Saturday, July 27, 2024
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“मेरु गौं” फ़िल्म है या उत्तराखंड में पलायन का दस्तावेज! जबरदस्त स्क्रिप्ट, निर्देशन, संवाद व अभिनय-शोध ने दिखाया दम-खम।

“मेरु गौं” फ़िल्म है या उत्तराखंड में पलायन का दस्तावेज! जबरदस्त स्क्रिप्ट, निर्देशन, संवाद व अभिनय-शोध ने दिखाया दम-खम।

(मनोज इष्टवाल/फ़िल्म समीक्षा)

यूँ तो फ़िल्म के कई टेक्निकल पार्ट में कई ऐसी गुंजाइशें आपको तब दिखेंगी जब आप उसकी तुलना बॉलीवुड की करोड़ों की बजट की फ़िल्म से करना शुरू करेंगे। फिर आपको लगेगा कि कहीं यह आर्ट फ़िल्म के रूप में तो नहीं परोसी जा रही है लेकिन फिर आप अपना विजन बदलेंगे व सोचेंगे नहीं यार…यह एक ऐसी सशक्त पटकथा से जन्मी वह फ़िल्म है जो कहती है कि काश…इंटरवल न होता?

यूँ तो सुप्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक अनुज जोशी के निर्देशन का मैं जोरदार प्रशंसक रहा हूँ। तब से जब उनके द्वारा उत्तराखंड राज्य आंदोलन से जुड़ी फ़िल्म “तेरी सौं” के कई किरदारों को तो छोड़िए मुख्य किरदार को भी उन्होंने तराशकर हीरा बना दिया था। खैर राज्य आंदोलन से जुड़ी पटकथा पर तो काम करना ऐसे लेखक निर्देशक के लिए कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि उन्होंने स्वयं वह सब कुछ अपनी खुली आँखों से देखा है लेकिन एक विराट समाज के लोक मुद्दे, लोक संस्कृति, संवरते-बिखरते परिदृश्य का लगभग आधी सदी का मंजर पेश करना, वह भी दो सवा दो घण्टे की फ़िल्म में…कोई आसान काम नहीं है।

“मेरु गौं” एक ऐसी गढ़वाली फ़िल्म गाथा से कम नहीं जिसकी पटकथा मानों द्वापर युग के महाभारत का विदुर बनकर पूरे प्रलय का दृष्टांत दृष्टराष्ट्र को सुना रही हो। यह फ़िल्म भी उस महाभारत से कम नहीं जिसने गांव, समाज, खेत-खलिहान, लोक सब तबाह कर दिया। यह यकीनन पलायन का वह जीता-जागता दस्तावेज है जो चीख-चीख कर अपने अंतस को ही गुनाहगार मानकर पूरे समाज, नीति-नियंता व प्रदेश नेतृत्व से बेलगाम प्रश्न पूछने को उतावला है। साथ ही प्रश्नों का जबाब स्वयं देकर नीति-नियंताओं को निरुत्तर करते प्रश्न आज भी ज्यों के त्यों अपनी दयनीय दशा पर खिलखिलाकर हंसते हुए हम सबको खामोश कर मानों कह रहे हों कि पलायन की पीड़ा भारी है या वापसी की? अर्थात माइग्रेशन जरूरी है या रिवर्स माइग्रेशन!

अनुज भी कमाल के हैं, शायद उन्होंने अपनी जन्म कुंडली कहीं फिर दिखाई है और मानों ज्योतिष ने बोला हो आप पर फ़िल्म टाइटल तीन शब्दों का ही खफ रहा है। और उन्होंने उसी पर मानो अमल करते हुए “तेरी सौं” के मूर्त रूप में तीन आखर लिख दिए हों- “मेरु गौं।”

(आज के शो की ओपिनिंग युसेक के निदेशक डोभाल जी ने रिब्बन काटकर की)।

फ़िल्म के निर्माता निर्देशक से जब मैंने फ़िल्म सम्बन्धी चर्चा की तो वह अपने स्वाभाविक अंदाज में बोल पड़े- मनोज भाई, यह मुफलिसी के दौर में निकली मेरी वह फ़िल्म व पटकथा है जिसे मैंने सोचा भी नहीं था कि बड़े पर्दे पर लाऊंगा। इसे हम मूलतः वेब सीरीज के रूप में लाना चाहते थे क्योंकि तब तक यह नहीं सोचा था कि इसका बजट जोड़ पाएँगे लेकिन यह निर्माता राकेश गौड़ जा साहस ही समझिए कि हम इसे हाल तक लाने में कामयाब हो गए। आपने देखा होगा कि इसमें लाइट्स का इस्तेमाल नहीं किया गया है। सच कहूं मनोज भाई …यह फ़िल्म बमुश्किल दो हफ्ते के शूट में तैयार है।

अनुज जोशी के इस खुलासे ने यकीनन मेरे पैरों तले जमीन खिसका दी क्योंकि 13-14 दिन में तो बमुश्किल एक गीत ही शूट हो सकता है। लेकिन गढ़वाली सिने जगत के मंझे हुए कलाकारों ने पूरी फिल्म के एक एक डायलॉग के साथ पूरा पूरा इंसाफ किया है।

