Tuesday, July 1, 2025
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वीरांगना तीलू रौतेली के वंशज गोरला कब कहलाये गोरला रावत ?

(मनोज इष्टवाल )
यह प्रश्न अक्सर उठता ही रहता है कि रावत, नेगी, बिष्ट इत्यादि ज्यादात्तर राजपूत जातियां हैं या फिर उपाधियाँ । विद्वान् इन्हें उपाधियाँ मानते हैं और आम व्यक्ति जातियां । जिसके फ़लस्वरूप हुआ यह कि इन जातियों में सेंधमारी हुई और गुमनाम जातियों ने पहाड़ त्याग जैसे ही मैदानों में बसासत शुरू की उन्होंने अपने नाम के पीछे रावत, नेगी, बिष्ट इत्यादि लिखना शुरू कर दिया है लेकिन बेचारे आज भी न अपना गोत्र जानते हैं , न शाखा और न ही प्रवर ! बहरहाल गोरलाओं को कब “रौत” उपाधि मिली उसका जिक्र होना ही जरुरी है।
कत्यूरी राजा धामदेव के पुत्र वीरमदेव जिसे ब्रह्मदेव व वीरनदेव भी कहा जाता रहा है, जो कत्यूरी राजवंश का सबसे क्रूर एवं अत्याचारी राजा कहलाता है। अक्सर कत्यूरी साम्राज्य का अस्तांचल बारहवीं सदी तक मानने वाले विद्वान् शायद उनकी शाखाओं का जिक्र करना भूल जाते हैं, जिन्होंने छिन्न-भिन्न कत्यूरी साम्राज्य को फिर से एक करने के लिए सदियों तक छापामारी युद्ध कर लूटपाट के सिवाय कुछ नहीं किया क्योंकि ये अपनों को ही विश्वास में नहीं ले सके। कत्यूरी राजवंश की डोटी सूची व अस्कोट सूची को ही प्रमाणित कर कत्यूरी राजवंश के समाप्त होने की घोषणा करने वाले कत्यूरी शाखाओं का जिक्र करना भूल जाते हैं। कत्यूरी राजवंश का पुनर्रुत्थान करने वाले कत्यूरी राजा इंद्रदेव (११९१-१२०२) / व मुख्य शाखा में राजा अशोक चलदेव (११९१-१२०९) की शाखाएं फूटती गयी और विशाल कत्यूरी साम्राज्य टुकड़ों में बंटता चला गया। इस तरह कत्यूरी राजवंश में करवीरपुर का कत्यूरी राजवंश (१) व करवीरपुर का कत्यूरी राजवंश (२) , कम्मादेश का “सिंह” राजवंश, बीतडी-दुलू का “चल्ल” राजवंश, करवीरपुर (बैजनाथ) का कत्यूरी राजवंश (२) ११९१ के पश्चात्, बैजनाथ डोटी व बैजनाथ -द्वाराहाट के महाराजा व मांडलिक राजा, डोटी-राजाव्ली में कत्यूरी राजाओं के पूर्वज, डोटी-सीरा के कत्यूरी महाराजा रिका तथा रैंका मल, डोटी के कत्यूरी साही महाराजा, अस्कोट के कत्यूरी राजा रजवार , पाली-पछाऊँ की राजावली सहित फिर सैकड़ों की संख्या में मांडलिक व ठकुराई कत्यूरी जिनमें मंडल पाली पछाऊं, मंडल दानपुर, मंडल गंगोली, मंडल बारामंडल, ठकुराई खगमरा कोट, ठकुराई बिशौदकोट, ठकुराई स्यूंनरा कोट ठकुराई फल्दाकोट सहित दर्जनों और मांडलिक व ठकुराइयां कत्यूरी शाखाओं में बंट गई थी व ये कत्यूरी अपनी अपनी अस्मत बचाने व प्रभुत्व जमाने के लिए गढ़वाल के सीमावर्ती क्षेत्र पर छापामारी कर लूटपाट करते थे, का खात्मा सत्रहवीं सदी के आरम्भ में गोर्ला थोकदार भुप्पू व उसके पुत्र भगुत्वा व पत्वा से शुरू हुआ जिसे उनकी पुत्री वीरांगना तीलू रौतेली ने अदम्य साहस व वीरता के साथ हमेशा- हमेशा के लिए समाप्त कर दिया था।
