(मनोज इष्टवाल 22 अप्रैल 2020)
“असवाल ठाकुर मुर्युं भज्यूँ नि चयेंदु, बाकी गुण त सभी जणदन!” ऐसी कई कहावतें जो सदियों से एक मुंह से दूसरे मुंह गुजरती हुई आज भी ज़िंदा हैं, यूँहीं प्रचलन में नहीं आती! असवाल राजवंश गढ़वाल के इतिहास में उच्च कोटि के राजपूतों की वह श्रेणी थी जिसने अपने अहम् के आगे अपने को राजा के बराबर ही समझा। इनकी कई ऐसी कह्वातें बर्षों से चरितार्थ रही हैं! अब जब सीला गाँव के उद्दु असवाल की बात हो रही हो तो क्यों न इस पूरी घाटी की ही बात कर लें जिसमें असवालों के पीड़ा-कन्दोली व सीला बरस्वार गाँव आते हैं। यहाँ पीड़ा गाँव के असवाल थोकदार का ताडकेश्वर से झगड़े की बात एक और कहावत आज भी प्रसिद्ध है कि- “असवाल जात कन्नार कु पात अर तेल का हाथ!”
1-सीला क्वाठा 2- फोटो लँगूर पट्टी 3-पाती मेला चंडाखाल।
बहरहाल श्रृंगारमति के उस विवाह पर आते हैं जिसमें उसके डोले को जोर-जबरन सीला के असवाल अपने अहम के कारण उठा ले आये लेकिन हाथ कुछ नहीं लगा। बर्ष 1997 की बात है, जब मैंने इस क्षेत्र के विभिन्न गाँवों का दौरा कर असवालों के सम्बन्ध में जानकारी जुटानी शुरू की थी। तब मैं ध्यानियों के गाँव ईगर, असवालों के गाँव पीड़ा-कंदोली व चौकिसेरा के नीचे बरस्वार व सीला गाँव (असवालों के गाँव) पर अपनी शोध यात्रा में निकला था। यहाँ के असवाल और नगर मिर्चौडा या फिर बडोली-रणचूला व खेड़ा तल्ला के असवालों की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ अलग अलग नजर आई! हो सकता है कि शैक्षिक स्तर ने यह अंतर डाला हो लेकिन सब में अपने ही वंशजों के बीच एक खाई सी नजर आई।
सीला-बरस्वार के असवाल व नगर मिर्चौड़ा के असवालों में क्यों खाईयां आई इसका आज तक सही जबाब कोई भी असवाल थोकदार निष्पक्ष रूप से नहीं दे सका जबकि चौंदकोट के कुलासू गाँव के असवाल अपने आपको न तच्छवाड़ी असवालों से जोड़ना पसंद करते थे न सुन्ना गांव (सिमारगाँव) के असवालों से …! इसका एक कारण यह बताया जाता है कि कालांतर में नगर गाँव का कोई असवाल ढाकर लेने कोटद्वार चौकीघाट मंडी गया हुआ था, तब यह मंडी गोलंगगढ़, रणकासेरा के भगदयो असवाल के अधीन आती थी जो महाब गढ़ के प्रतापी थोकदार भन्धौ असवाल का वंशज था। भगदयो यहाँ अपनी सात रानियों के साथ ऐशो-आराम से रहता था, उसके पुरखे सभी सीला गाँव के थे व गढ़पति होने के नाते उसे मालनघाटी नदी तट क्षेत्र पर पूरा अधिपत्य हासिल था। भगदयो अपने अहम में इतना चूर रहता कि वह किसी को कुछ नहीं समझता था।
चौकीसेरा में जब नगर के असवाल व भगदयो असवाल आमने सामने हुए तो नगर के असवाल को उम्मीद थी कि भगदयो असवाल छोटा व वंशज होने के नाते उन्हें जै द्यो करके नमस्कार करेंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं! नगर के असवाल तभी भी सीला के असवालों को अपना अनुज समझते थे लेकिन सीला के अस्वालों ने अपनी तलवारों के बल पर नगर के असवालों से ज्यादा अपनी जागीर बढ़ा दी थी। शायद उन्हें यह भी पता था कि उनके पुरखे भन्धौ असवाल व बीणा पंवारी के प्रेम प्रसंग के चलते भन्धौ असवाल को नगर गाँव त्यागना पडा था। यहाँ जब नगर के असवाल के अहम को चोट लगी तो उसने भगदयो को उस बात से अवगत करवाया। भगदयो व अन्य असवाल शायद इसी ताक में थे कि इनकी तरफ से पहल हो। उन सबने मिलकर नगर गाँव के असवाल का सिर मूंडा और कहा कि ये सोचकर घर जाना कि जो तेरे वंशज जो असवालस्यूं से बाहर हैं वे तेरे लिए मर गए। (किंवदन्तियों पर आधारित गाथा)
कहा जाता है कि नगर गाँव के असवाल जिसके पुरखों की वीरता के कारण उन्हें “अधौ असवाल, अधौ गढवाल” जैसे शब्द की यश कीर्ति मिली थी, आत्मग्लानी के कारण नगर गाँव नहीं जा पाया। वहीँ कुछ का कहना है कि थोकदार असवाल के इस तरह के बाल मूंडने के बाद नगर गाँव में कछडी बैठी व इसे आत्मस्वाभिमान का बिषय मानकर सबने फैसला लिया कि इस थोकदार को गाँव से निष्काषित किया जाय। कालान्तर में क्या सच रहा क्या झूठ..। यह लिखित दस्तावेज कहीं मौजूद नहीं है लेकिन यह सच है कि वह असवाल थोकदार नगर गाँव छोड़कर सुन्ना गाँव/सिमार गाँव (चौन्दकोट) आ बसा।
