आछरियों (वन देवियों) के देश में – ‘खैट पर्वत यात्रा’- 03।
* वो देख्खो! वो देख्खो! बाघ्घ! बाघ्घ! बाघ!-
(अरुण कुकसाल/यात्रावृत्त )
…. रात के 8 बजने वाले हैं, और हम पूरी तरह आश्वस्त नहीं है कि क्या हम सही दिशा में चल रहे हैं? सड़क के दोनों ओर माईल स्टोन/बोर्ड भी कहीं नहीं नजर आ रहा है। मैं साथियों के मनोबल को बड़ाने चलती गाडी में अचानक आई गम्भीर चुपचापी की तोडते हुए कहता हूं-
‘मित्रों, यकीन मानिए कि, हम रहस्यमयी खैट पर्वत की तलहटी पर चल रहे हैं। रात हो गई है और निर्जन जंगल है, इसलिए, सचेत रहो, सभी। ये वहीं डांडा है जहां पर आंछरियों ने सुर्दशन युवा जीतू बगड्वाल और सूरज कौंळ का अपहरण किया था। चलो, मैं तुम्हें जीतू बगड्वाल की आंछरियों द्वारा अपहरण करने की कथा वाला लोकगीत सुनाता हूं। सूरज कौंळ वाला कल खैट पर्वत की चढ़ाई चढ़ते हुए सुनाऊंगा।’
‘यार, भाई सहाब, डराओ मत, रुद्रनाथ यात्रा में भी ऐसे ही घने जंगल में रात के वक्त पैदल चलते हुए मुझको और सीताराम को आंछरियों और जंगली जानवरों के किस्से सुना-सुना कर आपने बहुत डराया था।’ भूपेन्द्र में साथ अपने विगत यात्रा के अनुभव बता रहा है।
‘वो गहरी रात का वक्त था, और इस समय अभी रात शुरू हुई है? उस समय हम पैदल चल रहे थे, इस समय बंद गाड़ी में हैं, फिर यात्रा में जिससे डर लगे उसका जिक्र खूब करना चाहिए, इससे डर में सहजता आ जाती है।’ मैंने कहा है।
‘आंछरियों के लिए बंद और खुली गाडी से क्या फर्क पड़ता है। फिर उस आदमी ने कहा था कि चलती गाडी में गाना-वाना मत गाना।’ सीताराम ने भूपेन्द्र की बात को सहमति दी है।
‘लेकिन, आप यात्रा में किसी भी जगह से तभी भावनात्मक और रोचक रूप में जुड़ सकते हैं जबकि, आपको उसके भूगोल, इतिहास और सांस्कृतिक परिवेश की प्रर्याप्त जानकारी हो। इसलिए, वो किस्सा बताइये, भाईसहाब, पर धीरे-धीरे।‘ विजय ने मेरा पक्ष लेते हुए अपनी बात कही है।
सब साथियों के एक लम्बे मौन के बाद, मैं किस्सा बताना शुरू कर देता हूं- ‘जीतू बगड्वाल (9वीं शताब्दी) एक सुदर्शन युवा था। एक बार, अपनी मां के मना करने के बाद भी धान की रोपाई में बहिन की मदद करने के बहाने उसकी ससुराल जाने को जाता है। बहिन की ससुराल में उसकी प्रेमिका भी रहती थी। अपनी प्रेमिका से मिलने की खुशी में वह मनमोहक मुरली बजाते हुए इसी निर्जन जंगल से मदमस्त जा रहा था, तो खैट की आंछरियों ने उसे घेर लिया। जीतू ने आंछरियों को धरम बहिन कह कर उनसे अपने प्राणों को बचाने की कोशिश की। लेकिन, आंछरियों ने नहीं माना, तब आखिर में जीतू ने उन्हें यह आश्वासन दिया कि वह आने वाले 6 गते, बैशाख को ‘मालू के सेरा’ में वह वापस आयेगा। और, उसी दिन वह सदा के लिए उनके हवाले हो जायेगा। और, जीतू बगड्वाल ने आंछरियों (वन देवी) से किया वायदा निभाया भी। इस लोकगाथा को गढ़वाल में गांव-गांव जागरी इस जागर (देवगीत) को गाते हैं-
और, मैं गाने लगता हूं, पर धीरे-धीरे-
‘बिजी गैन बीजी खैट की आंछरी,
नौ बैणी आंछरी बोदी क्या चड़ो वासळो?
