जाति की जड़ता जाये तो उसके जाने का जश्न मनायें।
(डाॅ. अरुण कुकसाल)
उत्तराखंड के शिल्पकार वर्ग में सामाजिक-शैक्षिक चेतना के अग्रदूत बलदेव सिंह आर्य (12 मई, 1912 से 22 दिसम्बर, 1992) का आज जन्मदिन है। सन् 1930 में 18 वर्ष की किशोरावस्था में निरंकुश बिट्रिश सत्ता का सार्वजनिक विरोध करके 18 महीने की जेल को सर्हष स्वीकार करना उनके अदम्य साहस और दीर्घगामी सोच का ही परिणाम था। उन्होने ‘डोला पालकी आन्दोलन’ में भाग लेकर भेदभावपूर्ण तत्कालीन सामाजिक परम्परा को खुली चुनौती दी थी। सन् 1942 में उनके संपादन में तैयार ‘सवाल डोला पालकी’ रिपोर्ट देश भर में चर्चित हुई थी। इस रिर्पोट से प्रेरणा लेकर उस दौर में देश के अन्य क्षेत्रों और समुदायों के आम लोगों ने सामाजिक पक्षपात के विरुद्ध आवाज उठाई थी।
देश के स्वाधीन होने के बाद एक कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी ख्याति रही है। उत्तराखण्ड में वन और वनवासियों की स्थिति तथा सुधार के दृष्टिगत बलदेव सिंह आर्य की अध्यक्षता में ‘कुमाऊं जंगलात जांच समिति-1959 (कुजजास)’ का गठन किया गया था। समिति ने जंगलों पर स्थानीय निवासियों के परम्परागत हक-हकूकों को स्वीकारते हुए महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे। यह गौरतलब है कि यदि ‘कुमांऊ जंगलात जांच समिति-1959’ के सुझावों को तत्कालीन सरकार गम्भीरता से लागू कर देती तो संभव था कि हम ‘वन संरक्षण अधिनियम -1980’ के दुष्परिणामों की जकड़ में नहीं जकड़े होते। और, आज उत्तराखंड की वन्यता की बेहतर स्थिति और देखभाल होती।
सन् 1942 में ‘सवाल डोला पालकी’ रिर्पोट के अन्तिम पैरा में बलदेव सिंह आर्यजी ने लिखा कि ‘डोला-पालकी समस्या को सुलझाने में हमें देश के बडे़-बड़े नेताओं का नैतिक और क्रियात्मक सहयोग बराबर मिल रहा है और उस समय तक मिलता रहेगा जब तक शिल्पकारों के इस नागरिक अधिकार को समस्त बिठ (सर्वण) जनता स्वेच्छा से स्वीकार न कर लें। वे जब तक इस बात को अनुभव न कर लें कि शिल्पकार भी अपने ही भाई हैं और उनकी उन्नति करना भी हमारा फर्ज है।… बिठ जनता को तो यह स्वयं अनुभव कर लेना चाहिए कि यदि हमारा एक अंग अधिकार से वंचित रहता है तो यह हमारी राष्ट्रीय अयोग्यता है और जब तक यह दूर न होगी तब तक हमारा कल्याण नहीं हो सकता है।’ (उत्तराखंड में दलित चेतना, पृष्ठ-14, उमेश डोभाल स्मृति ट्रस्ट, वर्ष-2006)
उक्त वक्तव्य यह स्पष्ट करता है कि देश के स्वाधीनता आन्दोलन में जहां सवर्ण राजनैतिक आजादी के सवाल पर मुखर था, वहीं उस समय का दलित वर्ग आजादी के साथ उन पर हो रहे परम्परागत सामाजिक उत्पीड़न और नागरिक अधिकारों को हासिल करने के लिए भी संघर्षरत था। अतः उसका संघर्ष ज्यादा विकट और दोहरा था। डाॅ. अम्बेडकर के संपूर्ण जीवनीय संघर्ष को देश में शिल्पकारों के इस दोहरे संघर्ष के प्रतिनिधि विचार के रूप में बेहतर और आसानी से समझा जा सकता है।
