात्रि को ही कोई बुजुर्ग चल बसे तो स्वाभाविक है कि दीवाली का जश्न फीका पड़ेगा। मैंने संस्कृतिकर्मी कुंदन सिंह चौहान से पूछा कि मुझे अब किस गॉव की दीवाली में जाना चाहिए तो उन्होंने फ़ौरन मुझे कांडोई भरम की याद दिला दी। वही कांडोई जहाँ मैंने सन १९९५ में बिस्सू मेले के साथ अपने जौनसार की यात्रा की शुरुआत की थी। फिर क्या था लोहखंडी से कोटि-कनासर, बिंसाऊण-मसणगॉव, संताड-हरटाड, रजाणु, गोर्छा, कुनवा, पिंगवा, ठारठा होता हुआ में अपनी धन्नो (मोटर-साइकल) से लगभग 12 से 15 किमी. की यात्रा कर कांडोई पहुंचा। मेरी धन्नो को बधाई कि उसने सड़क की वह हर सीमा लांघ ली जिसमें पानी के कुंवे, और पत्थरों के अम्बार थे। पूर्व प्रधान जवाहर सिंह चौहान जी के सानिध्य में जो यहाँ की दीवाली का लुफ्त उठाया उसका बयान करना असम्भव है।
काश…..आप भी मेरे साथ इस दीवाली का आनंद लेते। लेकिन आश्चर्य तब हुआ जब यहाँ आकर पता चला कि हम से पहले यहाँ डॉ. डी.आर. पुरोहित आये थे और चले भी गए हैं। एक बात और बहुत याद आई कि लगभग दस बर्ष पश्चात जब मैं कांडोई गाँव पहुंचा तो यह नहीं भूला था कि पिंगवा गॉव का कोई सज्जन इस इलाके से पहला पी.सी.एस. निकला था। उसी बर्ष जिस बर्ष यहाँ का आखिरी बिस्सू था और उस बिस्सू में उस सज्जन ने भी शिरकत की थी। उसके बारे में पता किया तो नाम भले ही किसी को याद न आया हो लेकिन यह जरुर पता चला कि वे सज्जन इस समय हरिद्वार में पोस्टेड हैं।
यहाँ यह जानकर आत्मीय दुःख हुआ कि हाल ही के बर्षों में समाजसेवी पूर्व ग्राम प्रधान जवाहर सिंह जी का पूरा लकड़ी का मकान जलकर राख़ हो गया और पूरी बरसों की जोड़ी धन सम्पदा भी जलकर राख़ हो गई। यह बहुत पीड़ादायक था क्योंकि ये मनुषि न सिर्फ़ पढ़े लिखें व्यक्ति हैं बल्कि आदर्शों व मेहमाननवाजी के भी उच्च हैं। रात्रि विश्राम के लिए जवाहर सिंह जी के यहाँ रुकना हुआ। लेकिन सच मानिये हृदय की पीड़ा कचोटती रही।
बहरहाल इस क्षेत्र की दिवाली के अनूठे रंगों में एक महत्वपूर्ण रंग यहाँ का जूडा नृत्य है। सफ़ेद ड्रेस में सजे ये सभी तलवारबाज सीटियों और ढ़ोल की थाप पर अपनी विभिन्न नृत्य कलाओं से मन मोह लेते हैं। दरअसल यह नृत्य कला गढ़वाल की सरौंs/सरईं नृत्य व कुमाऊं की छोलिया/हुडकेली नृत्य जैसी ही कही जा सकती है क्योंकि ये सभी नृत्य कलाएं युद्ध प्रेरित नृत्य कलाएं हैं। इसमें फर्क इतना भर है कि गढ़वाल कुमाऊँ की यह नृत्य कलाएं सिर्फ़ एक बिशेष बर्ग के ढ़ोल नगाड़ों की थाप पर राजपूत यौद्धा युद्ध कला का संचालन करते थे जबकि इस क्षेत्र में राजपूतों की यह युद्ध कला उनके हाथ पैरों के हाव-भाव, नृत्य-विधा व सीटियों के बिशेष संकेत के आधार पर चलती है जिसमें बाजगी का ढ़ोल इन्हें संगत देता है।
जूडा नृत्य में पहनी जाने वाली यह पोशाक कालान्तर में उस व्यक्ति की चिता के साथ जला दी जाती थी। इसे एक यौद्धा को दिया गया सम्मान माना जाता था। इस पोशाक को पहले एक बिशेष वर्ग ही धारण कर सकता था जबकि अब इस पोशाक को कोई भी पहन सकता है व उसकी मृत्यु के बाद यह भी संभव है कि उसके पुत्र इत्यादि इस पोशाक को धारण कर सकते हों। वक्त व समाज में आये परिवर्तन से कई मूल अवधारणाएं व संस्कृति के रंग बदलें हैं। लेकिन इतना जरूर है कि इस समाज ने अपने लोक समाज के मूल्यों के साथ व लोक विधा के साथ ज्यादा छेडछाड नहीं की है। शायद इसीलिए यह क्षेत्र आज उत्तराखंडी लोक समाज की रक्षा में अग्रणीय पंक्ति पर खड़ा दिखाई देता है।