(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 25-28 जून 2015)
समुद्र तल से 9232 फिट यानि 2815 मीटर की उंचाई पर देवदार आच्छादित घनघोर जंगल के बीच ढालनुमा सुन्दर बुग्यालों में पसरा इसका अकूत सौन्दर्य आपके स्मृति-पटल को नयी ताजगी तो देता ही साथ ही आप के होंठ भी बरबस फड़फड़ा देते हैं और उनसे निकलने वाले शब्द अक्सर यही होते हैं- ” वाह आलौकिक, अमेजिन …खूबसूरत! और फिर आप खो जाते हैं प्रकृति के उस जादुई संसार जहाँ उसने अपना पूरा सौन्दर्य लुटाया हुआ है. बरबस फारेस्ट बंगले की बगल से बहती बादलों की छटा जब सर्र से आपके इर्द-गिर्द से गुजरती है तो लगता है मानो वह आपको अपने पालने में झूला झुला रही हो. यही नहीं जब टुकड़ों में सफ़ेद बादलों के फुवे उड़ते तैरते हुए पेड़ों की झुरमुटों से निकलते हुए दूर गगन की ओर निकलते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे परियां बान्हे फैलाए नृत्य कर रही हो.
देवबन आपको पूरे दिन भर प्रकृति के सारे रंग दिखाता है. जब धूप निकलते है तो उसकी गुनगुनी आभा खिलखिलाती हुयी आपको दूर हिमालय की उन गगंचुम्भी चोटियों तक ले जाति है जहाँ सफ़ेद बर्फ की चादर कई मीलों तक पसरी हुई दिखाई देती है. आप बंगले के बाहर आराम कुसी में बैठकर कभी कौवे की काँव कांव सुनेंगे तो कभी कोयल की कुह कुह..! यह अजब अनुभव था जब मुझे यहाँ कोयल की कुहू..कुहू के साथ मयूर की चीन्ही चिन्हीं की आवाज भी सुनाई दी. यह बहम है या यथार्थ में नहीं कह सकता क्योंकि इतनी उंचाई पर कोयल और मयूर का होना दुर्लभ होता है. आप अभी यहाँ से नजरें हटा भी नहीं सके हों कि अचानक सुनहरे पंखों के साथ नृत्य सी करती आपके बेहद करीब से हिमालयी मोनाल जिसे उत्तराखंड राज्य का राज्य पक्षी कहलाने का गौरव प्राप्त है आपके पास से गुजरते दिख जायेगी..!
कभी बन गुर्जरों के भैंसों के झुण्ड तो कभी पहाड़ी ढलानों में चुगती सैकड़ों भेड़-बकरियां भी आपके आकर्षण के केंद्र होते हैं वहीँ वन्य जीव जब उछालें मारकर आपसे बिदककर दूर जाते हैं तो आप के रोंवे खड़े हो जाते हैं क्योंकि कब आपकी बगल की झाडी से कोई जानवर भाग खड़ा हो जिसकी आहट आपको भी बिदका दे पता नहीं चलता. सच कहें तो दिन भर आप प्रकृति के कई रंगों के आप दर्शन कर सकते हैं. रात्री पहर ठण्ड आपको अलाव सेंकने के लिए मजबूर कर देती है इसलिए आप हाल में बोन फायर कर सकते हैं.
