Friday, March 14, 2025
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मुट्ठी भर रंग…! क्या सचमुच यह शीर्षक पूर्ण नहीं है? क्या सौ मुट्ठी रंग कहना सही रहेगा!

(मनोज इष्टवाल)

शब्दों के सल्ली कहूँ या फिर हिंदी साहित्य में शब्द सम्पदा के बाजीगर..! पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी जब भी किसी मंच पर खड़े होकर बोलना प्रारम्भ करते हैं तो लगता है, आज जाने हिंदी शब्द सम्पदा के किस शब्द का पोस्टमार्टम होने वाला है। ऐसा ही विगत दिवस भी हुआ जब श्रीमती कांता घिल्डियाल के  काव्य संग्रह का लोकार्पण हुआ। अपनी रौs में बहते पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी ने पहला विस्फोट तो यह कहकर किया कि कोई भी कहानी, साहित्य हिंदी में गद्य हो वह काव्य ही कहलाता है। दूसरा उन्होंने कवियत्री शब्द को हिंदी का मानने से इनकार करते हुए इसे अंग्रेजी से चुराया गया शब्द कहा और इसी तरह उन्होंने आलोचना नामक शब्द की भी चीर-फाड़ कर उसे हिंदी शब्दावली का शब्द मानने से इनकार कर दिया। अब इतने शब्दों के सुक्से लगाने के बाद उन्होंने श्रीमती कांता घिल्डियाल द्वारा रचित काव्य संग्रह के मुख्य पृष्ठ के शीर्षक “मुट्ठी भर रंग”को भी अपर्याप्त शीर्षक मानते हुए इसे सौ मुट्ठी रंग कहलाना स्वीकार किया।

मुख्य अतिथि की भूमिका में मंच की शोभा बढ़ाने वाले पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी के शब्दबाणों के भेदन-छेदन को लेकर लम्बी चर्चा की जा सकती है लेकिन इसे यहीं पूर्णविराम देते हैं क्योंकि श्रीमती कांता घिल्डियाल ने मुझे कहा कि मैं भी पुस्तक की समीक्षा में चंद शब्द जरुर लिखूं। यह मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं है क्योंकि ज्यादात्तर लेखक समीक्षा तो छोड़िये, वे यह भी पसंद नहीं करते की मुझ जैसा दुर्भाषा उनके ऐसे लोकार्पण समारोह में आये। श्रीमती कांता घिल्डियाल की इस सहजता के लिए उनका आभार।

ये मेरी मजबूरी रही है कि मैं समीक्षा की जगह समालोचक का किरदार निभाना ज्यादा पसंद करता हूँ क्योंकि जिसे भी किसी मार्ग को प्रशस्त करना है। उसके आगे कठिनाइयों का पहाड़ न सही लेकिन कठिन डगर की हर डामर, कंकड़-पत्थर का जिक्र होना ही चाहिए ताकि वह सफर पर निकलने से पूर्व इन समस्त बिषय-वस्तुओं का संज्ञान ले।

पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी ने कांता घिल्डियाल की गौरय्या से लेकर एकांत तक सभी 100 कविताओं को शायद बड़े मनोयोग से पढ़ा और इसीलिए उन्होंने इन सौ कविताओं से युक्त काव्य संग्रह को मुट्ठी भर रंग के स्थान पर “सौ मुट्ठी रंग”पुकारना ज्यादा उचित समझा। यह पहला काव्य लोकार्पण पर था जिसमें भीड़ घटने के स्थान पर बढती चली गयी व लगभग तीन घंटे के मैराथन विचार-विमर्श व काव्य की कथा-व्यथा सुनते रहे। कभी पिन-ड्राप साइलेंस तो कभी पिछली सीटों पर बैठे कुछ असाहित्यिक व्यक्तियों का कलरव जरुर चेतना व जड़चेतन का खेल खेलता रहा।

लोकार्पण के फ़ौरन बाद वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. विद्या सिंह ने बतौर समीक्षक अपना लम्बा लेकिन नपा-तुला व्याख्यान पुस्तक के सम्बन्ध में दिया। तदोपरांत अध्यापिका व सुमधुर कंठ की धनि कविता मैठाणी भट्ट ने कांता घिल्डियाल की एक कविता को सुंदर कंठ से सजाकर रौनक लगा दी। सारस्वत अतिथि के रूप में वरिष्ठ साहित्यकार कुसुम भट्ट ने कांता घिल्डियाल की कविताओं को उनकी निजी जिन्दगी के इर्द-गिर्द घूमती परिधि पर केन्द्रित कर उनके प्रेमालाप से सरोवर कविताओं में अप्रितम प्रेम को प्रदर्शित करते हुए कहा कि अभी कांता ने शुरुआत की है उन्हें काफी आगे बढना है। सुंदर काव्य लिखने वाली श्रीमती ज्योत्स्ना जोशी ने जहाँ कांता की एक कविता को पढ़ा वहीँ उन्होंने भी उनकी निजी जिन्दगी के कुछ ख़ास पहलुओं को निकटता देते हुए कहा है कि जो कान्ता यथार्थ में बहुत शालीन रहती हैं, उनकी कवितायें उनके अन्तस् की वह ज्वाला हैं जो उन्हें आत्मसार करवाती हुई समाज के लिए आइना साबित होंगी। वहीं जौनसार क्षेत्र की ऊर्जावान कवियत्री श्रीमती सुनीता चौहान ने अपने नपे-तुले अंदाज में “मुट्ठी भर रंग” की एक कविता का काव्य पाठ किया।