चला वै चड़ा हरी ल्योळा।
कु होळू चुचौं स्यो धावड़या मुरल्या,
यनी तैकी मुरळी अफू कनो होळो?….
वीं का बोल्यान नौ बैणी आछरी,
पौंछी गैन जीतू का पास
जीतू की आख्यों मा जनो ऐना चमलाणी,
छमछम घूंघर बज्या, छणमण चूड्यों छमणाट…
नौ बैणी आंछरी तब मारदिन आंग्वाळ
चळ हम दगड़े, वखी ळगौळा रांसों
तब बोद जीतू तुम होळी मेरी धरम की बैण।
तब जीतू ऊं देऊ देन्द धरम
आज मैं जाण देवा बैणी बैदोण।
छै गते असाड़ तुम मलारी सेरा आन….
तिन नी माणे मेरा जीतू माता की अड़ैती,
बावरो नी होन्दू जीतू त नी होन्दू विणास….
मलारी का सेरा आज भी तेरा ढोळ बाजदा,
औंदा हर साल रोपणी का दिन जीतू
तेरी याद मा ओजी गीत लगोंदा।
गाडी व्याप्त सन्नाटे को तोड़कर मैं फुसफुसाहट से कहता हूं-‘अगर आप लोग चाहें तो मैं उक्त जागर का हिन्दी अनुवाद आपको सुनाऊं।’
‘सुनाओ!’ राकेश और भूपेन्द्र एक साथ कहते हैं।
‘मैं आप लोगों की इस समय की मनोदशा को समझ रहा हूं। इसलिए धीरे से ही कहूंगा।’
मैं, इस जागर का हिन्दी अनुवाद गढ़वाली लोकगीतों को कम समझने वाले अपने इन गढ़वालियों को सुनाता हूं-
‘खैट की आंछरियां (वन देवी) जाग उठी, नौ बहिनें आंछरियां कहती हैं कि ये कौन चिड़ा बोळ रहा है, चळो, उस चिड़ा को हर लायें, वह मुरली बजाने वाला कौन है, इतनी सुरीली आवाज उसकी मुरली की है तो वह तो और भी सुन्दर होगा।…… नौ बहिने आछरी जीतू के पास पहुंच गई, जीतू की आंखों में जैसे आइना चमका होगा, छमछम घूंघर बजे, और चूडिंयों की छमणाट हुई,……. तब नौ बैणी आंछरियों ने जीतू को घेर लिया, और कहा कि चलो हमारे साथ, वहीं जाकर प्रेमनृत्य लगायेगें, तब जीतू ने कहा तुम तो मेरी धरम की बहिनें हो, आज मुझे जाने दो मैं 6 गते अषाड़ को मलारी सेरा में आऊंगा…….जीतू तूने अपनी मां का कहना नहीं माना, तू प्रेम दीवाना नहीं होता तो क्यों तेरा विनाश होता…… आज भी हर साल धान की रोपाई के दिन मलारी सेरा में ढोल बजते हैं और बाजगी जीतू के गीत लगाते हैं।’
लोकगीत सुनाने-सुनने की इस चलती-फिरती महफिल में अच्छा-खासा बाजार वाला रजाखेत कब निकल गया पता ही नहीं चला है। जंगल की निर्जनता अब और घनी होती जा रही है। और, मित्रों ने अब, मेरे लिए किस्सा तो छोड़ो बात करने की भी मनाही कर दी है।
‘पीपलडाली से कोल गांव बिल्कुल सामने दिख रहा था। और, इस समय हमारे दांये ओर के पहाड पर इस जगह की ही हाईट के बराबर पीपलडाली साफ दिख रहा है। अब, रास्ता चढ़ाई का भी नहीं लग रहा है। यकीन मानो, कोल गांव अब आने वाला ही है।’ राकेश ने जैसे गहन शोध के बाद यह बात बताई है।
