Sunday, September 8, 2024
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इनसाइड स्टोरी ऑफ़ “चिपको” आन्दोलन इन रैणी विलेज….! आखिर कैसे व किसके मुंह से निकला था “चिपको” शब्द..!

इनसाइड स्टोरी ऑफ़ “चिपको” आन्दोलन इन रैणी विलेज….! आखिर कैसे व किसके मुंह से निकला था “चिपको” शब्द..!

(मनोज इष्टवाल)

उत्तराखंड के ऐतिहासिक परिदृश्य का अध्ययन करते-करते इतना तो अनुभव अब हो ही गया है कि हम कभी पूरा सच सामने लाने का साहस नहीं कर पाए व गढ़ दरबारियों की भाँति हम भी कहीं न कहीं एक ऐसे अप्रत्यक्ष बंधन के वशीभूत रहे, जहाँ हम उस आभामंडल के वैभवी रूप में नतमस्तक रहे जिस आभामंडल पर काफी कुछ और शोध किया जाना चाहिए था  ऐसा ही एक ऐतिहासिक दस्तावेज है रैणी गाँव से शुरू हुए “चिपको आन्दोलन” का..! इस आन्दोलन में जन्में दो रत्न तो क्षितिज छू गए लेकिन बाकी इतना पिछड़ गए या उन्हें खुद यह समझना कठिन हो गया कि वे पिछलग्गू टीम के मेम्बर्स थे या बैकफुट के बल्लेबाज..! इनमें कुछ प्रमुख नामों में वासवानन्द नौटियाल, रमेश पहाड़ी, गोबिंद सिंह रावत, हयात सिंह बिष्ट आलम सिंह बिष्ट इत्यादि हैं। जबकि क्षितिज पर टिमटिमाने वाले तारे रहे सुंदरलाल बहुगुणाचंडीप्रसाद भट्ट

वहीँ रैणी गाँव की गौरा देवी के अलावा शायद ही हम ये जानते होंगे कि इस आन्दोलन में रैनी, लाता, तोलमा, सुफी, पैंग, भंग्युल, सलधार की भी 60-70 महिलायें जंगल कटने से पहले पेड़ों की रक्षा सूत्र बनकर पेड़ों से लिपट गई और उनके इस साहस को देखकर 20-25 मजदूरों को अपने आरे, कुल्हाड़ी इत्यादि लेकर जंगल छोड़कर भागना पड़ा। यहाँ भी सिर्फ दो महिलायें ही तत्कालीन समय में अखबारों की सुर्ख़ियों में रही। एक श्रीमति गौरा देवी तो दूसरी श्रीमती बाली देवी…! लेकिन गुमनाम हो गई श्रीमति बाटी देवी, चन्द्री देवी, रुपसा देवी, डुका देवी, मूसी देवी, चिलाड़ी देवी सहित दर्जनों अन्य ग्रामीण महिलायें…।