सन 1888 में बने इस बंगले की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें आज भी जो चदर छत्त पर लगी है उसमें लेसमात्र भी नुक्सान नहीं हुआ है जबकि देश की आजादी के बाद हुए सभी निर्माण लगभग मटियामेट से दिखे जिनके खंडहर या बुनियादें आज भी दिखाई देती हैं. मेरी खोज के बिषय में वह पहला अंग्रेज ऑफिसर था जो यहाँ रहा होगा लेकिन दुर्भाग्य ही कहूँगा कि मुझे सन 1930 से पहले का रिकार्ड नहीं मिल पाया. मैं वन विभाग को उनकी इस कार्यशैली के लिए बधाई देना चाहूँगा कि उन्होंने सन 1930 से अब तक रजिस्टर सुरक्षित रखा हुआ है! कुनैन गॉव के बंगले के चौकीदार राजू ने उस पुराने रजिस्टर को काफी हिफाजत से रखा हुआ है जिसमें ब्रिटिश काल के अंग्रेज अफसरों ने देवबन रेंज में अपनी सेवाएं दी हैं।
वन अधिनियम के जी.ओ. संख्या 1213/ xiv/ 255AF/ 1946 दिनांक 4सितम्बर 1946 इस बंगले का पुनर्निर्माण कहें या फिर पुन:उद्घाटन तत्कालीन उत्तरप्रदेश के राज्यपाल कन्हैय्या लाल माणिकलाल मुंशी ने 11 अप्रैल 1953 में किया. वन विभाग के रिकार्ड के अनुसार अलीगढ से आये अंग्रेज अफसर एस.जे. पेलट्रोंन ने 29 मई 1931 में यहाँ ज्वाइनिंग दी तब से लेकर सन 1950 तक यहाँ दर्जनों अंग्रेज अफसर बदलते रहे और आखिरकार 9 जुलाई 1950 में भारत सरकार के डी.डी.चोपड़ा पहले भारतीय रहे जिन्होंने यहाँ बतौर डीएफओ सेवा दी।
यहाँ ब्यास शिखर से हमें हिम शिखरों से ढकी पर्वत श्रेणियों में क्रमश कंड महादेव शिखर, गोषु-पिशु शिखर, कोक्षनी, हंस विशान, संथाल पास, राल ढांग, बोरासु पास, स्वर्गारोहिणी, बंदरपूँछ, श्रीकान्ठा, गंगोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ, दूनागिरी, नंदादेवी, त्रिशूली इत्यादि हिमालयी शिखरें दिखाई देती हैं जोकि यहाँ से मात्र 500 मीटर दूरी पर स्थित है व खडम्बा 20 किमी. व मुंडाली बँगला 33 किमी दूरी पर स्थित है जो देवबन रेंज में ही पड़ते हैं.
जौनसार बावर क्षेत्र के जाने माने साहित्यकार पंडित शिवराम ने यहाँ तैनात कड़क के डीएफओ पर कुछ इस तरह पंक्तियाँ लिखी थी- “शुक्रगुजार रहूंगा मैं डीएफओ कक्कड़ का, यदि लांचिंग परमिट दे दें मुझे देवदार के लक्कड़ का”. वहीँ बावर के चिल्हाड़ निवासी बर्फियानंद बिजल्वाण जोकि कभी बावर से पैदल इसी रास्ते चकराता पढने आया करते हैं वे लिखते हैं- “जमीं है सुहानी जैसे कोई शेरवानी, नदी तालों में है पानी जैसे सोई कोई रानी” !
देवबन से खडम्बा मुंडाली तक के क्षेत्र के बारे में यहाँ के लोगों का कहना है कि अचानक अगर आपको कोई हंसी सुनाई दे या फिर घुन्घुरुओं जैसी आवाज आये या बांसुरी सुनाई दे तो घबराईये नहीं बल्कि खुश होइए कि आपको देवपरियों के दर्शन हो गए जिन्हें आप नहीं देख पाए.
देवबन फारेस्ट बंगले में जहाँ आतिथ्य सत्कार के लिए आपको वन विभाग के कर्मी हँसते-मुस्कराते मिल जायेंगे वहीँ यहाँ सबसे ज्यादा दिक्कत पानी की है जो यहाँ के कर्मी कन्धों में ढोकर करीब 500 मीटर नीचे ढाल में उतरकर बढ़ी मुश्किल से लाते हैं. फारेस्ट गार्ड हयात सिंह राणा, प्लान्टेशन के देवी सिंह व चौकीदार राजू आपको कोई तखलीफ़ नहीं होने देंगे. डीएफओ साहब या फिर एसडीएम कालसी से परमिट लेकर आप रेंज ऑफिसर बिष्ट जी से यहाँ की लोकेशन का आनंद लेने की अनुमति लीजिये और लुत्फ़ उठाईये एक ऐसी जन्नत का जो उत्तराखंड प्रदेश की राजधानी देहरादून से मात्र 120 किमी. की दूरी पर स्थित है.