गोरलाओं को रौत की उपाधि 
गढ़वाल में प्रचलित अनुश्रुतियों से विदित होता है कि राजा बीरदेव/वीरमदेव के वंशज तथा अन्य कत्यूरी जो रामगंगा की उपत्यका में चौखुटिया, महरगाँव, मासी, पाली, भिकियासैण, मानिल, देवायल आदि की गढ़ियों के अधिपति थे, अपनी छापामार टोलियों लेकर गढ़राज्य के सीमान्त के गांवों में लूटमार मचाते थे। जिसका प्रतिरोध लोहबा, जोगीमढी, गुजडू आदि सीमान्त पट्टियों के छापामार उसी प्रकार करते थे। वीराँगना तीलू रौतेली के पंवाड़े से बिंदुवा, जीतू और रामू रजवार कैंतुरा (कत्यूरी) नामक़ छापामारी का पता लगता है। “विंदवा कैंतुरा ने जब चौंदकोट पर छापा मारा तो गुराड़ गांव के भगतू और पत्वा नामक गोरला भ्राताओं ने उससे युद्ध करके उसे भगाया था। उनके शरीर पर लगे ४२ घावों को देखकर गढ़नरेश ने उन्हें ४२ गांव “रौत” में दिए थे। तीलू रौतेली ने कांडा के मेले के अवसर पर टकोली के पास विदुवा कैंतुरा को मार डाला। सराईखेत तथा बैरागढ़ में युद्ध हुए। जीतू कैंतुरा मारा गया। रामू रजवार ने तीलू रौतेली तथा उसके साथी शिबू पोखरियाल का छल से वध कर दिया। ऐसी झड़पें अनेक वर्षों तक होती रहीं।” (पुरुषोत्तम सिंह का बोधगया शिलालेख, श्लोक 12 व डॉ शिब प्रसाद डबराल का कुमाऊँ का इतिहास 1000 -1790 ई. (परवर्ती कत्यूरी और चंद राजवंश पृष्ठ 51-52) राजाज्ञा के अनुसार “रौत” का अर्थ जागीर देना से समझा जाता था और नेगी अपभ्रन्स माना जाता है ‘नेक’ देने का। जैसे लोधी रिखोला के वंशजों को राजाज्ञा में ‘नेगी’ जो मूलत: नेकी शब्द है, के रूप में नेक स्वरूप ‘अकरी’ दी गई थी। अर्थात उनके वंशजों से कर या लगान नहीं लिया जाता था।
रौत मिलने को तब बड़ा सम्मान समझा जाता था इसलिए तत्कालीन समय में इस अपने जाति के पीछे सम्मान पूर्वक़ लगाया जाने लगा ठीक उसी प्रकार जैसे एक सूबेदार या सूबेदार मेजर को राष्ट्रपति द्वारा सेवानिवृत्ति के समय सम्मान पूर्व “कैप्टेन” की उपाधि दी जाती है। बहरहाल यह कहा जा सकता है कि यह घटना तीलू रौतेली के जन्मकाल के आस पास की है क्योंकि उसके पश्चात ही 16 जनवरी 1664 में भयंकर बिमारी से ग्रस्त गढ़वाल राजा पृथ्वीपति शाह ने मेदनीशाह के अवयस्क पुत्र फतेशाह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। ऐसे में तत्कालीन कुमाऊ के राजा बाजबहादुर चंद ने गढ़राज्य पर आक्रमण करना उचित समझा। इस युद्ध में बाजबहादुर चंद ने रामगंगा के सीमावर्ती क्षेत्रों के कत्युरी मांडलिकों व ठकुराईयों को एकजुट कर गढ़वाल पर दो तरफ़ा आक्रमण करने की कूटनीति चली व उसने अपनी एक सेना , अपने एक परखे हुए सेनानायक मैसी साह के