इस फ़िल्म ने मुझे कश्मीर फाइल्स याद दिला दी। कम बजट की ठेठ जनमुद्दों पर आधारित यह फ़िल्म भी वैसी ही है, जैसी कश्मीर फाइल्स है। फर्क बस इतना है कि कश्मीर ने अपनी तबाही का मंजर देखकर पुनः वह के जन मानस को वर्तमान केंद्र सरकार की सुदूरदर्शी सरकार ने भोर की किरण के साथ उगता सूरज दे दिया है जबकि यहां 22 साल के उत्तराखंड राज्य जिसका जन्म ही शहादतों व आंदोलनों से हुआ पलायन का ऐसा पहाड़ दे दिया है जिसने अस्तांचल की ओर बढ़ते सूरज की धुंधली होती किरणों का आगाज शुरू कर दिया है। फ़िल्म मुट्ठी बंद करती हुई कहती है- अभी भी इस दंश को रोक सको तो रोक लो।

फ़िल्म की शुरुआत उस ढोली से होती है जो पूरी पृथ्वी का भार अपने कांधे पर लिए गाँव, ग्रामीण लोक समाज, प्रकृति व प्रकृति प्रदत्त सभी उपादानों के साथ मानव समाज ही नहीं बल्कि समस्त पृथ्वी के प्राणियों के मंगल की कामना करता ढोल के बोल के साथ गाता है- प्रभात को पर्व जाग, गौ स्वरूपा पृथ्वी जाग…आकाश लोक जाग, पाताल लोक जाग, मेघ लोक जाग, वायुमण्डल जाग…जाग रे बाबा जाग।

यहां ढोली (अभिनेता रमेश ठंगरियाल) के किरदार से जिसे यकीनन हिमालय में जन्मा शिब का स्वरूप माना जाता है, से फ़िल्म अपनी शुरुआत करती है। कांधे पर ढोल उठाये एक अरदास की तरह यह गीत “मेरु गौं मेरो पराण, येमा ही जीण, येमा ही समाण” …के बोल के साथ आगे बढ़ते कदम मानों उन सब घाटा बाटा को नाप रहे हों जिनके पदचापों से प्रकृति प्रफुलित हो जाया करती है। गाँव के ढोली समाज के ज्वलन्त मुद्दों को अपने शानदार अभिनय से उठाकर रमेश ठंगरियाल ने कई प्रश्न उत्तराखंडी समाज के समक्ष रखे।

फ़िल्म निर्माता व मुख्य अभिनेता के रूप में बेजोड़ अभिनय करते अभिनेता राकेश गौड़ को इस बार दर्शकों ने नए स्वरूप में देखा। अगल-बगल में बैठे दर्शक कानाफूसी करते सुनाई दिए कि हर बार यह बड़े रुआबदार रोल में होते हैं, पहली बार अपनी थाती-माटी पर चिंतित इस अभिनेता के डायलॉग्स ने यकीनन आम प्रवासी को चिंतन करने को मजबूर कर दिया। मंझी हुई अभिनेत्री सुमन गौड़ ने यहां उनकी पत्नी का किरदार निभाते हुए यह साबित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी कि पूत से नाती प्यारो। वहीं मुख्य अभिनेता राम (राकेश गौड़) की माँ की भूमिका में सुप्रसिद्ध अभिनेत्री सुशीला रावत व पिता के रोल में खुशाल सिंह बिष्ट ने संवाद के साथ अभिनय भी बखूबी निभाया।

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अब इनके पुत्र बहु व नाती की भूमिका में एक संयुक्त परिवार ने (अभिनेत्री गीता उनियाल, विकास उनियाल व रुद्राक्ष उनियाल) के साथ -साथ बालिका ने भी अपने को अभिनय की कसौटी पर खरा साबित किया। अभिनेत्री गीता उनियाल की संवाद क्षमता के साथ अभिनय में ठेठ गांव के लोक समाज का परिदृश्य दिखा। खबरी सचिदानंद की भूमिका में अभिनेता रमेश रावत व चिन्नी की भूमिका में निशा भंडारी के अभिनय ने लोगों को खूब हंसाया भी। सच मायने में फ़िल्म ने जितने आंसू दर्शकों से बहाए उतना ही इन्होंने खूब हंसाया भी…! अभिनेता रमेश रावत की डायलॉग डिलीवरी का कमाल ही अलग है।