राज्य आन्दोलनकारी वासवानन्द पुरोहित बताते थे कि स्वाभाविक है जो लीडरशिप देखेगा उनके नाम आगे बढ़ेंगे ही। चाहे सुंदरलाल बहुगुणा हों या फिर चंडी प्रसाद भट्ट…। दोनों ने ही “चिपको आन्दोलन” में अपनी सक्रियता बनाए रखी। वहीँ 1988-89 में गौरा देवी ने अपने साक्षात्कार में कहा कि तब मुझे हमारे गाँव की अध्यक्ष के रूप में चुना गया, शायद इसलिए कि मैं महिलाओं से जुड़े मुद्दों को लेकर काफी सजग रहती थी। महिला मंगल दल हो, कीर्तन हो या फिर मांगल-गीत हर जगह मुझे आगे कर दिया जाता था। तब भी ऐसा ही हुआ था जब हमारे गाँव में चंडीप्रसाद भट्ट व उनकी टीम के लोग आये थे। मुझे अगुवाई करने का मौका दिया गया व रैनी, लाता, तोलमा, सुफी, पैंग, भंग्युल, सलधार आदि गाँव की 60-70 महिलायें अलसुबह ही जंगल बचाने जंगल के लिए निकल गये। तब चंडीप्रसाद भट्ट का हम इन्तजार करती रह गई कि वो व उनकी टीम जंगल आकर हमें प्रोटेस्ट करेगी लेकिन वे नहीं पहुंच पाए। जब हम जंगल पहुंचे तब वहां लकड़ी काटने वाले मजदूर आरकस्सी भोजन कर रहे थे। हमारी उनसे बहस भी हुई तो एक व्यक्ति बोला- हम पेड़ों के साथ तुम्हे भी काट देंगे। महिलाओं ने दरांतियां लहराई लेकिन मैंने शांत मन से कहा – ठीक है तुम जिस पेड़ को काटोगे हम उसी से लिपट जायेंगे,पेड़ के साथ हमें भी काट देना। बेचारे मजदूर ठगे रह गए व दो घंटे तक इसी जद्दोजहद में रहे कि हम वहां से चली जायेंगी तो वे अपना काम शुरू करेंगे लेकिन उन्हें झुकना पड़ा।

जब हम गाँव लौटे तो देखा  वहां मजमा लगा हुआ है। गोपेश्वर से डिग्री कॉलेज के करीब 40-50 छात्र व छात्र नेता एक बस में सवार होकर वहां पहुंचे हुए हैं। कुछ देर बाद चंडी प्रसाद भट्ट जी भी आ गए। हमारी कहानी सुनकर एक छात्र नेता शायद उनका नाम “ओमप्रकाश चमोली” था बोले- आप लोगों ने पेड़ से अंग्व़ाळ बोटकर या चिपककर पेड़ बचाए, इसलिए आज से इसका नाम “चिपको” हुआ। छात्रों ने इसे “चिपको आन्दोलन” का नाम दे दिया और उसी दिन से अखबारों में “चिपको” की शुरुआत हुई। वह कहती हैं बस 24 मार्च 1974 के दिन ही इसे चिपको नाम मिला। पहले तो हम सब इसे अंग्वाळ कहते थे, अर्थात पेड़ पर हाथ बांधकर उसकी रक्षा करना।

“राज्य आन्दोलन” में अग्रणी भूमिका निभाने वाले वासवानंद पुरोहित जिनका गाँव पौड़ी गढवाल के चौंदकोट परगने का “हल्ली” (हरुली) था, बताते थे कि उस दौर में “चिपको आन्दोलन” इतना प्रचलित हो गया था कि हर कोई अखबारों में चिपको से जुडी खबरें पढने को उत्सुक रहता था। दरअसल इस आन्दोलन की शुरुआत को हम “दशोली ग्राम स्वराज मंडल” से जोड़कर देख तो सकते हैं लेकिन चिपको यहाँ से शुरू नहीं माना जा सकता। तब स्वराज मंडल के नाम से एक आरा मशीनलीसा प्रोसेसिंग फैक्ट्री चला करती थी, और स्वराज मंडल ग्रामीण हक़ हकूक की लकड़ी से कई गाँवों के चूल्हे चौके चलाया करते थे। यह बात उन्हें कॉमरेड गोविंद सिंह रावत अक्सर चर्चाओं में साझा किया करते थे।  उस समय लीसा फैक्ट्री से जुड़कर एक और नाम सामने आता है..रेंज ऑफिसर गोपाल जोशी उन्हें लोग गोपाल जोशी कम और गोपाल बँसूला ज्यादा बोला करते थे। क्योंकि उनके हाथ में एक बँसूला (कुल्हाड़ी नुमा) होता था जिससे वह चीड पेड़ों पर घाव देकर उस पर टिन की कीप लगाते थे जिससे छनकर लीसा निकलता था व टपककर नीचे लगाए टिन में गिरता था।