उपरोक्त सारे उदाहरण देने के पीछे उस कहावत को चरितार्थ करना जरुरी था जो सबसे पूर्व में लिखी गयी है। सीला बरस्वार के ही वंशज असवाल जब अजमीर-उदयपुर के महाबगढ़, गंगोलगढ़, रणचूलागढ़ के अधिपति बने तो उन्होंने अपने स्वर्णिम काल में अपने अहम के आगे किसी की परवाह नहीं की। रणचूला के उप्पू असवाल को वीरता में उप्पू चौहान के बराबर समझा जाता है जिसे साधने के लिए भरपूर गढ़ के अमरदेव सजवाण को राजा ने भारी सेना के साथ रणचूला भेजा था। उप्पू असवाल नयी दुल्हनों की नथ उतराई करता था यह लोकगाथाओं में कई जगह मिलता है वहीँ वह शेर के समान बलवान व गुलदार की तरह चतुर चालाक था। खैर यह सब किस्से हैं जिनका ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर कोई दस्तावेज इसलिए नहीं मिलता क्योंकि किसी ने इसे लिखने की जहमत ही नहीं उठाई।
(फोटो 1- प्रणेश असवाल (प्रज्ञा आर्ट्स, असवाल एसोसिएट “प्रेम गाथा उत्तराखंड की मिट्टी की) 2-मनोज इष्टवाल (थोकदारी क्वाठा मल्ला सीला गांव )।
अब आते हैं सीला गाँव के उद्दु असवाल पर..! सुप्रसिद्ध लेखक अनुसूया प्रसाद काला ने अपनी पुस्तक “ऋषि-मुनियों की तपोभूमि उत्तराखंड” के पृष्ठ संख्या 1 से 4 पर श्रृंगारमति की खूबसूरती का बर्णन व उसके दुखद अंत का जिक्र किया हुआ है। वहीँ उन्होंने इसमें दो कहानियां जोड़ दी, जिसमें श्रृंगारमति को दो जातियों की पुत्री अलग-अलग एंगल से घोषित किया है। एक चौंडयाल गुसाईयों की पुत्री व दूसरी कंडवाल जाति की पुत्री..!
बहरहाल मेरे वर्तमान शोध और तथ्यों के आधार पर श्रृंगारमति बनाली गांव के चौंडयाल गुसाईं जाति की पुत्री थी। आइये इस कहानी का पटाक्षेप भी किये देते हैं। यह कहानी चार गाँवों के इर्द-गिर्द घूमती हुई उस राजपूती अहम पर आकर खत्म होती है जिसमें दर्जनों लाशें बिछने के बाबजूद भी कुछ हासिल न हुआ। हासिल हुआ तो श्रृंगारमति का वह श्राप जिसके कारण असवाल वंशजों के गाँव के गाँव धीरे-धीरे करके गंगोलगढ़, राणसा व महाबगढ़ क्षेत्र से मिट गए।
“ऋषि-मुनियों की तपोभूमि उत्तराखंड” नामक पुस्तक में लेखक अनुसूया प्रसाद काला लिखते हैं कि अगर यह चौंडयाल गुसाइयों की पुत्री होती तो हो सकता था कि उन्हें श्रृंगारमति का विवाह असवाल थोकदारों में करने में कोई दिक्कत नहीं होती। वे श्रृंगारमति को कांडा के कंडवाल वंशजों की पुत्री बताना ज्यादा पसंद करते हैं और कहते हैं कि अंतरजातीय विवाह के कारण उन्होंने असवाल जाति में रिश्ता करने से मना किया होगा लेकिन मैं इस तर्क पर यह दलील देना चाहूँगा कि ऐसा उस काल में कदापि नहीं होता था क्योंकि ब्राह्मण का मान तब राजपूत जातियों में बहुत सम्मानजनक हुआ करता था। दूसरा इसलिए भी कि अगर वह कंडवालों की बेटी होती तो फिर घरभूत बनाली गाँव के क्यों नचाते? माना तो यह भी जाता है कि इस युद्ध में लगभग 36 कंडवाल वंशज व 40 तोमर जाति (जवाड गांव) के यौद्धाओं ने वीरगति प्राप्त की।
घरभूत कोई भी हो वह अपने घर में ही नचाया जाता है। जैसे वीरांगना तीलू रौतेली का रणभूत आज भी उसी के मायके कांडा में नचाया जाता है न कि किसी अन्य स्थान पर। अत: मेरा स्पष्ट तरीके से मानना है कि श्रृंगारमति बनाली गाँव के चौंडयाल जाति की पुत्री थी इसीलिए वह घरभूत वहां नाचती है व बड़ेथ तथा कांडा गाँव के ग्रामीण उसे देवी के रूप में इसलिए पूजते हैं क्योंकि उसने वहां प्राण त्यागे थे और यहीं अपने अंतिम भाई को मरते देखा था। आज भी कांडा-बडेथ के ग्रामीण पाती का मेला आयोजित करते हैं, जो सात दिन चलता है। मेरा मानना है कि आज भी श्रृंगारमति पर शोध की आवश्यकता है।
क्या है पूरा किंवदंतियों पर आधारित इतिहास!
सीला पट्टी के सीलाकोट (क्वाठा) के उद्दु असवाल व भँधौ असवाल के पुत्र भगदयो असवाल जोकि मालन घाटी के बाएं छोर पर स्थित रणेसा नामक बिशाल महल में रहता था। उसकी 7 रानियां थी। कुछ लोगों का मनना है कि राणेसा सिर्फ रानियां रहा करती थी जबकि भगदयो असवाल भाँदुबासा, मआलुबासा या भलस्वा में रहा करते थे।
यह गाथा 17वीं सदी के उत्तरार्द्ध की बताई जाती है। और इन्हीं में से एक रानी की पुत्री बनाली गांव के चौंडयाल थोकदारों में ब्याही हुई थी। चौंडयाल उस काल में थोकदारी राजपूतों में शामिल थे। सात भाई चौंडयालों की एक बहन हुई श्रृंगारमती…! जतो नाम: ततो गुण: वाली कहावत श्रृंगारमती पर चरितार्थ थी। असवाल जाति की अपनी भाभी से श्रृंगारमती का बिशेष लगाव व प्रेम था। भाभी श्रृंगारमती के बिना व श्रृंगारमती अपनी भाभी के बिना रह नहीं पाते थे। श्रृंगारमती ने अभी बाल्यपन की सीढ़ी पार ही की थी कि उसकी मंगणी की बातें होने लगी।
असवाल जाति की भाभी चाहती थी कि वह उसकी मंगणी अपने भाई से करवाये। रूपवति श्रृंगारमती के मन में उसकी भाभी ने अपने भाई के प्रति कूट-कूट कर प्रेम भरना शुरू कर दिया। 09 बर्षीय श्रृंगारमती भला क्या जाने की प्रेम किसे कहते हैं। भला उसकी यह हिम्मत कैसे होती कि वह अपने पिता या भाई को यह कह सके कि उसकी ससुराल असवालों में होनी है।
इधर उसकी असवाल भाभी ने अपने पति से रट लगा ली कि चाहे कुछ हो जाये मैं श्रृंगारमती का डोला अपने भाई के घर ले जाऊंगी। पति जानता था कि उसका भाई भंगलची है व पिता के नाम के अलावा उसके पास कुछ नहीं है। इसलिए उसने साफ मना कर दिया। भला असवाल क्षत्राणी इतने में कहां मानने वाली थी। उसने प्रतिज्ञा ली कि चाहे हेंवल नदी पलट जाय या मालन नदी में बाढ़ आ जाय वह श्रृंगारमती को अपने भाई की पत्नी बनाकर रहेगी।
इधर दो बर्ष यूँहीं गुजर जाते है, उधर श्रृंगारमती के पिता अपनी 11 बर्षीय पुत्री का टीका जवाड गांव के उच्च कोटि के थोकदारों में कर आते हैं। यह बात असवाल जाति की श्रृंगारमती की भाभी को नागवार गुजरती है व चैती पसारा मांगने आये अपने गांव के आवजी को उलाहना देकर कहती है कि अब मेरे मैती इस लायक नहीं रहे कि उन पर अभिमान किया जा सके। यदि उनके रक्त में आज भी हमारे पुरखों के खून का उबाल है तो वह ऐन श्रृंगारमती के विवाह के दिन बारात लेकर आएं और श्रृंगारमती का डोला ले जाएं। वह श्रृंगारमती के हाथ से उतरी चूड़ी भेजते हुए कहती है कि अगर ऐसा नहीं कर पाए तो वे इस चूड़ी को पहन लें।
आवजी सीला कोट पहुंचकर यह संदेश थोकदार को पहुंचाता है। तो थोकदारी खून उबाल मारने लगता है। उसके बाजू की नसें बलबलाने लगती हैं। सीला कोट में कछड़ी बैठती है। तय होता है कि चाहे कुछ हो जाये हम श्रृंगारमती का डोला जरूर सीलाकोट लेकर आएंगे।
