* लोकगीत की क्या है परिभाषा!
(मनोज इष्टवाल)
मानव सभ्यता के साथ भले ही लोक समाज का निर्माण हुआ है लेकिन लोक में गीत कब से प्रचलित हैं, इसका लेखा-जोखा लिखना विश्व के किसी भी लेखक, शोधार्थी व समाज के लिए अकल्पनीय है। भारत बर्ष में ये लोकगीत सतयुग से प्रचलन में हैं। अब वह चाहे इंद्रदेव की सभा में अप्सराओं का नृत्य हो या देवलोक में नारद जी की वीणा लहरी में गूँजते शब्द! या फिर वैदिक काल में पुष्पों को पल्वित करती शकुंतला व सखियों के गीत हों या फिर त्रेता में पुष्पवाटिका में माता सीता व सखियों के सामूहिक स्वर। द्वापर में श्रीकृष्ण की रासलीला में गोपिकाओं के गीत हों या फिर कलयुग के आरम्भ में ऐडी, मातृकाओं, परियों के ऊँचे धार बुग्याल में गुंजायमान स्वर और उससे भी महत्वपूर्ण हैं भ्रमरों का पुष्पों के रस्वादन में गूँजते स्वर। जिसका सीधा सा अर्थ है भारत की सनातन परम्पराओं में लोक गीत लाखों बर्षों से यूँही गुंजायमान होते हुए लोक समाज की संरचना इस धरती व ब्रह्माण्ड में करते आये हैं।
ढ़ोल सृष्टि के अंधकार को मिटाने का माध्यम माना जाता है जिसकी संरचना स्वयं आदिदेव महादेव व माँ पार्वती ने की है। शिब जी की ससुराल भी हम पुरातन काल से उत्तराखंड में मानते आये हैं जिसका सीधा सा अर्थ हुआ कि हमारे लोक समाज में लोकगीत युगों युगों से चले आ रहे हैं।
लोक शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर हुआ है और यही सबका मानना भी है कि महर्षि वेदव्यास के ऋग्वेद से ही इसकी उत्पत्ति हुई है लेकिन यह भी कहा जाता है किवैसे वेदों को अपौरुषेय कहागया है। इसका मतलब होता है कि उसे किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं लिखा यानी वे ईश्वरीय कृति है, और जिन्हें वेदव्यास ने लिखा है। ऐसे में लोक क्या है? यह समझने के लिए हमें लोक के मर्म को समझना होगा। लोकगीतों की परिभाषा विद्वानों ने अपने-अपने मतों के अनुसार दी गयी है। लोकगीत की परिभाषा देते हुए डॉ० बार्क ने ‘फोक’ शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि “इससे सभ्यता से दूर रहने वाली किसी पूरी जाति का बोध होता है।”
वहीँ दूसरी और डॉ० कुंजबिहारी दास लोक गीतों की परिभाषा देते हुए कहते हैं “लोक संगीत उन लोगों के जीवन की अनायास प्रवाहात्मक अभिव्यक्ति है, जो सुसंस्कृत तथा सुसभ्य प्रभावों से बाहर कम या अधिक आदिम अवस्था में निवास करते हैं। यह साहित्य प्रायः मौखिक होता है और परम्परागत रूप से चला आ रहा है।” राल्फ वी० लिवियम्स लोकगीत को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि “A folk Song is neither new nor old, it is like a forest tree with its roots deeply buried in the past, but which continuously puts forth new branches, new leaves, new fruits.”(लोक गीत न पुराना होता है न नया। वह तो जंगल के एक वृक्ष जैसा है, जिसकी जड़ें तो दूर जमीन में धँसी हुई हैं, परन्तु जिनमें निरन्तर नई-नई डालियाँ, पल्लव और फल लगते हैं)।
डॉ माधुरी बडथ्वाल अपनी पुस्तक ‘गढवाली गीतों में राग-रागनियाँ’ में लिखती हैं कि “डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘लोक’ शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम से न लेकर नगरों व गाँवों में फैली उस समूची जनता से लिया है जो परिष्कृत रूचि संपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन की अभ्यस्त होती है। व डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल के शब्दों में “लोक हमारे जीवन का महासमुद्र है, जिसमें भूत, भविष्य और वर्तमान संचित हैं। अर्वाचीन मानव के लिए लोक सर्वोच्च प्रजापति है। मेरा (मनोज इष्टवाल) मानना है कि “यदि लोक जीवित है तो उसकी आत्मा लोकगीत हैं। ये एक दूसरे के वैसे ही पूरक हैं जैसे मछली और पानी! दोनों ही एक दूसरे से जुदा नहीं हो सकते।”