“चिपको आन्दोलन” में “दशोली ग्राम स्वराज मंडल” की भूमिका शुरू तब हुई जब 1973 में स्वराज मंडल की जगह पेड़ काटने का अधिकार साइमन वुड्स कम्पनी को दिया गया। स्वराज मंडल ने इस सबका विरोध किया लेकिन कुछ नतीजा नहीं निकला।  देहरादून में इसका टेंडर हुआ और पता चला कि रैणी के जंगलों का ठेका पड़ा है। आनन-फानन चंडीप्रसाद भट्ट व उनकी टीम रैणी पहुंची व वहां आस-पास के इलाके से आये ग्रामीणों के साथ एक बैठक कर अपनी नीति तय की कि चाहे कुछ हो जाए। हम बाहर वालों को अपने जंगल काटने नहीं देंगे, जंगलों पर हमारा पहला हक़ अधिकार है। बस यहीं से कब यह आन्दोलन पर्यावरण की तरफ मुडा और कब चिपको में बदलकर तत्कालीन मीडिया ने इसे विश्व स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया, पता ही नहीं चला!

वासवानन्द पुरोहित का मानना है कि अगर इस आन्दोलन में महिलायें शिरकत नहीं करती तो शायद यह आन्दोलन सरकार कुचलकर रख देती। उन्होंने कहा- “गौरा देवी सचमुच बेहद शांत, लम्बी चौड़ी, दबंग व बेहद सशक्त महिला हैं, उनकी जीवटता इसी से देखी जा सकती थी कि उनके कहने पर कई गाँव की महिलायें इकठ्ठा हो जाया करती थी! और तो और लाता गाँव की महिलायें तो “चिपको आन्दोलन” में ढोल नगाड़ों के साथ आभूषण पहनकर शामिल होती थी! यही महिला सशक्तिकरण की ललकार कहें या यलगार कहें …थी!”

वासवानन्द पुरोहित बताते हैं कि कामरेड गोविन्द सिंह रावत व मंडल के आलम सिंह बिष्ट के भाषणों की उग्रता में एक अलग ही भीड़ जुटाने का साहस था। गोविन्द पहले पटवारी था लेकिन बीच में ही नौकरी छोड़ वह पौड़ी आकर कॉमरेड बन गया। उसके पोस्टर व नारे लाल रंग से लिखे होते थे जिनकी भाषा कुछ ऐसे हुआ करती थी- आ गया लाल निशान, लुटने वाले हो सावधान, लिपटो, झपटो और चिपको!” सुंदर लाल बहुगुणा व चंडी प्रसाद भट्ट की भूमिका इस आन्दोलन में भुलाए नहीं भूली जा सकती। चंडी प्रसाद भट्ट चट्टान की तरह पूरे आन्दोलन की बागडोर सम्भाले रहे। शायद यही कारण भी रहा कि उनकी सक्रियता के चलते बाकी सभी चेहरे नेपथ्य में खो से गये। उनका पत्रकारों से अच्छा सम्बन्ध था और जोशीमठ हो या गोपेश्वर वह दोनों जगह से आन्दोलन की सक्रियता बनाए रखने के लिए खबरनविशों को आये दिन खबरें भेजा करते थे। इसलिए यह कहना कि सिर्फ उनका नाम ही इस आन्दोलन से जुड़ा मिलता है यह सही नहीं है। जो करेगा तो दिखेगा भी..। यकीनन उनके प्रयास नहीं भुलाए जा सकते! लेकिन यह कहना कि चिपको आन्दोलन रैणी गाँव से शुरू नहीं हुआ गलत होगा।

