काश….कि इस राजगढ़ी का खेवनहार होता! कोई तो हो जो इसके अतीत के पत्थर उलटे!
विरासत की जद्दोजहद में जहाँ पर्यटन व धर्म संस्कृति मंत्रालय ने रामायण, महाभारत व बौद्ध सर्किट बनाकर उन पर कार्य करना शुरू किया वहीँ पर्यटन मंत्रालय द्वारा पूरे उत्तराखंड की चट्टियों पर भी कार्य करने के लिए आम आदमी को प्रोत्साहित करने की कोशिश की है ताकि वे अपनी जानकारियाँ अपडेट कर सकें लेकिन ऐतिआसिक महत्व की गढ़ियों पर व गढ़-कुमाऊँ की विजय गाथाओं पर व यहाँ अवस्थित रजवाड़ों पर जाने क्यों विभाग ने अभी भी आँखें मूंदी हुई हैं! बेशक पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने इस दिशा में कई नए प्रयोग किये हैं लेकिन वे सब अभी भी नाकाफी से दिखते हैं क्योंकि अन्य राज्यों की भाँती हम अपनी ऐतिहासिक विरासतों के खंडहर व खंडहर नुमा धरोहरों को संजोने में अभी भी बहुत पिछड़े हुए हैं जबकि राजस्थान सहित देश के कई राज्य अपनी ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण के बाद पर्यटकों को लुभाने में काफी कामयाब रहे हैं!
(राजगढ़ी का बिहंगम दृश्य)
महाभारत व रामायण दोनों ही सर्किटों के अंतर्गत पड़ने वाली राजगढ़ी जो कभी रवाई की दंडक परम्परा की कड़ी रही है और जहाँ टिहरी नरेश बिशेषकर गर्मियों की छुट्टियों में शुकून तलाशने जाया करते थे वर्तमान में तिल-तिल खंडहर होते उसके बुर्जों की आह की थाह लेने वाला कोई नहीं है जबकि कई सालों से इस क्षेत्र के सांसद राजपरिवार के ही अग्रज रहे हैं लेकिन कभी इन महानुभावों ने यह पलटकर भी नहीं देखा कि ये उनके पुरखों के इतिहास से जुडी धरोहर है! शायद इसका कारण यह भी हो कि राजघराने का हर शख्स यह बात बखूबी जानता हो कि राजगढ़ी मुख्यतः राजाओं की ऐशगाह रही है जहाँ उन्हें खूबसूरत यौवनाएं एक रात की दुल्हन के रूप में सौंपी जाती थी और जिनकी कई कहानियां आज भी रवाई-पर्वत क्षेत्र के लोक गीतों में सुनने को मिलती हैं!
आपको बता दें कि राजगढ़ी यमुना घाटी में देहरादून से लगभग 170 किमी. की दूरी पर पट्टी बनाल में स्थित है जिसकी उंचाई समुद्रतल से लगभग 1600मीटर है! यहाँ तक पहुँचने के लिए आप देहरादून, मसूरी, नैनबाग डामटा, लाखामंडल, नौगाँव से राष्ट्रीय राजमार्ग के रास्ते जब बडकोट पहुँचते हैं तब आपकी देहरादून से यहाँ तक की दूरी लगभग 150 किमी. तय होती है! यहाँ से एक सडक दांयी तरफ उठती हुई राड़ी डांडा होकर उत्तरकाशी निकलती है जो कि यहाँ से 60 किमी. दूरी पर स्थित है आप सीधे यमनोत्री मार्ग के लिए आगे बढ़ेंगे तो लगभग 6 किमी. आगे गंगनानी के पास से एक सड़क बांये मुडती हुई पुल पार ठकराल व बनाल पट्टी में पहुँचती हैं जहाँ से लगभग 14 किमी. आगे राजगढ़ी पर राजशाही की अंतिम निशानी के रूप में राजगढ़ी अंतिम दम तोडती नजर आती है!
आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि यह वही ठकराल पट्टी हुई जहाँ से नरु-बिजुला जैसे वीर भड़ो की प्रेम कहानी ने जन्म लिया और सदियों से आज भी उसके बोल – “ज्ञानसू लागो घुंडो रासो नरु-बिजुला!” फिजाओं में गूंजते रहते हैं! ठकराल पट्टी में अवस्थित राजगढ़ी यों तो ढख्याट गाँव की सरहद में पड़ती है व यहाँ के जयाडा अपने को टिहरी से आयाक बताते हैं! इस पट्टी के कुछ गाँव जैसे ढख्याट गाँव, धराली, मासु, पार्लर, नगाणगाँव, थान, गंगटाडी, फरी, कोटी, सरनौल, घटालगाँव, मशालगाँव, बच्यांणगाँव, चपटाडी इत्यादि ने चारों ओर से राजगढ़ी को घेरे हुए हैं वहीं दूसरी ओर बनाल पट्टी के ज्यादात्तर गाँव 20 मीटर से लेकर 10 किमी की दूरी पर अवस्थित हैं जिनमें पौंटी झडक, गौंडा, सीडक, गैर, गडोली, गुलाड़ी, बकरोटी, घंडाला, थानकी, भानी, अरुण, व्याली इत्यादि कई गाँव आते हैं ! जबकि राजगढ़ी से सडक के नीचे की ओर यमुना छोर पर गंगटाडी, कोटि और फरी गाँव अवस्थित हैं!
आपको बता दें कि राजगढ़ी के निर्माण के सम्बन्ध में दो-दो मत हैं ! जहाँ एक मत इसे मानता है कि यह सत्रहवीं सदी में राजा प्रदीप शाह ने रवाई स्थित छोटी-छोटी गढ़ियों पर अंकुश रखने के लिए व कर वसूली के निमित बनवाई थी वहीँ दूसरा मत है कि सन1848 में इसका निर्माण, राजा सुदर्शन शाह द्वारा किया गया है! लेकिन इसमें भी मतांतर है लोगों का व कुछ इतिहासविदों का मानना है कि राजा सुदर्शन शाह के काल में इस गढ़ी की मरम्मत का कार्य किया गया व इसमें कुछ मूलभूत परिवर्तन किये गए! ज्ञात हो कि उनका कार्यकाल 1815 से 1859 तक रहा। कहा तो ये भी जाता रहा है कि उनके बाद के राजा भवानी शाह, प्रताप शाह, कीर्ति शाह, नरेंद्र शाह, मानवेन्द्र शाह आते रहे हैं और ज्यादात्तर राजाओं की यह ऐशगाह हुआ करती थी लेकिन राजा मानवेन्द्र शाह के काल तक ही यह गढ़ी जर्जर स्थिति पहुँच गयी थी। जिसका मुख्य कारण सन 1930 का तिलाड़ी काण्ड बताया जाता है! कहा जाता है कि इसके बाद से राजघराने का अंकुश यहाँ बेहद कमजोर पड़ गया था क्योंकि तिलाड़ी काण्ड के बाद यहाँ की जनता में राजशाही के विरुद्ध चिंगारियां बुलंद हो गयी थी!राजगढ़ी के बेहद पास ही इस क्षेत्र के जाने माने समाजसेवी जयवीर सिंह जयाडा जी का घर है जो मूलतः ढख्याट गाँव के हैं उनसे मुलाक़ात के दौरान उन्होंने बताया कि राजा के सैनिकों के लिए छावनी का काम करती थी व हिमाचल क्षेत्र के आक्रमणों को झेलने के लिए बेहद सुरक्षित समझी जाती रही है! कुछ समय पूर्व यह गढ़ी इंटर कालेज राजगढ़ी के होस्टल के रूप में काम किया करती थी जहाँ कई अध्यापक रहा करते थे लेकिन बिना मरम्मत के यह धीरे-धीरे एक ओर से टूटनी