- जानिये क्या है सनातन परम्पराओं में “गमछा” का इतिहास।
(मनोज इष्टवाल)
अगर सनातन हिन्दू वेद पुराणों का संदर्भ लिया जाय तो पृथ्वी की संरचना करते समय से ही कमल पुष्प से ब्रह्म की उत्पत्ति और उसके पश्चात् सृष्टि संरचनाकाल से ही “गमछा” हिन्दू देवी देवताओं का महत्वपूर्व अंग वस्त्र रहा है। यानि कि वैदिक काल, सतयुग, द्वापर, त्रेता और अब कलयुग तक के जितने भी श्रेष्ठ पुरुष सनातन हिन्दू परम्पराओं में रहे हैं, उन सभी का मुख्य अंग वस्त्र पीतांबरी गमछा रहा है। और तो और सृष्टि की उत्पत्ति काल में अंधकार से ॐकार में अर्थात उजाले में लाने वाले “ढ़ोल” जिसकी संरचना महादेव पार्वती ने की है, उस ढ़ोल को भी पीताम्बरी अंग वस्त्र से ढककर रखा जाता है। यूँ तो उत्तराखंड के परिवेश में ही नहीं बल्कि हर हिमालयी प्रदेश में शुभकार्यों में “गमछा” सम्मान का प्रतीक है, भले ही यह जब शादी उत्सव में दूल्हे के गले में अंग वस्त्र के रूप में पढता है तो उसे दुशाला कहा जाता है और अगर दूल्हा पीतांबरी धोती कुर्ता व गमछा व शीश मुकुट पहनकर निकले तो उसे “वर नारायण” कहा जाता है अर्थात साक्षात नारायण का अवतार..। ये दूल्हा – दुल्हन शब्द किस जाति धर्म से आयातित है यह कहना जरा कठिन है क्योंकि सनातन परम्पराओं में तो इन्हे वर वधु बोला जाता है। अब अगर देवभूमि उत्तराखंड की बात हो तो इसकी परम्पराएँ आज भी बिना वेद पुराणों के नहीं हैं। सिर्फ़ उत्तराखंड ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में वैदिक रीति रिवाज आज भी अतुलनीय हैं, जिसमें “गमछा” हमेशा ही अंग वस्त्र रहा है। ऐसे में उत्तराखंड के मसूरी में हिमालयन सेंटर के समीर शुक्ल व श्रीमति कविता शुक्ल उत्तराखंड खंड के पौराणिक अंग वस्त्रों पर व्यापक शोध कर उन्हें पुन: नये ट्रेंड के साथ लेकिन बेहद बारिकियों के साथ हम सबके के मध्य ला रहे हैं। हिमालयन समीर के नाम से प्रसिद्ध समीर शुक्ल की पहाड़ी टोपी के धमाल के बाद अब “पहाड़ी गमछा” शुर्कियों में है। वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के अंग वस्त्र के रूप में तो शोभायमान है ही… साथ-साथ यह साधु-संतों से लेकर समाज के बहुचर्चित प्रसिद्ध मनुषियों के अंग वस्त्र के रूप में भी शोभायमान है।
समीर शुक्ल बताते हैं कि उन्होंने गमचे के ऊपर ढ़ोल व मशकबीन, तुरही, भंकोर, रणसिंगा इसलिए उकेरे हैं क्योंकि यह विजय उत्सव के प्रतीक होने के साथ -साथ मंगल उत्सव की भी कामना करते हैं। हर मांगलिक कार्य इनके बिना आधे अधूरे नजर आते हैं। और ढ़ोल तो युग युगांत्तर से हमारी सनातन परम्पराओं की यश कीर्ति को बढ़ाता आया है। पूछे जाने पर वह बताते हैं कि ऐसा नहीं है कि “गमछा” हम सिर्फ़ सफ़ेद सूती कपडे में ही डिज़ाइन कर रहे हों। यह ऑर्डर के हिसाब से भी हम बना रहे हैं, कुछ रेशमी कपडे में चाहते हैं, कुछ नारायणी अंग वस्त्र में के रूप में…। इस पर पूर्ण रूप से हस्त कारीगरी की जा रही है ताकि इसकी बनावट में के साथ साथ इसके कढ़ाई तागों में कपडे के ऊपर झोल न आये। उन्होंने कहा – हम कितने ही आधुनिक क्यों न हो जाएँ लेकिन संस्कारवान् तभी दिखते हैं जब हम अपने क्षेत्र का परिचय अपने अंग वस्त्रों के पहनावे के साथ देते हैं व बदले में अपनी लोक संस्कृति के परिचायक कहलाते हैं।
यह आश्चर्य की बात है कि माँ गौरा व शिव के उपासक यह दम्पत्ती कानपुर से आकर मसूरी में बसे हैं। देवभूमि की लोक संस्कृति से इतने प्रभावित हुए हैं कि इन्होने हिमालयन सेंटर को एक ऐसे वृहद संग्रहालय के रूप में अवस्थित कर दिया है कि जिसमें सम्पूर्ण उत्तराखंड के लोक समाज, वास्तु, काष्ठ, पाषाण, लोह शिल्प व पौराणिक पांडूलिपि ही नहीं बल्कि आठवी सदी के सिक्के, महत्वपूर्व औजार व जाने क्या-क्या संग्रह कर रखा है। ये कहें कि उत्तराखंड की समस्त लोक परम्पराओं, लोक समाज व लोक संस्कृति के दर्शन करने हों तो आप हिमालयन सेंटर मसूरी के इस संग्रहालय में कर सकते हैं जिस पर इन दोनों पति पत्नी ने अपनी जिंदगी की पूरी कमाई लगा दी है। मेरा दावा है कि ऐसा संग्रहालय बमुश्किल ही उत्तराखंड सरकार के पास उपलब्ध हो!
बहरहाल “पहाड़ी गमछा” पर बात आगे बढाते हुए इस बात की ओर भी ध्यान आकर्षित करते हैं कि किस तरह से युगों युगों से चले आ रहे इस अंग वस्त्र को हम कुछ सदियों में समेटकर रख देते हैं। चर्यापद के समय से ही पारंपरिक लोक गीतों में गमछा के अनगिनत संदर्भ हैं। नवीं शताब्दी की बंगाली कविताओं की सबसे पुरानी पुस्तक में भी गमछा के कई संदर्भ मिलते हैं । विजय गुप्ता द्वारा रचित (1494 ई.) महाकाव्य पद्मपुराण में उन्होंने एक सीमांत किसान की पोशाक का वर्णन करते हुए गमछे का उल्लेख किया है। वहीं मध्ययुगीन चैतन्यमंगल में लोचन दास द्वारा लिखित चैतन्य महाप्रभु का वर्णन, एक भक्त संत का घर पर स्वागत करता है और उन्हें गीले गमछा कपड़े से गर्मी से बचने के लिए पंखा करता है।
गमछा यूँ तो आदिकाल या यूँ कहें सृष्टि रचना के समय से ही सनातन परंपराओं में शामिल रहा है जिसका उल्लेख आप भगवत पुराण में की भागवत कथा ही नहीं बल्कि सत्यनारायण के पाठ के साथ साथ मंदिरों में मूर्ती स्थापना के समय हो या फिर गणेश निर्माण, श्रीफल स्थापना.. हर जगह पढ़ते हैं लेकिन वर्तमान लेखक इसके अवतरण को मात्र कुछ सहत्रों पूर्व मानकर पूरे मनोबल से यह साबित करने पर तुले हैं कि “गमछा” सिर्फ़ नार्थ-ईस्ट वेस्ट या साउथ का अंग वस्त्र है, यह सम्पूर्ण सनातन परम्पराओं में प्रचलन में नहीं है। यह ठीक वैसे ही हास्यास्पद है जैसे ढ़ोल का निर्माण को हमारे वाम पंथी इतिहासकारों ने माना है कि ढोल पश्चिम एशियाई मूल का है जिसे 15वी