कागली भगदयो असवाल को भी राणेसा/भँधौ बासा, मलसवा भेजी जाती है। कागली पाँवगढ़ व घुड़केन्डा गढ़ भी भेजी जाती है व चेतावनी बनाली गांव के चौंडयालों को भी कागली में भेजी जाती है। भला राजपूती खून किसका जमता। इसे चौंडयाल भी अपनी प्रतिष्ठा का बिषय मानते हैं व जवाड गांव के तोमर को चेताते हैं कि पूरे हथियारबंद होकर ही बारात में आना। चौंडयालों के कुल पुरोहित कंडवाल भी इसे अपने यजमानों की प्रतिष्ठा का बिषय मानकर यलगार करते हैं। शायद यह क्षेत्रीय आक्रोश था जो असवालों की ज़्यादतियों पर अब तक खामोश था। पूरी घाटी के लोगों को धर्मधाद मारी जाती है, और उन्हें ऐन केन प्रकारेण इस धर्म युद्ध के लिए सजग रहने को कहा जाता है।
आखिर वह दिन आ ही गया जब श्रृंगारमती का विवाह लग्न सम्पन्न होना था। तोमरों की बिशाल बारात पहुंच चुकी थी। बनाली गांव सजग पहरे में था कि अचानक चहुं दिशाओं से घोड़ों के टापों व हिनहिनाहट से हृदय कांप उठते हैं। सैकडों असवाल व उनके सैनिक हाथों में तलवार लिए बनाली आ पहुंचते हैं। चौंडयाल मिन्नत करते हैं लेकिन भला रोकते कैसे तलवारे म्यान से बाहर जो निकल चुकी थी। जो सामने आया उसकी गर्दन नपनी शुरू हो गयी। वेदी मंडप खून से लहूलुहान हो गया। श्रृंगारमती को डोले में उठाकर असवाल आगे बढ़ते हैं। बनाली से डोला बड़ेथ पहुंचता है। यहां तोमरों, चौंडयालों व कंडवालो ने असवालों का विरोध किया। लेकिन जो सामने आया असवाल उनकी गर्दन नापते रहे। कई असवाल व उनके सैनिक भी इस मारकाट में मारे गए होंगे।
डोला कांडा पहुंचता है। जहां आख़िरी रण होता है और श्रृंगारमती के सातों भाइयों की लाशें बिछती थीं। बेबस श्रृंगारमती रोने विलाप करने के अलावा कर भी क्या सकती थी। चंडाक पर्वत श्रेणी के चंडा खाल में जब श्रृंगारमती अपने सबसे छोटे भाई को मरते देखती है तो वह असवालों को श्राप देती है कि आज से इस क्षेत्र में तुम्हारा नाम लेने वाला कोई न बचे। और डोली के साथ रखी खुंखुरी या कटार से अपनी गर्दन रेत देती है।
जब डोले से खून रिसता हुआ कहारों की हाथों को छूता है तो वे चिल्ला पड़ते हैं। डोला नीचे उठाता जाता है तो देखते हैं श्रृंगारमती लाश में तब्दील हो गयी है। यह वही स्थान है जहां देवी मंदिर चंडाखाल में अवस्थित है व यहीं पाती मेला लगता है। श्रृंगारमती के डोले को अपने घर ले जाने की जिद में सैकड़ों लोग मारे जाते हैं लेकिन हासिल कुछ नहीं होता।
प्रश्न क्या यह मंदिर श्रृंगारमती के नाम से जाना जाता है? आज भी बनाली के चौंडयालों व कंडवालों के घर श्रृंगारमती का घरभूत नाचता है। एक औरत की जिद अर्थात असवाल जाति की बहू की जिद ने पूरी हेंवल व मालन घाटी में मातम पसरा दिया व श्रृंगारमती के श्राप से इस क्षेत्र बिशेष में एक भी असवाल जाति तब पनप न पाई। जिस महाब गढ़ पाँवगढ़ व भाँदु बासा क्षेत्र के अधिपति असवाल रहे वहां उनके आवास व गांव कालांतर में खंडहरों में तब्दील हो गए। यह सब कितनी सत्य घटनाएं हैं, कहा नहीं जा सकता लेकिन यह सत्य है कि वीरांगना तीलू रौतेली की तरह यहां भी श्रृंगारमती का घरभूत पूजा जाता है।