‘वो देख्खो! वो देख्खो! बाघ्घ! बाघ्घ! बाघ’ भूपेन्द्र भले ही चिल्लाया पर बाघ को देखा सभी ने। मैंने, सीताराम और भूपेन्द्र ने पूरा, विजय ने उसे मुड़ते हुए तो राकेश के हिस्से बाघ की पूंछ देखना ही आ सका।
सड़क के दांयी ओर के मुंडेर पर घात लगाने की मुद्रा में वह बैठा था। हमारी गाडी की लाईट से वह थोड़ा गुर्राया जरूर पर तुरंत पीछे मुडा और एक लम्बी छलांग नीचे की ओर लगाई, जिसके छपाक की आवाज ही हम सुन सके हैं। गाडी कैसे रुक गई ये सीताराम को भी नहीं पता।
मैं और विजय गाडी से बाहर निकलकर देखना चाहते हैं कि वो बाघ किधर गया होगा? पर मित्रों ने इस तरह हड़काया कि, हमें अपनी बहादुरी को अपने शरीर के अंदर वापस भेजने के अलावा और कोई चारा नहीं है।
‘चलो, यात्रा की शुरुआत में ही बाघ दिख जाय तो वो यात्रा के लिए शुभ होता है।’ राकेश का यह वक्तव्य इस वक़्त आया है।
‘आपकी तो आवाज भी नहीं आ रही थी अब कह रहे हैं कि बाघ देखना शुभ होता है। एक छलांग हमारी ओर वह लगाता तो उसके सबसे नजदीक आप ही तो थे।’ सीताराम ने यह बोल कर गाडी की स्पीड बडा दी है, कि कहीं बाघ वापस हमारे पीछे न आ जाय।
एक मोड़ के बाद की आगे की दोनों पहाड़ी धारों में बिजली की रोशनी ने इंगित कर दिया कि वो भटवाडा और उसके बाद कोल गांव है।
कोल गांव में सड़क के ऊपरी ओर थोड़ा चल कर विद्यादत्त पेटवाल जी का होमस्टे है। देर रात पहुंचने पर उनसे क्षमा मांगते हुए यह बताया कि रास्ते में भटकने और बाघ से मुलाकात के कारण देर पर देर हो गयी।
‘वो बाघ तो वहीं पर घात लगाये बैठा रहता है। असल में आजकल कई रातों से उस बाघ और जंगली सुअरों की टोली में भिडंत हो रही है। एक सुअर वो मार भी चुका है। अब वह अन्य को मारने की फिराक में है। आने जाने-वालों लोगों पर भी वह लपकता है। शुक्र है, आप लोग सुरक्षित हैं। वैसे हमारे लिए यह सामान्य बात है। इस इलाके में बाघ और भालुओं की भरमार है। चलिए, आप लोग चाय पीजिए, मैंने दूर से ही आपकी गाड़ी की लाईट देख ली थी। इसीलिए, चाय बना कर रखी है। कल आपको सुबह 5 बजे यहां से खैट पर्वत की ओर जाना होगा, तभी आप कल ही वापस श्रीनगर पहुंच सकते हैं।’ पेटवाल जी यह कहकर खाने का इंतजाम करने चलने लगे हैं।
राकेश जुगराण, श्रीनगर (गढ़वाल) में रेस्टोरेंट मालिक हैं और खाना बनाने में उनको महारथ हासिल है। इसलिए, वो भी पेटवाल जी की मदद के लिए उनके साथ किचन की ओर चल दिए हैं।
बाकी, बचे हम चार, चारों खाने चित्त होकर जिसको जहां जगह मिली वहीं लमलेट हो गए हैं। मन ऐसा कि कोई खाने को भी न पूछे, बस फसोरकर सोने दे।…..
यात्रा जारी है….
अरुण कुकसाल
फोटो- विजय पाण्डे
यात्रा के साथी-
विजय पाण्डे, भूपेन्द्र नेगी, सीताराम बहुगुणा, राकेश जुगराण