सुप्रसिद्ध शिक्षाविद्ध व संस्कृतिकर्मी प्रो. दाताराम पुरोहित ने विस्मय जताते हुए कहा कि उन्हें बेहद गर्व की अनुभूति हो रही है कि उनकी वह शिष्या जिसे उन्होंने अंग्रेजी पढ़ाई है, वह हिंदी में भी इतना खूबसूरत काव्य लिख सकती है। उन्होंने कहा कांता की कविताओं में आज भी उसका पहाड़ प्रेम, वात्सल्य, बिछोह व बालपन झलकता-छलकता है! उन्होंने पुस्तक समीक्षा करते हुए लिखा है कि कांता की कविताओं में राग शिवरंजनी है। उन्होंने कहा कि किस तरह घर आँगन की सखी गौरय्या कांता के शब्दों में कभी उसे बेटी, कभी बीता कल, कभी मित्र मंडली, कभी सखी, कभी बहन लगती है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे धाद के केन्द्रीय अध्यक्ष साहित्यकार लोकेश नवानी कहते हैं कि यह कांता का पहला काव्य संकलन है, अभी उन्हें बहुत लम्बी यात्रा करनी है। उनकी कविताओं में सरसता, सरलता व लोक के अंश छुपे हैं, जो देर-सबेर आपके दिल को जरुर छू जाते हैं। उन्हें इस बात की ख़ुशी है कि कांता ने बर्षों पहले धाद के इसी मंच पर अपनी पहली कविता प्रस्तुत की थी तब वह घबराई सी नवोदित लगती थी, आज उन्हें ख़ुशी है कि इसी स्थान पर वह एक पुस्तक लेकर आई हैं जिसके रंग हगम सबको पसंद आयेंगे।

“मुट्ठी भर रंग”

वह सचमुच कभी बासंती पुष्प सी पल्लवित, बुरांश सी उद्वेलित तो कभी दाड़िम सी फांक लगती है! वह कभी बहती नदी तो कभी समन्दर सी शांत…! कभी अरबी की डंठल तो कभी अरबी के पत्ते पर गिरी ओंस बूँद सी महसूस होती है! वह कभी पंचतत्व में लिपि-पुती रसोईघर की शान तो कभी उदित उदयगिरी नीलमणि सी तो कभी पूर्णमासी की चांदना सी दिखती है! सच कहूँ तो वह कभी खेत की माटी की डली तो कभी हिमालय की बर्फ की अर्फ तो कभी पत्थर की चट्टान सी लगती है। अब इतना कुछ जब सब बहुत सरल शब्दों में ढली वह गुड की सी डली हो तो भला कोई उसे मुट्ठी में कैसे भर सकता है! वह मुट्ठी भर रंग तो हैं लेकिन मुट्ठी खुलने पर वही हस्तरेखाओं में बिखरे सैकड़ों रंगों के मानिंद फैलती ही जाती है। उस मालिनी वृक्ष लता की तरह जो लिपटती हुई गगन छूने को आतुर तो है लेकिन उसका बेग मालन लता की तरह अन्य लताओं से भिन्न या उलट लगता है।

“मुट्ठी भर रंग” में शब्द संरचना कांता घिल्डियाल के स्वभाव में ढले रचे बसे वे मन माफिक शब्द लगते हैं, जिन्हें वह अपनी तरह सीधे सपाट अंदाज में रसभरी चासणी में डालकर आत्मसार करवाती नजर आती हैं और यह कोशिश भी उनकी पुरजोर रहती है कि  आज के समाज में बढ़ते डायबिटीज के मरीज कहीं शब्दसार करने में बीमार न हो जाएँ क्योंकि उनकी काव्य संरचना में आम बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त शब्दों की अधिकता दिखती है। उनकी तमाम 100 कविताओं में अल्प विराम, पूर्ण-विराम, प्रश्नवाचक चिह्न इत्यादि का प्रयोग यह दर्शाता है कि वह काव्य में गूढ़ता पसंद नहीं करती या फिर वर्तमान कवियों की भांति वह समाज के साथ कदमताल करना पसंद करती हैं। मुझे लगता है कि एक समालोचक के रूप में मुझे यह इंगित करने में जरा भी पीछे नहीं रहना चाहिए कि शब्द संस्कृति के साथ इन जोड़ों का होना भी उतना ही आवश्यक होता है जितना दाल, खिचड़ी या किसी भी पकवान में मसालों का…!