शुरू हो गयी! आपको आश्चर्य होगा कि अकेले रवाई क्षेत्र में 18 छोटे-छोटे रजवाड़े थे जो सब राजा के अधीन थे व इनके गढ़पति राजा को खुश करने के हर वे संसाधन जुटाते थे जो उनसे बन पाता था इन गढ़पतियों की गढ़ियाँ प्रमुखत: कोटगांव ओडार मोरी पर्वत क्षेत्र की सांकरी गढ़ (धोराई रावत), लिवाड़ी पंचगाई पर्वत क्षेत्र डंकवाण गढ़ (डंकवाण खूंद), डांडा गाँव-गडूगाड़ मोरी का श्रीकोट गढ़ (श्रीकोटी रावत), नानाई/गडूगाड़ मोरी क्षेत्र का जगरथ गढ़ (अज्ञात), खरसाडी गडूगाड़ मोरी क्षेत्र का चंगाणु गढ़ (अज्ञात), भूटोतरी/मासमूर मोरी क्षेत्र का भुटोतरा गढ़ (राजा कोशाण), खाछु-आन्दुर क्षेत्र पुरोला का भांसला गढ़ (जाजमर जंजाण), मठबिचला/रामासिराई पुरोला क्षेत्र का ढन्टारी गढ़ (अज्ञात/कोई इसे परी गढ़ भी कहता है), खलाड़ी-कमलसिराई पुरोला क्षेत्र का कंदरेटा गढ़ (बागाजौसाणी), ठंढुंग/कमलसिराई का ठंढुंग गढ़ (सुंदरा पालायटू), सौंदाडी/कमलसिराई पुरोला क्षेत्र का धामकोट गढ़ (अज्ञात), मंज्याली/मुगरसंति नौगाँव क्षेत्र का स्याल्डा गढ़ (अज्ञात), स्याल्डा/मुगरसंती नौगाँव क्षेत्र का खनारू गढ़, मुंगरा/मुंगरसंती नौगाँव क्षेत्र का मुंगरागढ़ (रौतेला), कोटियालगाँव नौगाँव क्षेत्र का हंसोर गढ़ (पसाण रावत), गढ़ खाटल नौगाँव क्षेत्र का खाटल गढ़ (तुंवर/तोमर), बजरी नौगाँव क्षेत्र बजरी गढ़ (अज्ञात), बडकोट नौगाँव क्षेत्र का गडकोट गढ़ (रावत जाति) इत्यादि प्रमुख हैं! ये सभी गढ़पति अपने अप में स्वछन्द टो थे लेकिन राजशाही की हर आज्ञा का पालन करना अपना राजधर्म मानते थे! आश्चर्य तो इस बात का है कि राजगढ़ी से उपरी क्षेत्र के किसी गढ़पति का कभी नाम सामने नहीं आया जिन्हें खुले अधिकार दिए गए हों जबकि यहीं पास 52 गढ़ों के राजा के सेनापति वीर योद्धा माधौ सिंह भंडारी के वंशजों का बहुत बड़ा गाँव भी है!
बहरहाल राजगढ़ी खंडहर में तब्दील हो चुकी है जिसकी इमारती बुर्ज अभी भी मर-मर कर जीते हुए मानो कह रहे हों कि बचा सको तो बचा लो! यह राजशाही की अस्मत का ही सवाल नहीं है बल्कि प्रदेश के पर्यटन उद्योग से जुडी एक ऐसी कड़ी है जो पट्टी बनाल के लोगों के लिए वरदान साबित हो सकती है क्योंकि यहाँ से आप कालियानाग की जन्मस्थली सर-बडियार व सरू ताल, रेणुका मंदिर सरनौल, रघुनाथ मंदिर पुजेली, थान गाँव इत्यादि के ऐतिहासिक महत्व की गाथा को उजागर कर पर्यटकों का रुझान पैदा कर आय के बेहतर संसाधन उपलब्ध करवा सकते हैं! वर्तमान में खंडहर हो चुकी इस विरासत में जहाँ एक आध कमरों में पोस्ट ऑफिस चल रहा है वहीँ राज गढ़ी के प्रांगण में इंटरकालेज की स्थापना भी हो चुकी है! यहाँ से आप हिमालय व यमुना के नयनाभिराम दर्शन कर सकते हैं!