अंग्रेजी बौ के रूप में कत्थक नृत्यांगना व अभिनेत्री गीता गुसाईं नेगी ने भी अच्छा खासा मनोरंजन किया। यहां पहाड़ की वह पीड़ा कहीं न कहीं प्रदर्शित अवश्य होती है कि किस तरह एक फौजी के परिवार की मजबूरी रहती है कि वह चाहकर भी घर नहीं छोड़ सकते। स्कूल जाते बच्चे (मास्टर) ने भी कमाल का अभिनय किया। पत्रकार की भूमिका में रंगकर्मी गिरीश पहाड़ी के लिए सच कहूं तो करने के लिए कुछ नहीं था। एक पत्रकार कभी अपने साथ एम ए की डिग्री नहीं जोड़ता। उनके लिए मजबूत संवाद न होने से कहीं न कहीं अन्तस में कई सवाल खटकते रहे। एक रिपोर्टर रिपोर्टिंग करने गांव में जाता है व वह फिर वहीं का हो जाता है, रिपोर्टर किस लिए रिपोर्टिंग कर रहा था, यह भी साफ नहीं हो पाया। ध्वनि व संवाद में अंग्रेजी बौजी के साथ पार्श्व ध्वनि ग्रामीण परिवेश को मैच नहीं कर रही थी। वहीं चुन्नी व खबरी के संवाद में जूता चप्पल आना भी कुछ अटपटा लगा।

कैमरा पार्ट टेक्निकली खामियां दिखाता हुआ नजर आया जो कि मूलतः ना के बराबर व नजरअंदाज करने जैसा था। उत्तराखंड संस्कृति से जुड़े मंझे हुए कलाकारों जैसे मदन डुकलान, सतीश कालेश्वरी, ग़ोकुल पंवार इत्यादि ने अपने संवादों के साथ पूरा इंसाफ किया। गीत व संगीत दोनों ही कर्ण प्रिय लगे व बिषय वस्तु के अनुसार जीवंत लगे।

कई लोगों का मानना है कि हरिद्वार का मुद्दा बेवजह डाला गया है, मेरा मानना है हमें फ़िल्म का वह डायलॉग जरूर सुनना चाहिए जो हरिद्वार को लेकर किया गया है। उसमें साफ साफ है कि हर की पैड़ी क्षेत्र उत्तराखंड में रहे। मुद्दे हरिद्वार व उधमसिंह नगर के उठाएं हो या गैरसैण के…! सभी ज्वलन्त हैं। क्या हम जानते हैं कि हरिद्वार देहरादून व उधमसिंह नगर जनपद पर पूरे प्रदेश का लगभग 60 प्रतिशत बजट खफता है और यही सबसे बड़ा कारण भी है उत्तराखंड के 10 पहाड़ी जनपदों से निरंतर होते पलायन का।

मुझे लगता है 2026 में होने वाले विधान सभा परिसीमन व भू प्रबंधन को देखते हुए यह फ़िल्म वर्तमान सरकार ही नहीं बल्कि विपक्ष के लिए भी एक दस्तावेज के रूप में है। शिक्षा और स्वस्थ व्यवस्थाएं जिस तल्खी से उठाई गई हैं वह प्रदेश सरकार को आइना दिखाने वाली हैं। मेरे हिसाब से इस फ़िल्म को मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी उनके मंत्रिमंडल व नीति नियंताओं को एक दिन आकर जरूर देखनी चाहिए। मेरा दावा है उन्हें यह फ़िल्म काफी कुछ नया रिवर्स माइग्रेशन के लिए लालायित करने व योजनाओं को क्रियान्वित करने में सक्षम हो सकती है।

फ़िल्म का अंत भी वहीं जाकर होता है जहां से शुरुआत होती है। एक वैज्ञानिक कसम खाकर नौकरी छोड़कर गांव इसलिए लौटता है कि वह फिर कभी शहर नहीं लौटेगा व यहीं अपने दिमाग में पनपी योजनाओं को क्रियान्वित कर रोजगार के संसाधन जोड़ेगा लेकिन हर गांव की वही कहानी। कछडी बैठी रहे करना धरना कुछ नहीं..सब के लिए सिर्फ सरकार दोषी।

ढोली जिस तरह फ़िल्म का एंडिंग करता है वह दिल पसीज देने वाला है। मुझे लगता है यह पहली ऐसी गढ़वाली फ़िल्म अब तक बनी जिसके मुख्य किरदार 60 बर्ष की अवस्था के पार के हैं।

मेरु गौं फ़िल्म का संगीत संजय कुमोला ने दिया है जबकि गीत जितेंद्र पंवार ने लिखे हैं व गीत सुप्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी व जितेंद्र पंवार ने गाये हैं। संगीतकार संजय कुमोला ने वस्तुस्थिति अनुकूल संगीत दिया है जबकि गीतों के साथ जितेंद्र पंवार की लेखनी ने पूरा इंसाफ़ किया है। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने फ़िल्म में एक गीत गाया है जो दो या तीन पार्ट में सुनाई देता है।सिनेमाफोटोग्राफी राजेश रतूड़ी व सहायक कैमरामैन के रूप में जतिन सोनी व स्पर्श घिल्डियाल ने काम किया है। कोरियोग्राफी -लक्ष्मी रावत पटेल द्वारा की गई है। फ़िल्म की पटकथा व निर्देशन अनुज जोशी व निर्माता राकेश गौड़ हैं।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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