Thursday, October 17, 2024
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क्या लेमिनेशन के अविष्कारक गढ़वाली पंडित हैं?

(मनोज इष्टवाल)

जिस जमाने में लेमिनेशन मशीनें नहीं हुआ करती थी, तब भी ग्रन्थ व विशेषत: जन्मकुंडली कई बर्षों तक या यूँ कहें आपके मृत्यु परायण तक आपके पास यथावत सुरक्षित होती थी क्योंकि न वह पानी से ही ख़राब होती थी और न उस पर दीमक ही लगता था। पंडित जब एक जन्मपत्री का निर्माण करता था तब उसकी लम्बाई रुपयों की लम्बाई की तरह छोटी बड़ी होती थी जितना मीठा डाला उतना ज्यादा स्वाद…!

मुखत: जन्मकुंडली एक मीटर से लेकर पांच मीटर तक लम्बी और लगभग 9 इंच से एक फिट चौड़ी हुआ करती थी जिसके निर्माण में पंडित जी महीनों लगाते थे, लेकिन आज कंप्यूटर के युग में यह पल भर का कार्य हो जाता है भले ही वह ज्योतिष गणना कंप्यूटर भी नहीं कर पाते हैं जो शास्त्रसम्मत ज्योतिषाचार्य/कुलपुरोहित किया करते थे।

जन्मपत्री निर्माण के बाद उस पर जो घोटा लगता था वह सबसे दुर्लभ कार्य हुआ मोमबत्ती या प्लास्टिक पिघलाकर जन्मपत्री के मुखपत्र की ओर तीन बार इसका घोटा लगाया जाता था जबकि ऐतिहात के तौर पर बाहर की और एक बार का घोटा लगता था जिसे गढ़वाली में घ्वटया लगाना कहा गया है। इस से एक तरह से जन्मकुंडली पर ऐसा लामिनेशन हो जाता था जो न पानी से खराब होता था, न गलता था, न सडता था और न जल्दी से फटता था। भले ही आज टेक्नोलॉजी ने यह सारे मानक बदल दिए हों लेकिन सच मायने में इसका आविष्कार ( जन्म) गढ़वाल के ब्राह्मणों के अलावा अन्य क्षेत्र के ब्राह्मणों ने किया है जिसे हम आज लेमिनेशन कहते हैं। जो कई सदी पूर्व से ही जन्मकुंडलियों पर लगा करता था।

इस बात की प्रमाणिकता पर कई बार रतन सिंह असवाल बताते हैं कि उनका घर गांव में कुल पुरोहित पंडित रइसानन्द गौड़ के घर की बगल होने पर जब वे जन्मकुंडली बनाया करते थे व उसकी स्याही सूखने के लिए जन्मकुंडली धूप में रखते थे, फिर प्लास्टिक के बिशेष गोले या कभी कभार मोमबत्ती से वे बचपन में मुझसे जन्मकुंडलियों में घोटा लगवाया करते थे।

यकीन मानिए यह पेपर लेमिनेशन की प्रक्रिया उत्तराखंड में सदियों पूर्व की मानी जाती है। श्रीनगर राज दरबार की राजाज्ञा व लिखी गयी कागळी चाहे वह कागज में रही हो या फिर कपड़े में उस पर भी मोम का घोटा लगाने की परम्परा थी ताकि वह सड़े गले नहीं।

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