जौलजीवी व्यापार मेला- अस्कोट के पाल वंशी राजा पुष्कर पाल ने शुरू किया था तीन देशों के व्यापारिक सम्बन्धों का यह मेला!
(मनोज इष्टवाल)
तब भले ही कत्युरी काल का अंत हो गया था और एक बहुत बड़े साम्राज्य का राज तिनके-तिनके बिखरकर मात्र कुछ क्षेत्रफल तक सिमट कर रह गया था! कभी अस्कोट यानि 80 कोट (किले) का यह साम्राज्य सुदूर इस्लामाबाद से नेपाल-डोटी भजांग! व गोपेश्वर से मध्यहिमालयी पूरे क्षेत्र में कत्युरी सूर्यवंशियों का एकछत्र हुआ करता था जो ईसा की शुरुआत से 11वीं संवत्सर तक माना जाता है! इन्हीं कत्युरी सूर्यवंशियों के बारे में भी ठीक ब्रिटिश राजशाही की तरह एक कहावत थी कि इनके राज्य का सूरज कभी अस्त नहीं होता लेकिन जब यह अस्तांचल की ओर बढ़ा तो उसकी छाया बढती ही गयी ! अस्कोट कभी राजशाही का जीता-जागता उदाहरण था जो ब्रिटिश काल तक आते –आते तालुकदार के रूप में परिवर्तित होता हुआ वर्तमान में चंद किमी. की परिधि में सिमट गया!
उत्तराखंड के सुदूरवर्ती पिथौरागढ जिला मुख्यालय से लगभग 68 किमी. दूरी पर स्थित जौलजीवी का एक छोटा सा धनुषाकार बाजार मानसरोवर क्षेत्र से निकलने वाली काली व मुनस्यारी मदकोट से निकलने वाली गोरी नदी के संगम पर अवस्थित है! यहाँ हर बर्ष बाल दिवस के पर्व पर एक सप्ताह का व्यापारिक मेला आयोजित होता है जिसमें तिब्बत, नेपाल व भारत तीन देशों के ब्यापारी सदियों से आते रहे हैं! कभी इस मेलों को ब्यापारिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था लेकिन वर्तमान तक इसकी पुरानीं रंगत उड़ गयी है! कभी इस मेले में तिब्बती व शौका व्यापारी सांभर, खाल, चँवर, पूँछ, कस्तूरी, जड़ी-बूटियों को लेकर आया करते थे जिसमें अब धीरे धीरे कमी आने लाही वहीँ कपड़ा, नमक , तेल, गुड़, हल, निंगाल के बने डोके, काष्ठ उपकरण-बर्तन आदि भी यहाँ प्रचुर मात्रा में बिकते थे! तब जौहार, दारमा, व्यास, चौंदास घाटी के ऊनी माल के लिए तो इस मेले का विशेष रुप से इंतजार किया जाता था । उस काल में गौरी और काली नदियों पर पुल नहीं थे । इसलिए अस्कोट के राजाओं द्वारा गोरी नदी पर कच्चा पुल बनाया जाता तो नेपाल की ओर से भी काली नदी पर पुल डाला जाता था। जौलजीवी का यह मेला चीनी आक्रमण के बाद सबसे अधिक प्रभावित हुआ । तिब्बत का माल आना बन्द हो गया जिससे ऊनी व्यापार पर विपरीत प्रभाव पड़ा । काली नदी के तट पर जो बाजार लगते था, वह भी धीरे-धीरे खत्म होने लगा हालांकि अब भी दन, कालीन, चुटके, पश्मीने, पँखियाँ, थुल्में आदि यहाँ बिकने आते हैं, लेकिन तब के व्यापार और अब में अन्तर बहुत हो गया है ।
ब्रिटिश काल में अस्कोट के राजा पुष्कर पाल द्वारा यह मेला अक्टूबर 1871 में शुरू करवाया गया था जिसमें शिरकत करने के लिए नेपाल व तिब्बत देश को मुख्य रूप से आमंत्रित किया गया! मेले में सबसे बड़ी समस्या यह रही कि तीनों देशों की मुद्रा का आपस में चलन कैसे हो अत: इसी मेले से तय किया गया कि तीनों देशों में एक दुसरे देश की मुद्रा को आसानी से चलाया जा सकता है! वर्तमान में भले ही भारतीय बाजार में न तिब्बती मुद्रा ही चलायमान है और न ही नेपाली मुद्रा लेकिन नेपाल में भारतीय मुद्रा बदस्तूर जारी है और वहां की यह मजबूरी भी है क्योंकि नेपाल की अर्थ व्यवस्था का सबसे बड़ा पोषक वर्तमान में भारत ही है!