क्या कहती हैं विभिन्न कलमें:-

नैनीताल के वरिष्ठ लेखक व पत्रकार प्रयाग पांडे लिखते हैं “रैणी गाँव की महिलाओं ने आन्दोलन शुरू किया कि हमारे जंगल सरकार और उसके ठेकेदार क्यों काटें ? इन जंगलों में पहला हक गाँव के लोगों का है । लिहाजा 1893से पहले की तरह पहाड़ के जंगलों में पहला हक पहाड़ के लोंगों का होना चाहिए । जंगलों में स्थानीय वाशिंदों की हक की लड़ाई पर्यावरण संरक्षण में तब्दील हो गई ।जंगलों में पुराने हक – हकुकों की मांग कर रही आम जनता के ऊपर वन संरक्षण अधिनियम -1980 लाद कर जंगलों में यहाँ के लोगों के बचे – खुचे अधिकार भी खतम कर दिए गए । चिपको आन्दोलन अंतर्राष्ट्रीय हो गया । हाँ , इस आन्दोलन की बदौलत कुछ राष्ट्रीय / अंतर्राष्ट्रीय मान – सम्मान से जरुर लद गए । अस्सी के दशक में फिर शराब बंदी आन्दोलन हुआ ।शराब बंदी तो नहीं हुई । उल्टा गाँव – गाँव और घर – घर शराब पहुँच गई । फिर नब्बे के दशक में अलग उत्तराखंड राज्य के लिए प्रचंड जनांदोलन हुआ । लम्बी लड़ाई , त्याग और बलिदान के बाद सन दो हजार में अलग उत्तराखंड राज्य बन गया । राज्य बनने के बाद पूर्ववर्ती राज्य उत्तर प्रदेश से भी बुरी गत हो गई । “न मंजिल ही मिली, न दीदारे सनम। न इधर के रहे, न उधर के।”

वरिष्ठ लेखक व साहित्यकार अरुण कुकसाल लिखते हैं कि सलधार से 2 किमी. आगे ऋषि गंगा और धौली गंगा के संगम तट पर विख्यात रैणी गांव है। (रैणी सत्तर के दशक में चिपको आन्दोलन की अग्रज गौरा देवी का गांव हैं। गौरा दीदी गांव की अन्य महिलाओं के साथ 26 मार्च, 1974 को रैणी के सितेल जंगल पहुंची थी। पेड़ों को काटने आये मजदूरों का विरोध करते हुए पेडों से चिपककर उन्हें चेतावनी दी थी कि तुम हम पर बन्दूक की गोली चला दो, पर हम अपने मायके जैसे जंगल को कटने नहीं देंगे।तब लगता था जैसे गौरा देवी तथा उनके सहयोगियों के मार्फत सिर्फ़ रैणी नहीं, पूरा उत्तराखंड बोल रहा था बल्कि देश के सब वनवासी बोल रहे थे। आखिरकार, मातृशक्ति के आगे सरकारी मनमानी को झुकना पड़ा। और, सितेल-रैणी का जंगल और गांव की महिलाओं का मायका लुटने से बचा लिया गया था। रैणी गांव की महिलाओं की यही सामाजिक चेतना, बाद में, चिपको आन्दोलन के नाम से विश्व प्रसिद्ध हुआ था।)

जोशीमठ से नीति घाटी की ओर 15 किमी. की दूरी पर स्थित इसी रैणी गांव के पास 7 फरवरी, 2021 को ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट से वह भयंकर तबाही शुरू हुई थी। इस समय विश्वास नहीं होता कि यह वही क्षेत्र हैं जहां देश-दुनिया में प्रसिद्ध चिपको आन्दोलन ने जन्म लिया था। विजय बताते हैं कि वर्ष- 2011 में भी ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट से इस क्षेत्र को काफी नुकसान हुआ था। परन्तु, इससे सबक सीखने के नाम पर देश और प्रदेश की सरकार पर्यावरण के नाम पर पुरस्कारों की घोषणा से आगे नहीं बढ़ पायी है। और, स्थानीय आम जनता वहीं की वहीं ठिठकी हुई है।“