अधीन पिंडारी उपत्यका के मार्ग से भेजी। इस सेना ने बैजनाथ, ग्वालदम, थराली, कर्णप्रयाग, गौचर होकर श्रीनगर पहुँचने का मार्ग अपनाया। दूसरी सेना के साथ वह स्वयं गया। उसने रामगंगा के तटसे होकर चौखटिया, लोहबा, बीरोंखाल -बैजरो, होकर श्रीनगर पहुँचने वाला मार्ग अपनाया। साबली के बिष्टों और बंगारस्यूं के बंगारी रौतों ने आक्रांता का साथ दिया। गढ़वाली सेना की मार भगाकर बाजबहादुर सेना सहित श्रीनगर का पहुंचा। यहाँ शीघ्रता से एक सन्धिपत्र लिखा गया, जिसमें भविष्य में शत्रुता न रखने के सम्बन्ध में किसी प्रकार के आश्वासन का उल्लेख नहीं था। विजेता द्वारा, पराजित की राजधानी में लिखा गया यह सन्धिपत्र पराजित के लिये लज्जाजनक था। पांडे के अनुसार बाज बहादुर ने फौज का खर्च और नजराना लेकर गढ़वाल का मुल्क उस के राजा के सुपुर्द किया। एटकिनसन ने फौज का खर्च और नजराना लेने का उल्लेख नहीं किया है।
इस आक्रमण के समय साबलिया विष्टों और बंगारी रोतों ने बाजबहादुर की सहायता की थी। अपने राज्य को अन्तर्गत बाजबहादुर, पाली के सयाणों को, जो कत्यूरी-वंशज थे, चन्दों का विरोधी समझता था। इसलिये उसने पाली के सयाणों को सौंपे गए गांवों में से, साबलिया बिष्टों को ताली आदि गांवों का तथा बंगारी रौतों का भरसोली आदि गांवों का सयाणा नियुक्त कर दिया। तब से पाली-पछाऊँ में चार सयाणे हो गए। अकेले कत्यूरियों की प्रमुखता नहीं रही। इन्हीं दिनों असवाल और डंगवाल आदि राजपूत तथा कुछ गैंडा विष्ट भी गढ़वाल से आकर कुमाऊ में बसे। इन्होंने भी गढ़राज्य पर आक्रमण के समय बाजबहादुर की सहायता की थी। अस्तु बाज बहादुर ने उन्हें भी कमीनचारी दी। कहा जाता है बाजबहादुर ने जूनागढ़ पर अधिकार कर लिया था। वहाँ से वह नन्दादेवी की सुवर्ण की मूर्ति को तथा उसकी, देवचेलियों को अपने साथ ले आया था। नन्दादेवी की मूर्ति की प्रतिष्ठा उसने मल्ला महल में स्थापित की थी। पीछे ट्रेल ने उस मूर्ति की स्थापना वर्तमान मन्दिर में करवाई।
(पांडे – कुमाऊँ का इतिहास पृष्ठ 288, सरकार – हिस्ट्री आब औरंगजेब जि. 3, पृष्ठ 48, प्रोसीडिंग्स आव इंडियन हिस्टोरिकल रिकार्ड्स कमीशन, जि. 31 खंड 2, डबराल – परवर्ती कत्यूरी और चंद राजवंश पृष्ठ 139-40)
गढ़राज्य के लिए इसी युद्ध में जो मूलत: तामाडौन में हुआ माना गया व बाद में बीरोंखाल में हुआ में तीलू रौतेली के पिता भूप्पू गोरला ने अपनी जान गँवाई था व पुन: दूसरे युद्ध जो सम्भवतः 1670-12 के आस -पास हुआ था उसके भाई भगतु पत्वा व मंगेतर भवानी सिंह ने अपने प्राण गँवाएं थे। भूप्पू गोरला की मृत्यु के समय वीरांगना तीलू रौतेली तीन बर्ष की व भाईयों एवं मंगेतर की मृत्यु के समय 09 या 12 बर्ष की बताई जाती है।
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