बात तब के उत्तराखंड पर केन्द्रित करते हैं। समाज-सुधारक हरिप्रसाद टम्टा ने लिखा कि ‘सन् 1911 में जार्ज पंचम के अल्मोड़ा आगमन पर आयोजित समारोह में उन्हें और उनके साथ अन्य शिल्पकारों को शामिल नहीं होने दिया गया था। लोगों ने यहां तक कह दिया था कि अगर मुझ जैसे दरबार में शामिल होंगे तो बलवा हो जायेगा।…..इन्हीं बातों के बदौलत मेरे दिल में इस बात की लौ लगी थी कि मैं अपने भाईयों को दुनिया की नजरों में इतना ऊंचा उठा दूंगा कि लोग उन्हें हिकारत की निगाहों से नहीं बल्कि मुहब्बत और बराबरी की नजरों से देखेंगे…’ (डाॅ. मुहम्मद अनवर अन्सारी, पहाड़-4, सन् 1989)
उत्तराखंड में हरिप्रसाद टम्टा, खुशीराम आर्य, लक्ष्मी देवी टम्टा, जयानंद भारती से लेकर बलदेव सिंह आर्य और कई अन्य व्यक्तित्वों ने शिल्पकार वर्ग में सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, शैक्षिक और आर्थिक चेतना को उभारा। परन्तु, शिल्पकारों के प्रति सामुदायिक भेदभाव का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहा है।
अपनी आत्मकथा में साहित्यकार चमनलाल प्रद्योत लिखते हैं कि ‘मेरा मन करता कि मैं भी स्कूल में होता तो कितना अच्छा होता। मैं ललचाता। …मैं दिवास्वप्न देखता और अपने को स्कूल में बच्चों के बीच पाता। …तभी जानवरों का ख्याल आता और हड़बड़ाहट में मेरी तंद्रा टूट जाती और मैं फिर चरवाहा बन जाता। मेरी स्कूल जाने की तीव्र इच्छा, वर्षों इसी तरह ललकती रही, परन्तु सामाजिक भेदभाव और परिवार के आर्थिक अभावों के रहते हुए उसे आकाश से तारे तोड़ने के समान समझता रहा।’(चमन लाल प्रद्योत, ‘मेरा जीवन प्रवाह‘ आत्मकथा, पृष्ठ-35)
देश के स्वाधीनता के बाद भी यह बात दीगर है कि उत्तराखंड में हुए आन्दोलनों यथा- सर्वोदय, वन (चिपको), नशा नहीं रोजगार दो, बांध विरोधी और राज्य निर्माण आन्दोलनों में शिल्पकार वर्ग की भागेदारी और योगदान को समय के अंतराल ने नेपथ्य डाल दिया है। इन आन्दोलनों की पड़ताल पर लिखे गए अथाह लेखों और शोध-पत्रों में दलित योगदान का जिक्र चलते-चलते ही हुआ है। आन्दोलनों में महत्वपूर्ण भूमिकायें निभाने वाले कई अनाम नायक हैं, जिन्हें भुला गया। और, यही इन आन्दोलनों की असफलता और अधूरेपन का प्रतीक और प्रमाण भी है।
साहित्यकार बचन सिंह नेगी की ‘डूबता शहर’ किताब में शिल्पकार वर्ग की यह व्यथा जबरदस्त रूप में जगजाहिर हुई है। ‘…वह मन की टीस को दबाये चैतू को समझाता है-चैतू बांध विरोधी और सर्मथक नेताओं की बात पर यकीन मत कर। ये लोग अपनी नेतागिरी चमकाने की बात करते हैं। तुम्हें बहका रहे हैं कि ‘कोई नहीं हटेगा, कोई नहीं उठेगा।’ और अपना परिवार उन्होने दो साल पहिले ही देहरादून में जमा लिया है। कोठी बना ली है।… और उसके जाति-बिरादरों के पास न जमीन है न मकान। शिल्पकारी का पैतृक हुनर विरासत में जो मिला था, वो भी बांध की बलि चढ़ गया। शिल्पकार से मजदूर बने, वो भी विस्थापित। उनका जीवनीय दर्द उनके पास ही छटपटाता है। वे बांध सर्मथक और बांध विरोधी आन्दोलनों के चिन्तन और चिन्ता का कभी हिस्सा नहीं बन पाये। बनते कैसे? वे जिस सामाजिक पृष्ठभूमि से हैं उनके हितों की रक्षा करने की विकास अथवा विनाश का शोर मचाने वालों के लिए कोई अहमियत नहीं है।’’(बचन सिंह नेगी, डूबता शहर, पृष्ठ-85)
इंजीनियर और साहित्यकार बिहारी लाल दनोसी की जीवनीय सफलता के पीछे का यह दर्द वो ही समझ सकते हैं, जो इससे गुजरे हैं। ‘आज विश्वास नहीं होता कि उन विकट सामाजिक प्रताड़नाओं को सहकर मैंने कैसे उनसे पार पाया होगा? परन्तु उस काल में मेरे भोगे गये कटु सामाजिक यथार्थ और उस पर हिम्मत एवं संयम से पायी गयी विजय दोनों ही सच है।’ (युगवाणी-जून, 2019, पृष्ठ-36)