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार नन्दकिशोर हटवाल लिखते हैं – 28 फरवरी 1974 को विधान सभा चुनाव के परिणाम निकलने के बाद रेणी के जंगलों को बचाने के लिए तथा चिपको आंदोलन के संचालन के लिए गोपेश्वर में समिति बनाई गई। जिसमें 15 मार्च 1974 को जोशीमठ में जंगल कटान के विरोध और चिपको के समर्थन में विशाल जुलूश निकालाना और सरकार को ज्ञापन सौंपना तय किया गया। इस हेतु 12 से 14 मार्च तक रेणी क्षेत्र के गाँवों में चिपको आंदोलन के लिए समितियां बनाई गईं तथा लोगों को 15 मार्च के जुलूस में आने की सूचना दी। 15 मार्च 1974 को जोशीमठ में जंगल कटान के विरोध और चिपको के समर्थन में विशाल जुलूश निकाला गया और सरकार को ज्ञापन सौंपा गया।“

रेणी के जंगलों की निलामी के बाद सरकार और विभाग के साथ ठेकेदार की ताकत भी जुड़ गई थी। 17 मार्च 1974 को ठेकेदार के आदमी मजदूरों के साथ जोशीमठ पहुँच गए। चण्डीप्रसाद भट्ट ने 22 मार्च को महाविद्यालय गोपेश्वर के छात्र परिषद से आंदोलन में भाग लेने का अनुरोध किया। जिलाधिकारी के माध्यम से उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री को पत्र भेजा गया और जंगल कटान के विरूद्ध चिपको की चेतावनी दी गई। जिलाधिकारी से छात्रों को जंगल की कटाई रोकने पर आश्वासन नहीं मिला तो 24 मार्च को 60 छात्रों का दल बस से चिपको आंदोलनका उद्घोष करते जोशीमठ पहुँचा। उनके साथ निगरानी के लिए दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल के कार्यकर्ता चक्रधर तिवारी भी थे। छात्रों ने जुलूस निकाला, पेड़ न कटने देने का संकल्प दोहराया और चिपको आंदोलन में भाग लेने की घोषणा की।

इधन वन विभाग और सरकारी तंत्र एक दूसरी योजना पर कार्य कर रहे थे। 25 मार्च की सुबह अरण्यपाल गढ़वाल का चण्डीप्रसाद भट्ट को संदेश मिला कि वे 26 मार्च को 4 बजे उनसे बातचीत के लिए गोपेश्वर में मिलना चाहते हैं। भट्ट जी ने उस दिन जोशीमठ में सम्पर्क किया तो पता चला कि वन विभाग के कारिंदे, ठेकेदार एवं मजदूर जोशीमठ में ही हैं आगे नहीं बढ़े। वहां गोविंदसिंह रावत विभाग तथा मजदूरों की गतिविधि पर नजर रखे हुए हैं। अतः चण्डीप्रसाद भट्ट ने बातचीत की सहमति दे दी। वन विभाग और सरकारी तंत्र की योजना के तहत उसी दिन अर्थात 26 मार्च को घाटी के पुरुषों को अपनी भूमि का मुआवजा लेने के लिए चमोली बुला दिया गया। अरण्यपाल गढ़वाल, अन्य जनपदीय अधिकारियों के साथ दशोली ग्राम स्वराज्य मण्डल, गोपेश्वर में पहुँचे। इधर उन्होंने चण्डीप्रसाद भट्ट को बातचीत में उलझा कर रखा और उधर रेणी में 26 मार्च 1974 को जो घटा वो चिपको के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय है।