तीन देशों की अलग-अलग मुद्रा होने के बाबजूद भी ब्रिटिश काल में अंग्रेज इस मेले को सफलता पूर्वक चलाने में नाकामयाब रहे जिससे यह मेला कुछ बर्षो तक बंद रहा! लेकिन इसे पुनः प्रारम्भ करने आ श्रेय अस्कोट के तालुकदार राजा स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल को जाता है, उन्होंने ही यह मेला सन् 1914 में प्रारम्भ किया था, यद्यपि उस समय यह मेला धार्मिक दृष्टिकोण से ही प्रारम्भ हुआ तो भी धीरे-धीरे इसका जो स्वरुप उभरकर सामने आया वह मुख्य रुप से व्यवसायिक था । जौलजीवी भी कैलाश मानसरोवर के प्राचीन यात्रा मार्ग पर बसा है । स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल अस्कोट के ताल्लुकदार थे । जौलजीवी में काली-गौरी नदियों का संगम है और शिव का प्राचीन मंदिर । स्कनदपुराण में भी वर्णित है कि मानसरोवर जाने वाले यात्री को काली-गोरी के संगम पर स्नानकर आगे बढ़ना चाहिये । इसलिए मार्गशीर्ष महीने की संक्रान्ति को मेले का शुभारम्भ भी संगम पर स्नान से ही होता है । इसके पश्चात् महादेव की पूजा अर्चना की जाती है । प्राय: कुमाऊँ में लगने वाले सभी मेलों की तरह इस प्रसिद्ध मेले का स्वरुप भी प्रारम्भ में धार्मिक ही था जो बाद में व्यापार प्रधान होता गया । चीनी आक्रमण से पहले तक यह मेला उत्तरभारत का सबसे प्रसिद्ध व्यापारिक मेला था । इस मेले में तिब्बत और नेपाल के व्यापारियों की सक्रिय भागीदारी होती थी । इसमें नेपाल के जुमली डोटी के व्यापारी सबसे अधिक आते थे बताया जाता है कि असकोट के पाल राजाओं ने ही यहाँ जैलेश्वर महादेव तथा अन्नपूर्णा देवी के मन्दिरों की स्थापना की और उन्हीं के द्वारा जमीनें मन्दिरों को दान में दी गयीं तथा इन मंदिरों में पूजा के लिए विधिवत पुजारी भी नियुक्त किये गए!
सन 2000 से उत्तराखंड राज्य गठन के बाद जहाँ यह उम्मीद की जा रही थी कि यह व्यापारिक मेला और विस्तार लेगा वहीँ मेले का स्वरूप बदलने व काली नदी पार उक्कु-बाकू क्षेत्र में सडक आने के बाद अब नेपाल से आने वाले व्यापारियों की आमद कम हो गयी है! रही सही कसर चीन ने तिब्बत को कब्जे में लेकर पूरी कर दी है! ऐसे में इस मेले को सात दिन चलाना भी मुश्किल हो गया है जबकि यह मेला अपने प्रारम्भिक दौर में पूरे एक माह चलता था! इस बर्ष इस मेले के 147 बर्ष पूरे हो जायेंगे!