शताब्दी में भारत में लाया गया था। आईन-ए-अकबरी में पहली बार ढोल के संदर्भ में वर्णन मिलता है अर्थात् यह कहा जा सकता हैं कि 16वी शताब्दी के आसपास ढोल की शुरुआत गढ़वाल में पहली बार की गई थी। अब ऐसे इतिहासकारों को कैसे समझाया जाया कि हमारे मंगलगीतों में नारायण अर्थात ब्रह्मा जी का विवाह हो या फिर शिब विवाह, कृष्ण व राम का विवाह सब में ढ़ोल वादन का जिक्र है। और तो और उत्तराखंडी शादी विवाह में मंगल स्नान के मांगल गीतों में ढ़ोल का संदर्भ भगवान बिष्णु के मंगल स्नान के गुणगान से होता है।
बहरहाल यहाँ ढ़ोल चर्चा में इसलिए भी आया क्योंकि उसके बिना पहाड़ का जनजीवन आधा अधूरा माना जाता है। और समीर शुक्ल ने ढ़ोल को न्यायोचित्त तरीके से अपने गमछे में स्थान दिया है, न सिर्फ़ ढ़ोल को बल्कि ढोली समाज को भी…।
बंगाल के कपड़ा कलाकार शफीकुल कबीर चंदन ने बंगाली में एक किताब लिखी है जो गमछा की जीवनी है। गमछा चरितकथा लगभग तीन शताब्दियों तक फैली हुई है।चंदन, जो मिलान (इटली), लॉफबोरो (यूके) और नरसिंगडी (बांग्लादेश) के बीच घूमते हैं, का मानना है कि गमछा की उत्पत्ति सिंधु घाटी और मिस्र की प्राचीन सभ्यताओं में हुई थी।
असम में वैष्णव मठों के गर्भगृह को गमोसा से सजाया जाता है और बिहू के समय नर्तक गमोसा पहनते हैं। चकमा, मरमा, गारो, मेच और अन्य आदिवासी समुदायों के लिए, यह एक पवित्र कपड़ा माना जाता है। लीरम फी, जो मणिपुर का पारंपरिक स्कार्फ है, सबसे खूबसूरत कपड़ा शिल्पों में से एक है। इसके विकास का पता 200 ईसा पूर्व से लगाया जा सकता है।
मणिपुर का चर्चित मैतेई समाज और अन्य पहाड़ी जनजातियों के बीच गमछा बेहद शुभ माना जाता है जिसका हर शुभ कार्य में आदान-प्रदान होता रहा है। उन्हें युद्धरत समूहों के बीच शांति और शांति का प्रतीक माना जाता था। वहीं जौनसारी समाज की महिलाएं गमछे के स्वरूप के आकार का ढान्टू अपने सिर पर धारण करती हैं, जो कई झगड़ों व वैमनस्य को चुटकियों में सुलझा देता है।
अगर एक आदर्श गमछे की बात की जाय तो वह 10 से 20 प्रति वर्ग इंच की गिनती में मजबूत सूती धागे का उपयोग से निर्मित किया जाता है। धागे की गिनती इस बात का माप है कि कोई कपड़ा कितना कसकर बुना गया है। इसकी गणना एक निश्चित क्षेत्र के भीतर लंबाई के अनुसार (ताना) और चौड़ाई के अनुसार (बाने) धागों की संख्या को जोड़कर की जाती है।
इस बात की प्रशंसा तो करनी ही होगी कि हिमालयन समीर के हिमालयन सेंटर द्वारा उत्तराखंडी लोक संस्कृति व लोक समाज को सौगात के रूप में वह लोक प्रस्तुत किया जा रहा है जिसे हम भूल चुके थे। उदाहरण के रूप में पहाड़ी टोपी को ही देख लीजिये जिसे हिमालयन सेंटर ने थोड़ा सा नयापन देकर देश के प्रधानमंत्री तक के सिर में सुशोभित करवा दिया। समीर के इस अथक प्रयास को बिग सलूट।