लोकगीत पर यूँ तो दर्जनों साहित्यविदों ने अपने अपने हिसाबसे परिभाषाएं दी हैं जैसे ग्रीम का कथन है कि “A folk song composes itself.” (लोक संगीत अपने आप बनते हैं।) वहीँ पेरी ने लिखते है कि लोकगीत आदि मानव का उल्लासमय संगीत है।” देवेन्द्र सत्यार्थी का कहना है कि “लोकगीत का मूल जातीय संगीत में है।” डॉ माधुरी बडथ्वाल लिखती हैं कि “लोकगीत लोक संस्कृति का दर्पण होते हैं। इनके स्वरूप में देश की प्रकृति तथा संस्कृति अपने रूप का बखान करती है, इनमें जन इतिहास छुपा रहता है।”
डॉ० यदुनाथ सरकार ने लोकगीतों के मर्म को समझने की चेष्ठा ही नहीं की अपितु लोकगीत के संगीतमय पक्ष का बखान भी बहुत ख़ूबसूरती के साथ किया है। उन्होंने लोकगीत की विवेचनात्मक परिभाषा देते हुए लिखा है कि “इनमें प्रबंध की प्रतिगति, शब्द विन्यास में सादगी, विश्वव्यापक मर्मस्पर्शी प्राकृतिक तथा आदिम मनोराग, सूक्ष्म पर प्रभाव पैदा करने वाला चरित्र चित्रण, क्रीड़ा स्थली का स्थूल चित्रण, कृत्रिमताओं का पूर्णतः बहिष्कार होता है। लोकगीतों को पढ़ने में इतना आनंद नहीं आता जितना सुनने में आता है। जब हम खेतों में काम करने वाली ग्राम बाला, पशु चराने वाली किसी युवती के कोमल एवं मधुरकंठ से निःसृत संगीतमय भावों को सुनते हैं, तो क्षण भर के लिए हमारा हृदय भी साधारणीकरण की अवस्था में उसी के साथ झूमने लगता है। लोकगीत कंठ के गाने के लिए और हृदय से आनन्द लेने के लिए है। आकाश में भरा हुआ शब्द जब गीत के रूप में प्रकट होता है, तब मानव के चिरंजीवी भाव साकार हो उठते हैं। लोकगीतों में लोक का समस्त जीवन चित्रित है। शिशु के प्रथम क्रन्दन से लेकर जीवन की अन्तिम कड़ी तक के भावचित्र इनमें हैं। भाई से मिलने को व्याकुल बहन की व्यथा-कथा, स्त्रियों का आभूषण- प्रेम, सास, ननद तथा सौत के अत्याचारों से पीड़ित स्त्री की मनोव्यथा, कृषक परिवार की विपन्नता, वीरों की शौर्य गाथा तथा मिलन-विरह के रंगारंग भाव इन गीतों में मिलते हैं। दूसरे शब्दों में, इन लोकगीतों में जीवन का शास्वत सत्य झलकता है। मौखिक परम्परा से विकसित होते हुए इन लोकगीतों को वेदों के समान माना जाता है, क्योंकि दोनों ही अधिक मात्रा में श्रव्य हैं। लोक गीतों की शैली सहज होती है और उनमें गेय तत्वों की प्रधानता होती है।”
सच कहा जाय तो लोकगीत वस्तुतः जनता का वह साहित्य है जो जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए रचा जाता है। जिसकी रचना लोक अर्थात् सामूहिक जन द्वारा होती है। जिसका सीधा सा अर्थ हुआ “The poetry of the people, by the people, for the people”
डॉ माधुरी बडथ्वाल का मानना है कि गढ़वाली लोकगीतों में अनेक राग-रागनियाँ हैं जैसे दुर्गा, भैरव, भैरवी, खमाज, भीमपलासी, भूपाली, धानी, गोपिका बसंत, नारायणी, दरबारी, मालगुजी, मेघ, मध्यमात सारंग, देस, देसी आदि। तीन, चार, पाँच, छः, सात स्वरों में स्वरबद्ध ये लोक गीत अत्यन्त कर्णप्रिय और लोकप्रिय हैं। कुछ लोक गीत ताल रहित हैं, कुछ तालबद्ध हैं। दोनों ही प्रकार के लोकगीत मधुर हैं। झुमैलो, न्योली, छपेली और बाजूबंद तालबद्ध और तालरहित दोनों तरह से गाये जाते हैं। जागर लोक गीतों में डौंर थाली, ढ़ोलकी या ढोल दमाऊँ लोकवाद्यों की संगत की जाती है। अन्य लोकगीतों के साथ ताल वाद्य ढोल दमी, मोछंग, ढ़ाक, ढ़ोलकी, डॅफड़ी, खंजड़ी और हुड़का होता है। ये लोक गीत आलाप प्रधान और लय प्रधान दोनों तरह के हैं। किसी लोकगीत में शुद्ध राग झलकता है तो किन्हीं लोक गीतों में मिश्रित राग झलकता है व किन्ही लोकगीतों में तो आश्चर्यजनक रूप से राग की शुद्धता होती है।
वहीँ मध्ययुगीन यूरोप में, ईसाई धर्म के विस्तार के तहत लोक संगीत को ईसाई-पूर्व संस्कारों और रीति-रिवाजों से जुड़े होने के कारण दबाने का प्रयास किया गया। फिर भी यूरोपीय लोक संगीत के कुछ पहलू मध्ययुगीन ईसाई धार्मिक संगीत में समाहित हो गए, और इसके विपरीत भी। लोक संगीत को भी पूरे इतिहास में यूरोपीय कला संगीत रचनाओं में सचेत रूप से शामिल किया गया है, विशेष रूप से पुनर्जागरण की शुरुआत के दौरान नवीनीकरण की अवधि के दौरान यह चर्चाओं में रहा है। मौखिक परंपरा में संग्रहित कई लोक गीतों का पता साहित्यिक स्रोतों से लगाया गया है, जो अक्सर काफी प्राचीन होते हैं।