शिक्षक और साहित्यकार मित्र महेशानन्द ने हाल ही में अपने बचपन को याद करते हुए बताया कि ‘गांव में डड्वार मांगने गई मेरी मां जब घर वापस आई तो उसकी आखें आसूओं से ड़बडबाई हुई और हाथ खाली थे। मैं समझ गया कि आज भी निपट ‘मरसा का झोल’ ही सपोड़ना पड़ेगा।…गांव में शिल्पकार-सर्वण सभी गरीब थे, इसलिए गरीबी नहीं सामाजिक भेदभाव मेरे मन-मस्तिष्क को परेशान करते थे।….मैं समझ चुका था कि अच्छी पढ़ाई हासिल करके ही इस सामाजिक अपमान को सम्मान में बदला जा सकता है। पर उस काल में भरपेट भोजन नसीब नहीं था तब अच्छी पढ़ाई की मैं कल्पना ही कर सकता था। पर मैंने अपना मन दृड किया और संकल्प लिया कि नियमित पढ़ाई न सही टुकड़े-टुकड़े में उच्च शिक्षा हासिल करूंगा। मुझे खुशी है कि यह मैं कर पाया। आज मैं शिक्षक के रूप में समाज के सबसे सम्मानित पेशे में हूं।…..पर जीवन में भोगा गया सच कहां पीछा छोड़ता है। अतीत में मिली सामाजिक ठ्साक वर्तमान में भी उतनी ही चुभती है। तब मेरा लेखन उसमें मरहम लगाता है। पाठक के लिए वे कहानियां हैं परन्तु मेरे लिए अतीत के छाया चित्र हैं।’ सामाजिक विभेद पर हुई इस लम्बी बातचीत में महेश और मैं अंदर से असहज होते हुए भी चेहरों पर मुस्कराहट बनाये हुए थे।
यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि जातीय सद्भाव के लिए हमारे समाज में समय-समय पर बहुत से सार्थक और निरंतर प्रयास हुए हैं। इस संदर्भ में मैं बात कर रहा हूं, बूढ़ाकेदार क्षेत्र के थाती और रक्षिया गांव के उन तीन युवाओं की जिन्होने 12 वर्ष तक संयुक्त परिवार में रहकर सामाजिक समरसता का अद्भुत उदाहरण पेश किया था। समाज में जातीय भेदभाव को मिटाने का ऐसा प्रयास देश-दुनिया में शायद ही कहीं हुआ हो। 26 जनवरी, 1950 को आजाद भारत का संविधान लागू होने के दिन देष के सबसे पिछड़े इलाकों में शामिल उत्तराखंड की भिलंगना घाटी के बूढाकेदार में एक अप्रत्याशित और क्रांत्रिकारी बात हुई थी। हुआ यह कि इस दिन जातीय बंधनों को तिलांजलि देते हुए एक पंडित, एक क्षत्रिय और एक शिल्पकार परिवार ने एक साथ रहने का फैसला लिया था। धर्मानंद नौटियाल (सरौला ब्राह्मण, थाती गांव), बहादुर सिंह राणा (थोकदार क्षत्रिय, थाती गांव) और भरपुरू नगवान (शिल्पकार, रक्षिया गांव) ने मय बाल-बच्चों सहित एक साझे घर में नई तरह से जीवन-निर्वाह की शुरूवात की थी।
अलग-अलग जाति के मित्रवत भाईयों के इस संयुक्त परिवार में अब बिना भेदभाव के एक साझे चूल्हे में मिल-जुल कर भोजन बनाना, खाना-पीना, खेती-बाड़ी और अन्य सभी कार्यों को आपसी सहभागिता से निभाया जाने लगा। यह देखकर स्थानीय समाज अचंभित था। इनके लिए सर्वत्र सामाजिक ताने, उलाहना, कहकहे और विरोध होना स्वाभाविक ही था। स्थानीय लोगों में कहीं-कहीं दबी जुबान से इनके साहस और समर्पण की प्रशंसा भी हो रही थी। परन्तु प्रत्यक्ष तौर से इनका साथ देने का साहस किसी के पास नहीं था।