कांता के काव्य संसार में उनके ग्रहस्थ जीवन के कई पहलु दिखाई देते हैं जो उनके इर्द-गिर्द मंडराकर शब्दों में ढलकर उनकी उद्वेघना शांत करते आगे बढ़ते ही जाते हैं क्योंकि कई कवितायें उनकी चारदीवारी, आंगन खिड़की व हरियाली, सूर्य तपिस, लहलहाती फसल, गाँव, खेत-खलिहान बादल, बरसात, परीलोक , भाई बहन, बेटी व बचपन की उछल-कूद में शामिल बाघ बट्टी, इच्ची-दुच्ची पर केन्द्रित होकर अगाध प्रेम की परिभाषा को परिलक्षित कर स्वछन्द आलिंघन को प्रेरित करती नजर आती हैं! सच कहूँ तो काव्य का ठहराव भी कहीं-कहीं पर विस्मित भाव उपजा देता है! बेटियाँ अक्सर होती ही ऐसी हैं जैसी कांता घिल्डियाल की कवितायें कभी माँ बनकर तो कभी बेटी बनकर अपने वात्सल्य के ताने-बाने बुनकर कहती नजर आती हैं कि अब बहुत हुआ! बेटियों की भी अपनी भावनाएं होती हैं, उन्हें भी स्वछन्द उड़ान भरनी होती है! कई बार तो लगता है कि ये वह कविता में उन रिश्तों की कल्पना करती हैं जो उन्हें उनके बचपन व यौवन ने संवेदनाओं व अपनेपन के अंतस के साथ दहेज़ में भेजी हैं। वे आदर्श भी निरा कभी खोखले तो कभी सुदृढ़ नजर आते हैं जिनका वह अक्षरत: पालन करती नजर आती हैं। वह घास के मखमली बिछौने में पसरकर जिस तरह प्रेमालाप करती हैं वह आम जिन्दगी के उन स्वप्नों के पंख हैं जो खूबसूरत बुग्यालों के दामन गुदगुदी घास में पसर जाना चाहती है।

कांता की कविताओं में जहाँ जीवन के उल्लास परिदृश्य होते हैं तो वहीँ दूसरी और सामाजिक लोक संस्कारों से जूझती उस स्त्री की बेबसी भी होती है जो अदृश्य बन्धनों के मोहपास में जकड़ी नजर आती है। वह मन विद्रोह कर उन रूढीवादी परम्पराओं को तोड़ना चाहता है, जिन्हें बेवजह के सांस्कारिक स्वरूप की मच्छरदानी पहनाई जाती है। सबसे ख़ास बात उनकी कवितायें जो लगभग दर्जन भर से अधिक ही होंगी एक बेटी के उस हर रंग में रंगी नजर आती है जिसमें उसका सारा बचपन, यौवन व श्रृष्टि संसार केन्द्रित है। वह प्रोढ़ावस्था का जहाँ बोध करवाती हुई बरबस यौवना बनकर प्रेम मिलन के क्षणों में आनन्द की अनुभूति करना चाहती हैं, वहीँ उस प्रेमालाप के असहनीय वियोग में भी अपने को भीगा सा महसूस करती है। वह कभी माँ तो कभी बेटी के स्वरूप में ढलती हुई वह कहने को आतुर हैं, जिसमें वह तरक्की के हर पायदान को छूकर शीर्ष तक कायम तो होती है लेकिन उसके हिस्से का वह पल उसे प्राप्त नहीं हो पाता।

सचमुच उन्ही की तरह उनका यह काव्य संग्रह “मुट्ठी भर रंग” जीवन जीने की आपाधापी और भाग-दौड़ में पारिवारिक व सामाजिक जीवन का निर्वहन करती कराती एक कल-कल, छल-छल बहती पहाड़ी गदेरे से नदी और नदी से सागर में विलीन हो जाती है। मैं तो यही कहूंगा कि शब्द सम्पदा की इस भीगी चासनी को आप आगे भी ऐसे ही सरस और सरल रखिये ताकि यह हर पाठक वर्ग के लिए आसान हो जाए। आपके इस काव्य संग्रह ने मुझ जैसे व्यक्ति को 100 कविताओं के दर्प को छूने के लिए मजबूर कर दिया। आपको ढेरों शुभकामनाएं।

एक और ख़ास बात….! किताब के लोकार्पण से पूर्व इस काव्य संग्रह को जो सनील के आवरण में लपेटकर आप लोगों ने प्रस्तुत किया उसने सचमुच रोचकता बढ़ा दी। यह पहला पल था जब मैंने पौधों के गुलदान को भी सुंदर आवरण में लिपटे देखा और उससे भी ज्यादा आनन्द की अनुभूति करवाता आपके काव्य संग्रह का मुख पृष्ठ था जिसे आपकी बेटी अनुष्का ने डिजाईन किया है। सच कहूँ तो इस बिटिया ने नारी की समस्त भाव व्यंजना को मुख पृष्ठ पर उकेरने की कोशिश की है ।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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