युवा व बेहद कर्मठ पत्रकार संजय चौहान चिपको आन्दोलन की 44वीं बर्षगाँठ पर लिखते हैं कि रैणी के हर भरे जंगल के लगभग २५०० पेड़ो को हर हाल में काटना चाहती थी। जिसके लिए साइमन गुड्स कंपनी को इसका ठेका दे दिया गया था। १८ मार्च १९७४ को साइमन कम्पनी के ठेकेदार से लेकर मजदुर अपने खाने पीने का बंदोबस्त कर जोशीमठ पहुँच गए थे। २४ मार्च को जिला प्रसाशन द्वारा बड़ी चालकी से एक रणनीति बनाई गई जिसके तहत मेरे सबसे बड़े योद्धा चंडी प्रसाद भट्ट और अन्य को जोशीमठ-मलारी सडक में कटी भूमि के मुवाअजे दिलाने के लिए बातचीत हेतु गोपेश्वर बुलाया गया। जिसमे यह तय हुआ की सभी लोगो के १४ साल से अटके भूमि मुवाअजे को २६ मार्च के दिन चमोली तहसील में दिया जायेगा। वहीँ प्रशासन नें दूसरी और मेरे सबसे बड़े सारथी गोविन्द सिंह रावत को जोशीमठ में ही उलझाए रखा ताकि कोई भी रैणी न जा पाये। २५ मार्च को सभी मजदूरो को रैणी जाने का परमिट दे दिया गया।

२६ मार्च १९७४ को रैणी और उसके आस पास के सभी पुरुष भूमि का मुवाअजा लेने के लिए चमोली आ गए और गांव में केवल महिलायें और बच्चे, बूढ़े मौजूद थे। अपने अनुकूल समय को देखकर साइमन कम्पनी के मजदूर और ठेकेदार ने रैणी के जंगल में धावा बोल दिया। और जब गांव की महिलाओं ने मजदूरों को बड़ी बड़ी आरियाँ और कुल्हाड़ी सहित हथियारों को अपने जंगल की और जाते देखा तो उनका खून खौल उठा वो सब समझ गए की इसमें जरुर कोई बड़ी साजिश की बू आ रही है। उन्होंने सोचा की जब तक पुरुष आते हैं तब तक तो सारा जंगल नेस्तानाबुत हो चूका होगा। ऐसे में मेरे रैणी गांव की महिला मंगल दल की अध्यक्षा गौरा देवी ने वीरता और साहस का परिचय देते हुये गांव की सभी महिलाओं को एकत्रित किया और दारांती के साथ जंगल की और निकल पड़े। सारी महिलायें पेड़ो को बचाने के लिए ठेकदारों और मजदूरों से भिड गई। उन्होंने किसी भी पेड़ को न काटने की चेतावनी दी। काफी देर तक महिलायें संघर्ष करती रही। इस दौरान ठेकेदार नें महिलाओं को डराया धमकाया। पर महिलाओं ने हार नहीं मानी। उन्होंने कहा ये जंगल हमारा मायका है, हम इसको कटने नहीं देंगे। चाहे इसके लिए हमें अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े। महिलाओं की बात का उन पर कोई असर नहीं हुआ। जिसके बाद सभी महिलायें पेड़ो पर अंग्वाल मारकर चिपक गई। और कहने लगी की इन पेड़ो को काटने से पहले हमें काटना पड़ेगा। काफी देर तक महिलाओं और ठेकेदार मजदूरो के बीच संघर्ष चलता रहा। आखिरकार महिलाओं की प्रतिबद्दता और तीखे विरोध को देखते हुये ठेकदार और मजदूरो को बेरंग लौटना पड़ा। और इस तरह से महिलाओं ने अपने जंगल को काटने से बचा लिया।“

 

सच तो यह है कि यह इनसाइड स्टोरी उन साक्ष्यों व प्रमाणों की तरफ इशारा करते हैं कि जो लोग प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से ही सही इस आन्दोलन के हिस्सेदार थे वह इस बात को नकारते हैं कि “चिपको आन्दोलन” केदारघाटी से शुरू हुआ। उनका कहना है इस आन्दोलन को नीतिघाटी के रैणी गाँव से “चिपको” नाम मिला। हो सकता है केदार घाटी में इसका श्रीगणेश वनों को बचाने के लिए अंग्वाळ से शुरू हुआ हो।

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