उक्त तीन मित्रों का उक्त सहजीवन लगभग 12 साल तक बिना किसी कटुता के निर्बाध रूप में चला। जैसे भाई-भाई आपस में एक समय के बाद एक दूसरे से अलग परिवार बना लेते हैं, उसी प्रेमपूर्वक तरीके से यह संयुक्त परिवार भी 12 साल बाद जुदा हुआ था। परन्तु उनकी अन्य सभी सामाजिक कार्यां में पारिवारिक साझेदारी आगे भी चलती रही। इन अर्थों में यह अभिनव प्रयास किसी भी दृष्टि से असफल नहीं था। परन्तु, यह अभिनव पहल आगे सामाजिक परम्परा नहीं बन सकी। जातीय जड़ता ने उसे आगे की ओर गतिमान होने से रोक जो दिया था। जबकि, ऐसे प्रयास आगे भी होने चाहिए थे।
इस सबंध में लेखक मित्र जबर सिंह वर्मा के विचार महत्वपूर्ण हैं कि ‘आखिर पढ़े-लिखे होने के बावजूद भी हम सच को स्वीकार करने और उसका सामना करने को तैयार क्यों नहीं हो पा रहे हैं? यह मनुवादी जाति व्यवस्था न तो आज के किसी सवर्ण ने बनाई, न ही आज के किसी दलित ने अपने सिर पर रखकर उसे स्वीकारी है। जब हम इस व्यवस्था को पैदा करने के लिए ही जिम्मेदार नहीं हैं तो इसे बनाए रखने को क्यों जिम्मेदार बने? वो भी तब, जबकि इससे देश और समाज का बुरा हो रहा है। इसलिए इसे पुरखों से विरासत में मिली बुरी परंपरा के तौर पर स्वीकार कर इसके खात्मे के लिए आज के पढ़े-लिखे समाज को आगे आना चाहिए। ठीक उसी तरह जैसे सती प्रथा, विधवा विवाह, बलि प्रथा, पर्दा प्रथा जैसी पुरानी बहुत सी परंपराएं थी। समय के साथ उनके दुश्परिणामों को आमजन ने स्वीकारते हुए उन्हें खत्म कर दिया था।’ (जबर सिंह वर्मा, फेसबुक पोस्ट, 8 मई, 2019)
वास्तविकता यह है कि आज भी सवर्ण और शिल्पकार ऊपरी सतह में एक दिखने के बावजूद भी भीतरी तौर पर परत दर परत अलग – अलग घटकों में बंटे हुए हैं। विशेषकर, उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में सवर्ण अपने जातीय अहंकार से अभी भी लबालब हैं। आज के दौर में सवर्णों में घटते रोजगार का कारण वे सीधे तौर पर शिल्पकार वर्ग को दिए जाने वाले आरक्षण को मान रहे हैं। कुटिल राजनैतिक व्यवस्था उनके इस भ्रम को बनाये और जागृत रखना चाहती है। ताकि, उसकी नालायकी ढ़की रहे।
निःसंदेह, शिल्पकार वर्ग की ग्रामीण युवा पीढ़ी सवर्णों के बच्चों की तुलना में शिक्षा प्राप्त करने में पठन-पाठन में अच्छा प्रर्दशन कर रही है। नतीजन, रोजगार प्राप्त करने में भी वे आगे ही हैं। परन्तु समाज में उनके प्रति जातीय मानसिकता के चलते वे चाह कर भी वापस गांवों में नहीं जाना और बसना चाहते हैं। सवर्णों के मुकाबले शिल्पकारों के गांवों में तेजी से खाली और वीरान होते घरों को देखकर इस तथ्य को भली-भांति समझा जा सकता है।
यह अच्छी तरह समझा जाना चाहिए कि उत्तराखंड के ग्रामीण समाज की सामाजिकता और आर्थिकी को जीवंत करने में शिल्पकार बन्धुओं की प्रमुख भूमिका रही है। आज भी जो कुछ लोक का तत्व हमारे समाज में जीवंत दिखाई और सुनाई दे रहा है, उसका संवाहक शिल्पकार वर्ग ही है।
अभी भी वक्त है, पहाड़ी जन-जीवन की पैतृक सामाजिक समरसता और सादगी के प्रवाह को हम नई पीढ़ी की ओर निरंतर और निर्बाध रूप में बहने दें। इसके लिए जाति की जड़ता जाये तो उसके जाने का जश्न मनायें। ताकि हमारी नई पीढ़ी जाति के दायरे से बाहर निकल सके। और, ऐसे उत्तराखंडी समाज को विकसित करें जिसमें जाति से बजाय अपने जम़ीर से लोग अनुशासित और आनंदित हों। बलदेव सिंह आर्य जैसे मार्गदर्शी व्यक्तित्वों ने ने वर्षों पहले जीने की यही राह हमें दिखाई थी।