(मनोज इष्टवाल)
बचपन से ही एक उत्सुकता रही है! जब भी धार्मिक अनुष्ठान या कर्मकाण्ड देखे व उनमें शक्ति पूजा के समय बकरे व मेंढे की बलि देखी तो आज तक इसके दो कारणों को जानने के लिए विचलित रहता था कि आखिर इनकी बलि के बाद इनकी एक टांग काटकर इनके धड से अलग हुए सिर के मुंह में क्यों घुसा दिया जाता है? फिर इनके सिर में एक बाती जलाई जाती है व तुरंत बुझा भी दी जाती है….! आखिर क्या और क्यों होता है यह सब?
अब जब कौतूहलता व उत्सुकता के साथ एक निरीह की बलि का मामला सामने आये तो हृदय व्यग्र तो रहता ही है! कई सालों पूर्व जब जानकारी मिली तो सोचा आप सब से इसे साझा करूँ लेकिन फिर सोचा समाज में कई तरह के लोगों के उलटे सीधे प्रश्नों का सवाल जबाब सुनना पड़ेगा! लेकिन आज दिल मजबूत कर ही दिया ताकि मुझ जैसे ही कई अन्य मानस इस तरह की परम्पराओं की जानकारी ले सकें!
यों तो उत्तराखंड में बलियाँ कुलदेवता से लेकर नागर्जा, भैरों, नर्सिंग, सहित अन्य कई देवी देवताओं को चढ़ाई जाती हैं लेकिन सबसे बड़ी बलि काली माँ को चढ़ाए जाने की परम्परा है जिसे हमारे समाज में अष्टबली कहा जाता है! इस बलि में सिर्फ मेंढे या बकरे की बलि ही शामिल नहीं होती बल्कि इसमें महिष के रूप में भैंसे, अज के रूप में बकरे, खाडू (मेंढे), केकड़ा, मछली, गडियाल, भुजेला एवं नींबू परिगणित किये जाते हैं! अष्टबलि इन आठ की ही नहीं होती बल्कि इसमें सतनजा सहित कुल 64 प्रकार की वस्तुवें शामिल की जाती हैं जिन्हें चौसठ योगिनियों का चढ़ावा कहा जाता है! और सात्विक बलि के रूप में नारियल की बलि चढाई जाती है वह ज्यादा संतोष जनक है! नेपाल में तो बलि के नाम पर हर साल हजारों रांगा(भैंसे) काटे जाते हैं लेकिन यह शुकून देने वाला है कि उत्तराखंड में हिन्दू सनातन धर्म में तेजी से बलि देने की प्रथाएं कम होती जा रही हैं!
आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि बकरे की बलि के लिए जब उसके ऊपर ज्युंदाल डाले जाते हैं तब ब्राह्मण जो मन्त्र पढता है वह बड़ा अजग गजब का है! मन्त्र के बोल हैं:-
अश्वं नैव गजं नैव,सिंह नैव च नैव च!
अजा पुत्रं बलिम दद्यात देवो दुर्लभ घातक:!!
(भारत:- देवता को घोड़े की नहीं, हाथी की नहीं, और ब्याघ्र की भी बलिनहीं दी जाती है! केवल बकरे की बलि दी जाती है! देवता इसकी दुर्बल की बलि से प्रसन्न हैं! अर्थात देवता भी दुर्बल प्राणी के लिए घातक है!)
शक्ति पूजा में बलि के बाद बकरे का सिर जब धड से अलग होता है तब कहीं उसके मुंह में जल्दी से उसी की टांग काटकर डाली जाती है तो कहीं पूँछ काटकर! इस पर तर्क दिया जाता है कि बकरे को मारने से पहले जिस तरह सब मनाते हैं और वह इस बात से बेखबर रहता है कि उसकी बलि चढने वाली है तब गर्दन कट जाने के बाद भी उसके प्राण तुरंत नहीं जाते इसलिए कहीं बकरा इस अन्याय की शिकायत भगवान से न करे इसलिए तुरंत उसके मुंह में उसकी टांग या पूँछ रख दी जाती है ताकि वह यह सोचने के लायक न रहे कि यह कैसे हो गया! और अगर वह सोच भी लेता है व उसके प्राणों के साथ उसकी प्रार्थना ईश्वर दरवार के लिए चल देती है तो उसे रोकने के लिए उसकी दोनों सीगों के बीच अग्नि प्रज्वलित की जाती है ताकि प्राण भी अग्नि के भी से यह सोचना छोड़ दें कि उसके साथ क्या अन्याय हुआ है!
सचमुच हम मनुष्य कितने स्वार्थी व निर्दयी हैं! अपने खाने के लिए किस तरह के तोड़ ढूंढ-ढूंढकर लाते हैं! क्या सचमुच कोई देवता यह चाहता होगा कि किसी और की बलि देकर वह खुश हो! मुझे लगता है यह बलि माँ काली के रूपों व 64 योगिनियों जिनमें नरपिचासिनियाँ भी शामिल हैं उन्हें दिए जाने की तब परम्परा थी जब उत्तराखंड में राक्षसों को मारने के लिए एड़ी आंछरियों को पैदा किया गया था! यह शुभ लक्षण हैं कि अब उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में बलि प्रथा बंद कर दी गयी है क्योंकि किसी निरीह की बलि चढ़ाकर अपना हित साधना शायद सबसे बड़ा गुनाह है! क्योंकि हिन्दू धर्म मान्यताओं में कहीं बलि का जिक्र नहीं है फिर भी हमने अपने हिसाब से कुछ श्लोको की रचना शक्ति उपासना के रूप में कर बलि को बलिदान से जोड़ दिया है! हिंदु धर्म के अंदर कुछ देवता ऐसे हैं। जिनको बलि चढ़ाई जाती है। वैसे यदि हम हिंदु धर्म के सबसे पौराणिक ग्रंथ वेद, उपनिषद और गीता की बात करें तो बलि देना पाप है।और इस संबंध मे “मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।”– ऋग्वेद 1/114/8 का मंत्र आप देख सकते हैं। दोस्तों वेदों के अंदर या हिंदु धर्म के अंदर बलि को निषेध किया गया है।